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पाखंड
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हो परन्तु छुवा अछुवा का कल्पित आचार तो रहना ही चाहिए ऐसी जड मान्यता को रखने वाले कभी भी परमात्मा को नहि पा सकते वा नहि पहिचान सकते इतना ही नहि किंतु मानव, ऐसी कितनी ही विवेकहीन क्रियाएं वा रूढिएं पकड रखें तो भी वह सब निरा पाखंड है ऐसा प्रस्तुत भजनकारका स्पष्ट कथन है।
'छोत' शब्द का मूल 'छुप' धातु में है । 'छुप' धातु से भूतकृदंत छुप्त प्रा० 'छुत्त' और प्रा० 'छुत्त' से 'छोत' वा छूत | न छोत - 'अछोत' । 'छुना' और छूवुं (गुज०) क्रियापद का मूल भी 'प' धातु में है । "पंत् स्पर्शे" - (धातुपारायण तुदादिगण अंक ६१) धातु यद्यपि 'छुप' है तो भी वह मूल संस्कृत है वा देश्य यह कैसे कहा जाय ? प्रसिद्ध 'स्पृश' धातु के साथ उसका कोइ प्रकार का संबंध है या नहि ? यह भी विचारणीय है ।
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७७. पाखंड – जूठा - घतिंग
मूल 'पाषण्ड' | 'ष' का 'ख' उच्चारण होने से पाखंड | अशोक की धर्मलिपिओं में 'पासंड' शब्द का प्रयोग आता इससे प्रतीत होता है कि 'पाखंड' कितना पुराना है । धर्मलिपियों में प्रयुक्त 'पाखंड' शब्द का 'जूठ' अर्थ नहि किंतु मत - संप्रदाय वा कोई भी धर्मपंथ अर्थ है । जैनशास्त्र में भी 'पाखंड' शब्द का प्रयोग आता है, वहां उसका अर्थ है 'अमुक संप्रदाय का