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और सिद्धान्तों में वही भारत-व्यपिनी संस्कृति . की उच्च भावनायें हैं।
इस संग्रह के भजनों को पंडित वेचरदासजी ने किन प्रतिलिपियों से लिया है सो मैं नहीं जानता; किन्तु जो छपी पुस्तिका मेरे सामने है उसमें शब्दों के प्रयोग में अशुद्धियाँ बहुत हैं । मुझे जान पड़ता है कि प्रतिलिपियाँ ठीक नहीं लिखी गयीं। यह सच है कि ज्ञानानन्द, विनयविजय, यशोविजय आदि कविगण गुजराती थे और सम्भव है कि उनके शब्दों के प्रयोग में हिन्दीभाषा-भाषी कवियों के प्रयोग से कहीं कहीं भिन्नता रही हो, किन्तु बहुत से शब्दों की लिखावट से छंद की चाल का इतना नाश हो जाता है कि मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता कि ये अशुद्धियां वास्तव में कवियों की हैं। मुझे यह सब अशुद्धियां प्रतिलिपिकारों की ही मालूम होती हैं।
इस संग्रह से मुझे हिन्दी के कुछ संत कवियों का परिचय मिला । मेरे लिये इस संग्रह का विशेष मूल्य इसी दृष्टि से है। संग्रह में पंडित बेचरदासजी ने कवि-महात्माओं का कुछ थोड़ा सा परिचय दिया है । इससे उसका मूल्य बढ़ जाता है; किन्तु कवियों के सम्बन्ध में जितनी जानकारी पंडितजी ने दी है उससे मेरा संतोष नहीं हुआ । मैं तो चाहता हूं कि पंडितजी जय उन्हें समय मिले इन सब कवियों और उनके रचित ग्रन्थों के सम्बन्ध में खोज कर अधिक पता लगावें । हिन्दी और गुजराती के प्राचीन पारस्परिक सम्बन्ध और उनके आधुनिक विकास के अध्ययन की दृष्टि से इस प्रकार की खोज विशेष महत्त्व रखेगी ।
जिस शैली पर पंडित बेचरदासजी ने इस संग्रह का सम्पादन किया है वह अद्भुत पांडित्यपूर्ण है । हिन्दी में मैंने
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