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ज्ञानानन्द
(१६)
राग बीभास-तीन ताल
मंदिर एक बनाया हमने मंदिर एक बनाया रे ॥ टेक ॥
[१९]
जिस मंदिर के दश दरवाजे एक बुंदकी माया रे | नानो पंखी जाके अंतर, राज करे चित्त राजा रे ॥ मं० ॥ १ ॥
हाड मांस जाके नहिं दीसे, रूप रंग नहिं जाया रे । पंख न दीसे कह से पिछानुं, षट रस भोगे भाया रे ॥ मं० ॥ २ ॥
जातो आतो नहिं कोइ देखे, नहिं कोई रूप बतावे रे | सब जग खायो तो पण भूखो, तृप्ति कबहिं न पावे रे ॥ मं० ॥ ३ ॥
जालम पंखी तालम मंदिर, पाछे कोन बतावे रे । चह पंखोको जो कोइ जाने, सो ज्ञानानंद निधि पावेरे ॥ मं० ॥ ४ ॥