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पांचो
[१७१] भजन १७ वां पांचो-पांच इंद्रियां दोय-राग और द्वेष ९३. चार
सं० चत्वारः प्रा० चत्तारो-चत्तार-चतार-चयार~च्यार -चार ।
चार-क्रोव मान माया और लोभ अथवा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय ये चार घाती कर्म । देखो -'घातिकरम'
९४. काटके-काट कर-छेद कर । सं०-कृत्-कर्त-प्रा० कट । प्रस्तुत 'कट्ट' से 'काटना क्रियापद आया है 'कांतना' क्रियापद भी 'कृत् से ही नीकला हैः कृत्-कृन्त-कंत-कांत "कृतैत् छेदने "-(धातुपारायण तुदादिगण अंक ११)
९५. सोल सं० षोडश प्रा० सोलस-सोलह-सोल वा सोळ ।
'षोडश' में 'षट+दश' ऐसे दो पद है। 'पटन दश' का अर्थ-जिसमें छह अधिक है ऐसे दश अर्थात्-सोलह ।
सोल-कषायमोह के सोलह प्रकार-अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन के रूप से क्रोध, नान, माया लोभ कषायों के प्रत्येक के चार चार प्रकार होकर सोलह भेद होते हैं।
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