Book Title: Agam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Author(s): Varunmuni
Publisher: Padma Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल म 20 ATORICO SS WENSLANDS COLANTIC OCEA RADHAAREY - वरुण मुनि अमर शिष्य Koshishortesunga 405DIDIUODIORT003930 DOHDInsporati Daramarioo Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ba श्री 'आत्म 'पद्म गर वे नमः राष्ट्र सन्त उत्तर भारतीय प्रवर्तक अनंत उपकारी गुरूदेव भण्डारी प. पू. श्री पद्म चन्द्र जी म.सा. की पुण्य स्मृति में साहित्य सम्राट श्रुताचार्य पूज्य प्रवर्तक वाणी भूषण गुरूदेव प.पू. श्री अमर मुनि जी म.सा. द्वारा संपादित एवं पद्म प्रकाशन द्वारा विश्व में प्रथम बार प्रकाशित (सचित्र, मूल, हिन्दी-इंगलिश अनुवाद सहित) जैनागम सादर सप्रेम भेंट | भेंटकर्त्ता : श्रुतसेवा लाभार्थी सौभाग्यशाली परिवार ॥ ॥ श्री वर्धमानाय नमः ।। ।। गुरवे रवे नमः श्रीगर नमः श्री श्री अमर गरवे श्रीमती मिराबाई रमेशलालजी लुणिया ( समस्त परिवार ) 'नमः ● Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत आचार्य पूज्य प्रवर्तक गुरुदेव श्री अमर मुनि जी म. की हीरक जन्म जयन्ती वर्ष (2010-2011) के शुभ उपलक्ष्य में आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल (विवेचन सहित) प्रस्तोता श्रुत आचार्य पूज्य प्रवर्तक श्री अमर मुनि जी म.सा. के सुशिष्य ललित लेखक श्री वरुण मुनि जी म.सा. 'अमर शिष्य' (डबल एम.ए.) प्रकाशक श्री पद्म प्रकाशन पद्मधाम, नरेला मण्डी, दिल्ली-40 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत आचार्य पूज्य प्रवर्तक गुरुदेव श्री अमर मुनि जी म. की हीरक जन्म जयन्ती वर्ष (2010-2011) के शुभ उपलक्ष्य में पुस्तक : आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल लेखक : ललित लेखक श्री वरुण मुनि जी म.सा. 'अमर शिष्य' (डबल एम.ए.) प्रथमावृत्ति : वि.सं. 2068 ईस्वी सन् 2011, मार्च प्रकाशक : श्री पद्म प्रकाशन पद्मधाम, नरेला मण्डी, दिल्ली-110040 प्राप्ति स्थान : महामंत्री गिरधारी लाल जी जैन गुरु अमर जैन इन्टरनेशनल वैल्फेयर फाउण्डेशन (रजि.) 1836/2, व्हाईट क्वाटर, धुरी लाईन, लुधियाना (मो.)-09316920521 मुद्रक : कोमल प्रकाशन, दिल्ली मो. 9210480385 मूल्य : सौ रुपया मात्र Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण मेरे जीवन निर्माता, श्रुत-सेवा-साधनानिष्ठ श्रुताचार्य पूज्य प्रवर्त्तक गुरुदेव श्री अमर मुनि जी महाराज 112 की हीरक जन्म जयन्ती के पावन - प्रसंग पर सेवा में सादर सविनय समर्पित विनयावनत वरुण मुनि 'अमर शिष्य' S Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृति शेषपुण्य-पुरुष डॉ. विजयकुमार जी जैन श्री अजय कुमार जी जैन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदारमना सहयोगी स्व. डॉ. श्री विजय कुमार जी जैन एवं उनके सुपुत्र स्व. श्री अजय कुमार जैन की पुण्य स्मृति में प्रस्तुत पुस्तक का प्रकाशन किया गया है। डॉ. साहब अपने समय के सुप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय चिकित्सक रहे। मानव सेवा में उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित