________________
[११८]
धर्मामृत साधारण रात्रि के लिए भी हो गया । 'वि+भा' को 'वन्' प्रत्यय लगने पर 'वन् ' के 'न' का स्त्रीलिंगी रूपमें 'र' होने पर 'विभावरी' शब्द बनता है। इसी प्रकार से 'भावर' शब्द को निष्पन्न कर 'भोर' शब्द की व्युत्पत्ति बतानी है । 'भोर' के समान एक दूसरा 'विभोर' शब्द भी है जो 'भोर' का ठीक पर्याय है उसकी व्युत्पत्ति भी 'भोर' के समान समजनी चाहिए । 'विभावरी' से 'विभावर' को बनाकर उस पर से विभोर' की और 'वि' को निकाल देनेसे 'भोर' की सिद्धि हो जाती है । " मन्-वन्-श्वनिप्-विच् क्वचित् " ५-१-१४७ । हेमचंद्र के संस्कृत व्याकरण के इस नियमानुसार धातुमात्र को लक्ष्यानुसार 'वन्' प्रत्यय लगता है। उक्त 'वन्' प्रत्यय के लिए पाणिनीय का "अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते" सूत्र है । उक्त कल्पना के अनुसार 'विभोर' और 'भोर' का क्रमविकास इस तरह है:
विभावर-विभाउर-विभोर अथवा विभोर । भावर-भाउर-भोर । 'विभोर' और 'भोर' ये दोनेां शब्द स्त्रीलिंगी है यह ख्याल. में रहे। .
'भोर' के संबन्ध में दूसरी कल्पना इस प्रकार है:जिस समय चरवाहे लोक पशुओं को चराने के लिए
।