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विशालदृष्टि और अन्तर्मुख मालूम होते हैं। प्रतीत होता है कि शुरू शुरू में वे सांप्रदायिक रहे होंगे पर सम्प्रदाय के संकीर्ण और कलहमय स्वरूप का अनुभव होने पर वे समदर्शी, सर्वधर्मसमभावी, व्यापकदृष्टि और अंतर्मुख बन
गए हैं। यशोविजय - समय सत्तरहवीं शताब्दी। पिता का नाम नारायण
व्यवहारी-वणिक । माता का नाम सौभाग्य देवी । वतन का नाम कनहेई गाम (पाटण के आसपास)-गुजरात । दो भाई थे -~~-जशवंत और पद्मसिंह । गुरु का नाम नयविजय वाचक । दीक्षित अवस्था का नाम यशोविजय । ये बड़े विद्वान् थे । इन्होंने काशी में और आग्रा में रहकर न्यायशास्त्र अलंकारशास्त्र और व्याकरणशास्त्र का गंभीर तलस्पर्शी अध्ययन किया था। काशी में ही विद्वत्सभा में जय प्राप्ति करके 'न्याय विशारद' की पदवी पाई थी । जैन समाज में ये दूसरे हेमचन्द्राचार्य हुए हैं ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं । इनने अनेक ग्रंथ लिखे हैं जिनमें अधिकतर तर्कप्रधानदर्शनशास्त्र संबन्धी है और अन्य ग्रन्थ अध्यात्म विषय के हैं । भाषा में भी इन्होंने अपनी लेखनी चलाई है और बड़े बड़े मार्मिक स्वाध्याय, भजन व रास लिखे हैं । तर्क के गहन विषय को भी इन्होंने भाषा में उतार कर अधिक सरल रीति से दर्शाया है । न्यायखंडनखाद्य, न्यायालोक, गुरुतत्त्वविनिश्चय अध्यात्ममतपरीक्षा पातंजलयोग सूत्र के चतुर्थपादकी-कैवल्यपादकी-वृत्ति प्रभृति इनके ३७ ग्रन्थ तो मुद्रित हो चुके हैं और दूसरे ऐसे अनेक ग्रंथ आज तक अमुद्रित पड़े हैं और कितनेक तो उपलब्ध