किया। अपने पति एवं पुत्र की स्मृति में श्रद्धाशील सुश्राविका श्रीमती रेखा जैन ने प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन का व्यय वहन कर अपनी आस्था को पुलकित किया है। श्रीमती रेखा जैन एक धर्मप्राण श्राविका हैं जो दान-पुण्य एवं धार्मिक-सामाजिक अनुष्ठानों में सदैव अपना सहयोग प्रदान करती रहती हैं। • आपके सुपुत्र श्री रिंकू जैन एवं सुपुत्री श्रीमती संजू जैन पर भी आपके धार्मिक संस्कारों की गहरी छाप है। श्रीमती संजू जैन कालांवाली में विवाहित हैं। इनके पति श्री महेन्द्र जैन एक कुशल व्यवसायी एवं जैन समाज के अग्रगण्य व्यक्ति हैं। श्री महेन्द्र जैन एस. एस. जैन सभा कालांवाली के अध्यक्ष पद पर अपनी सेवाएं दे चुके हैं। वर्तमान में ओढां जैन समाज के अध्यक्ष हैं " जहां इनके नेतृत्व में जैन स्थानक का निर्माण हो रहा है। स्मरण रहे - श्रीमती रेखा जैन हमारे युवामनीषी श्री वरुण मुनि जी महाराज की संसार पक्षीय मौसी हैं । प्राप्त सौजन्य के लिए 'श्री पद्म प्रकाशन' आपका हार्दिक धन्यवाद ज्ञापन करता है। 3 - अध्यक्ष पद्म प्रकाशन नरेला मण्डी दिल्ली Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन जिज्ञासु सज्जनों को जैनदर्शन का ज्ञान कराने के लिए सर्वप्रथम 'पच्चीस बोल' सिखाने की परम्परा रही है। यह आगमज्ञान के रहस्यों को समझने की सरल कुंजी है। यह तत्त्व-मंदिर में प्रवेश करने का प्रथम द्वार है। इसके छोटे-छोटे बोल, सूत्र या प्वाइंट रूप में कण्ठस्थ करने में भी आसान हैं और इन बोलों में जैन धर्म-दर्शन के आवश्यक . तथा महत्त्वपूर्ण सभी सूत्र आ गए हैं। .. कई वर्षों से यह आग्रह था कि इन पच्चीस बोलों को समझाने के लिए कोई सरल विवेचन होना चाहिये। पुराने लोग श्रद्धा-प्रधान थे। वे तर्क-वितर्क नहीं करते थे। आजकल के युवक बुद्धि-प्रधान हैं। हर एक विषय को तर्क से तथा विज्ञान के आधार पर समझने की चेष्टा करते हैं। निःसन्देह जैनदर्शन एक वैज्ञानिक दर्शन है, परन्तु हमारी समझाने की शैली आज भी वही परम्परागत है जिस कारण आज का बुद्धिवादी तर्क-प्रधान युवक उसे समझने में दिलचस्पी कम लेता है। यदि इस दर्शन के मूल सिद्धान्तों को सामान्य विज्ञान की प्रचलित भाषा में समझाया जाये तो यह शीघ्र ग्राह्य हो जाता है और लोगों को आश्चर्य भी होता है कि हजारों वर्ष पहले भी जैनदर्शन में उन तत्त्वों का विवेचन है जिनके विषय में आज के वैज्ञानिक प्रयोगशाला और परीक्षणशालाओं में बैठकर यन्त्रों द्वारा अनुसंधान कर रहे हैं। मैंने श्री वरुण मुनि को प्रेरणा दी कि वे इस विषय की नई पुस्तकें पढ़कर पच्चीस बोल का सरल और सारयुक्त विवेचन लिखें । मुझे प्रसन्नता है कि उन्होंने अध्ययन करके इस विषय को सुन्दरता व रोचकता के साथ प्रस्तुत किया है। मैं शुभ कामना करता हूँ कि वे इसी प्रकार अपने अध्ययन में आगे बढ़ते हुए जिनशासन की सेवा करते रहें। मुझे विश्वास है कि यह पुस्तक तत्व-जिज्ञासुओं की जिज्ञासाओं का सटीक समाधान करेगी। इसी में इस पुस्तक की उपयोगिता और वरुण मुनि के श्रम की सफलता छिपी है। -प्रवर्तक अमर मुनि Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी बात एक