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धर्मामृत
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राग सोरठ
बड़ि दगाबाज रे, तूं बडि दगाबाज प्यारी, तूं बढ़ि दगाबाज | टेक
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तेरे खातर डूंगर दरी बिच, रही दुःख सह्यो में अपार । हांसी खूसी बहु नातरां कीधां, तूं कांइ भूलि गवार ॥ तूं ० १ ॥
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कवडी साटे तेर खातर, माहरो कीधो मोल |
धूंढक योगी यति संन्यासी, मुंडित कियो ते रोल ॥ तूं० २ ॥
मुडो बांधी का ते फाडी, बहुविध वेस कराय | दान करी सहु पाखंड कीघां, जन लुंट्यो मन भाय रे ॥ तुं० ३ ॥
घर घर भटक्यो तेरे साये, पोते पाप भराय | अब तूं काह न बोले मोसुं, तुं कपटीनी दिखलाय ॥ तूं० ४ ॥
ऐसो देखी भयो हुं ऊदासी; निधि चारित्र लहाय । ज्ञानानंद चेतनमय मूरति ध्यान समाधि गहाय ॥ तूं० ५ ॥