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धर्मामृत
(३३)
राग छाया नट-तीन ताल
थिर नांहि रे थिर नाहि, यावत धन यौवन थिर नांहि । पलक एकमें छेह दिखावत, जैसी बादल की छांहि ॥ थिर० ॥ १
मेरे मेरे कर मरत बिचारे, दुनियां अपनी करी चाही । कुलटा स्त्री ज्यों उलटा होवे, या साथ किसीके ना याहि ॥ थिर० २ ॥
कहे दुनियां कहा हसे बाउरे, मेरी गति समजों नांहि । केते ही छोरे में प्यासे, केते ओर गहे बांहि ॥ थिर० ३ ॥
सयन सनेह सकल हे चंचल, किस के सुत किसकी माइ । रितु बसंत शिर रुग्व पात ज्यौं, जाय परोगे को कांही ॥ थिर० ४ ॥
अजरामर अकलंक अरूपी, सब लोगनकु सुखदाइ । विनय कहे भय दुःख बंधन ते, छोडनहार वे सांइ ॥ थिर०५ ॥