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१२८. प्यासे - तृषित
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सं० पिपासितः - प्रा० पिपासिए - पिआसिए - प्यासे अथवा सं० पिपासुकः - प्रा० पिवा सुए - पियासुए - प्यासुए -प्यासे प्यास' का शब्द मूल 'पिपासा' है : पिपासा - पिवासा - पियासा-. पियास - प्यास |
१२९. सयन - स्वजन
सं० स्वजन - सयण-सयन
धर्मामृत -
१३०. रुख - वृक्ष
सं० वृक्ष - प्रा० रुक्ख - रुख । 'वृक्ष' के आदि का 'व' वाग्व्यापार से लुप्त हो गया है। 'वृक्ष' में मूल धातु 'वृश्व' है, 'वृश्च' माने 'काटना' " ओवस्चौत् छेदने " – ( धातुपारायण तुदादिगण अंक २७ )
भजन ३४वां
१३१. पाहार-पहाड-पर्वत
पाहाड- पहाड
सं० पाषाण - प्रा० पाहाण 'पाहाण' से
पाहार - पहार
भजन में 'जैने पाहार' छपा है परंतु 'जैसे पाहार' होना चाहिए । अर्थात् जैसे पाहाड खडे खडे तप करते हैं वैसे तप करना भी मन को वश किये बिना व्यर्थ है । १३२. तिरस - तृषा - प्यास - इच्छा ।