विद्वान् ने कहा-"ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं।' दूसरे विद्वान् ने कहा-“चारित्र (क्रिया) के बिना ज्ञान का कोई महत्त्व नहीं।" दोनों परस्पर विवाद करने लगे। तब आचार्य ने समाधान कियामुक्ति की तरफ गति करने के लिए ज्ञान और चारित्र दोनों ही दो चरण की तरह आवश्यक हैं। एक पाँव से यात्रा नहीं हो सकती, उसी प्रकार न तो ज्ञान ही अकेला मुक्ति का मार्ग है, न ही अकेली क्रिया आत्मा का कल्याण कर सकती है। ज्ञान और क्रिया दोनों का सम्मिलन ही मुक्ति की यात्रा में सहायक बनता है। __ज्ञान का अर्थ है-मोक्ष के साधक-बाधक तत्त्वों की जानकारी। अहिंसा, संयम आदि का ज्ञान । अहिंसा और संयम की साधना के लिए जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञान आवश्यक है। इनको जाने बिना अहिंसा, दया, संयम की साधना कैसे हो सकती है? व्रत, तप की आराधना भी कैसे हो सकती है? जीवअंजीव, आस्रव-संवर आदि तत्त्वों का सरल-सहज रीति से ज्ञान कराने के लिए जैन आचार्यों ने एक छोटा-सा स्तोक (थोकड़ा) बनाया है-'पच्चीस बोल' | यह संकलन किसी अनुभवी, निष्णात विद्वान् ने कब किया इसके विषय में कोई ऊहापोह न करके यह जानें कि यह स्तोक इतना सारपूर्ण, उपयोगी तथा सरल है कि पाठक को जैनदर्शन व धर्म का मूलभूत ज्ञान कराने में अत्यन्त उपयोगी है। इसे जैनदर्शन को समझने की कुंजी कहा जा सकता है। पच्चीस बोल पर छोटे-बड़े अनेक विवेचन छपे हुए हैं और उनकी अपनी उपयोगिता है। मैंने पच्चीस बोल पर तात्त्विक और वैज्ञानिक Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों दृष्टियों से सरल और सुबोध विवेचन किया है । इस विवेचन की अपनी विशेषता यह है कि पच्चीस बोल की चर्चा में उठने वाले अनेक प्रासंगिक और इससे सम्बन्धित प्रश्नों को भी उपस्थित करके उनका सरल विवेचन किया गया है, जिससे उस विषय की अनेक जिज्ञासाओं का भी समाधान होता है। साथ ही पाठकों की ज्ञान - वृद्धि भी होती है । जहाँ-जहाँ आवश्यक प्रतीत हुआ वहाँ जैनदर्शन के पारिभाषिक शब्दों की आधुनिक विज्ञान की शब्दावली में प्रस्तुति और संगति भी की गई है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि आगमज्ञान पूर्ण वैज्ञानिक ज्ञान है, भौतिक विज्ञान भी आज उसकी मान्यताओं का समर्थन करता है और उसके अनेक निष्कर्षों को स्वीकार करता है । आशा है यह विवेचन अब तक के प्रकाशित सभी विवेचनों से कुछ अलग, लीक से हटकर विद्यार्थियों व जिज्ञासुओं के लिए ज्ञानवर्द्धक सिद्ध होगा। प्रत्येक बोल के अन्त में कुछ प्रश्नावली भी दी गई है ताकि जिज्ञासु उस विषय के प्रश्नों का उत्तर अपने पढ़े हुए पाठ से खोजकर ज्ञान को अधिक परिपक्व व निर्दोष बना सकें । परम श्रद्धेय पू. पितामह गुरुदेव उ.भा. प्रवर्त्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी म.