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धर्मामृत होने से 'तसकर' होता है । 'तस्कर' को व्युत्पत्ति को दिखलाते हुए वैयाकरण और कोशकार 'तस्कर' पद में 'तत्+कर' ऐसे दो पद बताते हैं । परन्तु 'तस्कर' के अर्थ को देखने से 'तत्+कर' ऐसा पृथक्करण घटमान नहि होता। कोशो में 'चौर' वाची जितने शब्द आए हैं उन सब में साक्षात् वा परंपरा से 'चौर्य' का भाव पाया जाता है किंतु प्रस्तुत 'तस्कर' की 'तत्+कर' व्युत्पत्ति में चौर्य के भाव का गंध भी नहि । इस संबंध में विचार करने से मालूम होता है कि 'तस्कर' का मूलभूत कोई प्राचीन देश्य शब्द होगा जिस को संस्कार कर 'तस्कर' शब्द बनाया हो अथवा त्रास सूचक 'त्रस्' धातु से 'तस्कर' का 'तस्' भाग बना हो । कुछ भी हो परंतु 'तत्+कर' से 'तस्कर' बनाने की रीत वरावर नहि लगती। शब्दशोधक साक्षर इस ओर जरूर लक्ष्य करें।
२८. निहाले-देखे-बराबर देखे
सं० निभालयते प्रा० 'निहालए' वा 'निहालइ । उस पर से 'निहाले । आचार्य हेमचंद्र अपने धातुपारायण में "भलिण आभण्डने" धातु बताते हैं । " आभण्डनम्-निरूपणम् "(धातुपारायण पृ० २६९) 'भल्' धातु दसमा गण का है, उसका अर्थ 'निरूपण' है। 'निरूपण' का व्यापक भाव, 'निहालने में संकुचित हुआ है ऐसी एक कल्पना । अथवा 'नि'