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वेला वीत्यां
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'वीत' में 'वीतने' का लोकप्रसिद्ध भाव को लाने के लिए लक्षणा का आश्रय करने को भी सूचित करते है ऐसा जान पडता है । वे लिखते हैं कि
" सं० धातु
गुज ० धातु ०
क्तांतरूप. प्रा. गुज ० वि+इ ९१ वीतकम् वीतरं वीत्युं वीत् 'वोतकम्' नो अर्थ "गत, अतिक्रान्त" हेवो छे (जेम के वीतराग ) पण वत्युं (गुज.) एटले " अनुभव्युं " कारण के जे गयुं छे, जे ( मनुष्य ने ) वीत्युं छे ते ए मनुष्ये अनुभवेलुं छे" "म्हने शुं शुं वत्युं ते कहुं" तेम ज आपवीती ( जातनो अनुभव ) परवीती (अन्यनो अनुभव ) साधारणतः 'वीतवुं' अनिष्ट अनुभवमां वपराय छे।" ( गूजराती भाषा अने साहित्य पृ० २३६ टि०९१)
'वीत' शब्द, संस्कृत साहित्य में कहीं भी 'बीतने' के भाव में आया ऐसा ज्ञात नहि और 'व्यतीत' शब्द तो 'वीतने' के भाव में सुप्रतीत है । तदुपरांत 'व्यतीत' से 'वीतने' को व्युत्पन्न करने में थोडी भी खींचातानी नहि करनी पडती है तब 'वीत' से 'वीतने' को लाने में उसके प्रसिद्ध अर्थ की संगति बताने के लिए खींचातानी आवश्यकसी हो जाती है । सगत श्री नरसिंहरावभाई ने 'वीतवुं' के मूल रूप के लिए जो कुछ लिखा है उसके संबंध में हमारा इतना ही उपर्युक्त नम्र कथन है । अत्र व्युत्पत्तिविदः प्रमाणम् ।