सा. की अदृष्ट असीम अनुकम्पा तथा परम श्रद्धास्पद श्रुताचार्य पू. प्रवर्त्तक गुरुदेव श्री अमर मुनि जी म. की विशेष प्रेरणा एवं मार्गदर्शन से मैंने यह छोटा-सा प्रयास किया है। मुझे विश्वास है कि यह सभी के लिए उपयोगी होगा । इस लेखन में सहायक सभी पुस्तक-लेखकों एवं सहयोगियों का मैं हृदय से आभारी हूँ। - वरुण मुनि 'अमर शिष्य' Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका क्या ? पहला बोल : गतियाँ चार दूसरा बोल : जाति पाँच तीसरा बोल : काय छह चौथा बोल : इन्द्रिय पाँच पाँचवाँ बोल : पर्याप्ति छह 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11.. ग्यारहवाँ बोल : गुणस्थान चौदह 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. 21. 22. 23. 24. 25. छठा बोल : प्राण दस सातवाँ बोल : शरीर पाँच आठवाँ बोल : योग पन्द्रह नवाँ बोल : उपयोग बारह दसवाँ बोल : कर्म आठ बारहवाँ बोल : पाँच इन्द्रियों के तेईस विषय तेरहवाँ बोल : दस प्रकार का मिथ्यात्व चौदहवाँ बोल : नव तत्त्व के एक सौ पन्द्रह भेद पन्द्रहवाँ बोल : आत्मा आठ सोलहवाँ बोल : दण्डक चौबीस सत्रहवाँ बोल : लेश्या छह अठारहवाँ बोल : दृष्टि तीन उन्नीसवाँ बोल : ध्यान चार बीसवाँ बोल : षड्द्रव्य और उनके भेद इक्कीसवाँ बोल : राशि दो बाईसवाँ बोल : श्रावक के बारह व्रत तेईसवाँ बोल : साधु के पाँच महाव्रत चौबीसवाँ बोल : भंग उनचास पच्चीसवाँ बोल : चारित्र पाँच कहाँ? 1 10 17 27 31 37 43 48 54 60 70 77 83 88 100 106 114 121 128 135 146 150 161 167 172 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला: पच्चीस बोल सहित Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल (विवेचन सहित) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > > Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल पहला बोल : गतियाँ चार (जीव की उत्पत्ति के चार प्रमुख स्थान) (१) नरक गति, (२) तिर्यंच गति, (३) मनुष्य गति, . (४) देव गति। आत्मा की सत्ता शाश्वत है। आत्मा न तो कभी जन्मता है और न मरता है। वह तो अजर है, अमर है। जो जन्मता है, मरता है वह है शरीर या पर्याय। आत्मा कर्मानुसार जिस पर्याय (अवस्था) या शरीर को धारण करती है वह पर्याय या शरीर समयानुसार एक न एक दिन समाप्त होता है। प्रकृति का यह एक नियम है कि जो समाप्त होता है वह पुनः उत्पन्न भी होता है, यानी जन्म-मरण की यह प्रक्रिया. निरन्तर चलती रहती है। जन्म-मरण का यह सिलसिला आज से नहीं, अनन्त काल से है और अनन्त काल तक यूँ ही चलता रहेगा। संसार का अस्तित्व भी इसी जन्म-मरण पर आधारित है। जन्म-मरण का मूल कारण है कर्म। जो जैसा कर्म करता है तदनुरूप पर्याय धारण कर संसार में परिभ्रमण करता रहता है। आत्मा का प्रमुख लक्षण है चेतना जिसे उपयोग कहते हैं। इस लक्षण के आधार पर समस्त आत्माएँ समान स्वरूप वाली हैं, किन्तु कर्म-पुद्गलों से आबद्ध होने के कारण सभी आत्माओं में आत्म-शुद्धि समान नहीं है। इस दृष्टि से जैनदर्शन में आत्मा के दो प्रकार बताये गये हैं-एक मुक्त आत्मा और दूसरी बद्ध आत्मा। मुक्त आत्माएँ सिद्ध तथा बद्ध आत्माएँ संसारी जीव कहलाती हैं। जो आत्माएँ समस्त कर्मों से मुक्त होकर पूर्णतः उज्ज्वल, निर्मल व विशुद्ध होती हैं वे संसार-चक्र से सदा-सदा के लिए छूट जाती हैं और लोक के अग्र भाग Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *२* पहला बोल : गतियाँ चार - - - - पर स्थित हो जाती हैं। वे जन्म, जरा, शोक, भय और मरण से विमुक्त रहती हैं। ऐसी सभी आत्माएँ आत्म-विशुद्धि या आत्म-विकास