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यशोविजय
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सज्जन राखत रीति भली, बिनु कारण उपकारी उत्तम | - जाइ सहज मिलि, दुर्जन की मन परिनति काली, जैसी होय
गली ॥ स० १ ॥
'ओरन को देखत गुन जगमें, दुर्जन जाये जली | फल पावे गुन गुनको ज्ञाता, सज्जन हेज हली ॥ स० २ ॥
ऊंच इति पद बेठो दुर्जन, जाइ नाहिं बली । ऊपगृह ऊपर बेठी मीनी होत नहीं उजली ॥ स० ३ ॥
विनय विवेक विचारत सज्जन, भद्रक भाव भली । दोष लेश जो देखे कब हूं, चाले चतुर टली ॥ स० ४ ॥
अव में ऐसो सज्जन पायो, ऊनको रीत भली । श्री नयविजय सुगुरु सेवातें, सुजस रंग रली ॥ स० ५ ॥