की दृष्टि से समान हैं किन्तु अनन्त हैं। ये आत्माएँ सिद्ध कहलाती हैं। सिद्ध'आत्माएँ एक बार संसार से मुक्त होने के बाद पुनः संसार में नहीं आती हैं। __दूसरे प्रकार की आत्माएँ कर्म-पुद्गलों से जकड़ी हुई होती हैं, इन्हे संसारी जीव कहा जाता है। संसारी जीव भी अनन्त हैं, किन्तु वे परस्पर भिन्न-भिन्न और स्वतंत्र अस्तित्व वाले हैं। उनकी स्थिति एक-सी नहीं होती है। किसी में एक इन्द्रिय होती है तो किसी में दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रियों का विकास होता है। इसका मूल कारण है कि संसारी जीव अनेक प्रकार के कर्मों से बँधे होते हैं, जिनके कारण इनकी जन्म-मरण अर्थात् भवों की स्थितियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं। ये कर्म संसारी जीवों को एक भव से दूसरे भव, दूसरे से तीसरे और इस प्रकार अनन्त भवों में अनन्त काल से परिभ्रमण कराते आ रहे हैं। जैनदर्शन में संसारी जीवों की भव-स्थितियों को चार भागों में बाँटा गया है जिन्हें चार गतियाँ कहा जाता है। ये चार गतियाँ हैं (१) नरक गति, (२) तिर्यंच गति, (३) मनुष्य गति, (४) देव गति। . संसार के समस्त जीव कर्म-बन्धनों से बद्ध होने के कारण इन्हीं गतियों में बार-बार जन्म लेते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। नरक गति का जीव नारक कहलाता है, तिर्यंच गति का जीव तिर्यंच, मनुष्य गति का जीव मनुष्य तथा देवगति का जीव देव कहलाता है। प्रस्तुत बोल में इन्हीं संसारी जीवों और उनकी गतियों का विवेचन है। - गति का सामान्य अर्थ है चलना, घूमना, भ्रमण करना, गमन करना आदि। अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। किन्तु जैनदर्शन में गति एक पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ है एक भव से दूसरे भव, यानी एक जन्म-स्थिति से दूसरी जन्म-स्थिति को प्राप्त होना। अर्थात् अपने कर्मों के द्वारा प्रेरित हो जीव जिसे पाते हैं, वह गति है। वास्तव में जीव की अवस्था-विशेष गति कहलाती है। कोई संसारी जीव मनुष्य-भव या मनुष्य-जन्म स्थिति से या मनुष्यावस्था या मनुष्य-पर्याय से अपनी आयु पूर्ण कर देव-भव में गमन Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल * ३ * करता है तब उस क्षण से लेकर जब तक वह देव-भव या देव-स्थिति या देव-अवस्था या देव-पर्याय में रहता है तब तक उस संसारी जीव की वह अवस्था देवगति कहलाती है और देवगति का वह जीव देव कहलाता है। इसी प्रकार हम मनुष्य, तिर्यंच और नरक के संदर्भ में समझ सकते हैं। लेकिन एक बात ध्यान देने की है। समस्त संसारी जीव अपने गति-नामकर्म के उदय के कारण कभी नरक गति में, कभी तिर्यंच गति में, कभी मनुष्य गति में तो कभी देवगति में जन्म धारण करते हुए नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव कहलाते हैं। किन्तु ये सभी जीव आत्मस्वरूप की दृष्टि से 'जीव' पहले हैं; नारक, तिर्यंच, मनुष्य या देव बाद में। जैसे भारत में रहने वाले लोग भारतीय पहले हैं; हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध व जैन आदि बाद में। . जैनदर्शन के अनुसार जीव जब अपनी आयु पूर्ण कर शरीर या पर्याय को छोड़ता हुआ दूसरी आयु तथा शरीर या पर्याय को ग्रहण करने के लिए जिस स्थान या गति के लिए गमन करता है वह विग्रह गति या अन्तराल गति (Mobility to take new birth-मोबिलिटी टु टेक न्यू बर्थ) कहलाती है। यह दो प्रकार की होती है। यथा (१) ऋजु (सरल) विग्रह गति, (२) वक्र (घुमावदार) विग्रह गति। .. ऋजु गति से स्थानान्तर को जाते हुए जीव को नया प्रयत्न नहीं करना पड़ता क्योंकि जब वह पूर्व शरीर को छोड़ता है तब उसे पूर्व शरीर जन्य वेग मिलता है जिससे वह दूसरे प्रयत्न के बिना ही धनुष से छूटे हुए बाण की तरह सीधे ही नए स्थान को पहुँचाता है। वक्र गति से जाने वाले जीव को नया प्रयत्न करना पड़ता है। अन्तराल गति के समय जीव के स्थूल शरीर की अपेक्षा दो सूक्ष्म शरीर अर्थात् (१) कार्मण, तथा (२) तैजस् शरीर साथ रहते हैं क्योंकि स्थूल शरीर तो आयु पूर्ण होने पर ही छूट जाता है। इस प्रकार अन्तराल गति में जीव के 'कार्मण काययोग' रहता है। यह कार्मण काययोग केवल संसारी जीव के होते हैं मुक्त या सिद्ध जीवों के नहीं। क्योंकि मुक्त जीवों में सम्पूर्ण कर्म पहले ही नष्ट हो चुके हैं। फिर कार्मण शरीर और कार्मण योग का प्रश्न ही नहीं पैदा होता। अन्तराल गति के समय वह स्थूल व सूक्ष्म-दोनों ही शरीरों से मुक्त होता है। मुक्त जीव सदा ऋजु (सरल) गति से ही ऊर्ध्व दिशा की ओर गमन करते हुए एक समय मात्र में लोक के अग्र भाग पर जा विराजते हैं जबकि संसारी जीव की ऋजु और वक्र दोनों ही गतियाँ होती हैं। इन दोनों गतियों का Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ४* पहला बोल: गतियाँ चार आधार जीव का उत्पत्ति क्षेत्र है । जब उत्पत्ति क्षेत्र और मृत्यु क्षेत्र सम हों, सीधी दिशा में हों, तब जीव एक ही समय में ऋजु गति से उत्पत्ति क्षेत्र में पहुँच जाता है। यदि उत्पत्ति क्षेत्र विषम हो तो वहाँ पहुँचने में जीव को एक, दो या तीन घुमाव लेने पड़ते हैं। चौथे समय तो वह जीव अवश्य ही नया जन्म ग्रहण कर ता है। इस स्थिति में जीव की गति वक्र होती है। अन्तराल गति का कालमान जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट चार समय का होता है। जब गति ऋजु होती है अर्थात् जिसमें एक भी घुमाव नहीं होता तब एक समय लगता है और जब गति वक्र होती है तब दो, तीन या चार समय लगते हैं। वक्र गति में जब एक घुमाव हो तो दो समय, जब दो घुमाव हों तो तीन समय और जब तीन घुमाव हों तो चार समय लगते हैं । इसी प्रकार आहारक - अनाहारक के विषय में कहा गया है कि अन्तराल गति वाला संसारी जीव एक या दो समय तक अनाहारक ( आहार बिना लिए) रह सकता है। एक घुमाव लेने पर पहला समय अनाहारक, दो घुमाव लेने पर पहला- दूसरा समय तथा तीन घुमाव वाली गति में पहला, दूसरा, तीसरा समय अनाहारक होता है। चौथे समय तो जन्म लेते ही वह जीव अवश्य ही आहार ग्रहण कर लेता है । अन्तराल गति वाले संसारी जीवों को सूक्ष्म शरीर सहित होने के कारण आहार लेना पड़ता है । ऋजु गति वाले जीव बिना घुमाव के एक ही समय में दूसरा जन्म लेते हैं तो वे आहारक होते हैं । इसी प्रकार वक्र गति करने वाले जीवों की दो समय की एक घुमाव वाली, तीन समय की दो घुमाव वाली, चार समय की तीन घुमाव वाली स्थितियाँ अनाहारक होती हैं। जिसमें पहली का पहला, दूसरी का पहला व दूसरा, तीसरी का पहला, दूसरा और तीसरा समय अनाहारक होता है जबकि पहली का दूसरा समय, दूसरी का तीसरा समय तथा तीसरी का चौथा समय आहारक होता है । (१) नरक गति जैनदर्शन के अनुसार सम्पूर्ण लोक तीन भागों में विभक्त है - एक ऊर्ध्व लोक, दूसरा मध्य लोक ( तिर्यक् लोक) और तीसरा अधो लोक । संसार के समस्त जीव इन तीन लोकों में समाविष्ट हैं। अधो लोक में सात भूमियाँ हैं जिनमें नरक (नारक) हैं। ये भूमियाँ घनाम्बु घन वात और घन आकाश पर स्थित हैं । ये क्रमशः एक-दूसरे के नीचे हैं और नीचे की ओर अधिक विस्तीर्ण हैं। ये सातों भूमियाँ नारकों के निवास स्थान की भूमियाँ हैं, इसलिए नरक भूमि Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ५ * कहलाती हैं। इन नरक भूमियों के नाम भी गुणात्मक हैं। पहली भूमि की आभामण्डल रत्न-प्रधान होने से रत्नप्रभा कहलाती है। दूसरी शर्करा (शक्कर) के सदृश होने से शर्कराप्रभा, तीसरी बालुका-रेती की मुख्यता से बालुकाप्रभा, चौथी पङ्क-कीचड़ की अधिकता से पंकप्रभा, पाँचवीं धूम-धुएँ की अधिकता से धूमप्रभा, छठी तम-अँधेरे की विशेषता से तमःप्रभा और सातवीं घने अंधकार की प्रचुरता से महातमःप्रभा कहलाती है। पहली भूमि से दूसरी और दूसरी से तीसरी इस प्रकार सातवीं भूमि तक के नरक अशुभ, अशुभतर और अशुभतम रचना वाले होते हैं। इनमें रहने वाले नारकी जीवों की लेश्याएँ, परिणाम, वेदना और विक्रिया भी उत्तरोत्तर अधिक से अधिक अशुभ होती जाती हैं। नारकी जीवों में मुख्यतः तीन लेश्याएँ होती हैं-कृष्ण लेश्या, नील लेश्या व कापोत लेश्या। इनमें पहली व दूसरी भूमि के नारकी जीवों की लेश्याएँ कापोत, तीसरी की कापोत और नील (कापोत लेश्या वाले अधिक व नील लेश्या वाले कम), चौथी की नील, पाँचवीं की नील-कृष्ण (नील लेश्या वाले अधिक व कृष्ण लेश्या वाले कम), छठी और सातवीं की कृष्ण लेश्या होती है अर्थात् पहली से सातवीं तक के नारकों में लेश्याएँ अशुभ से अशुभतर होती जाती हैं। नारक जीवों में सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, भय, जो भी अनुभव होता है, वह अत्यन्त होता है। नारकी जीव सदा दुःखी रहते हैं। वहाँ अनन्त दुःख, असाता और अविश्राम निरन्तर रहता है। उन्हें तीन प्रकार के कष्ट व पीड़ा या वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं (१) क्षेत्र जन्य वेदना. (२) परस्पर जन्य वेदना, (३) परमाधामी देवों द्वारा दी जाने वाली वेदना। नारकों के शरीर भी क्रमशः अधिक वीभत्स, घृणास्पद और भयावने होते हैं। पहले नारक के जीवों की अपेक्षा दूसरे, तीसरे और इस प्रकार सातवें नरक के जीवों का शरीर अत्यन्त घृणास्पद, वीभत्स और दुर्गन्धयुक्त होता है। ___ नारक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट आयु भी प्रथम नरक से लेकर सातवें नरक तक के जीवों में उत्तरोत्तर लम्बी होती जाती है। जैसे प्रथम नरक की जघन्य आयु दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट आयु एक सागर है तो सातवें नरक की जघन्य आयु बाईस सागर और उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागर है। इन जीवों की आयु बीच में कहीं नहीं छूटती, इन्हें यह आयु पूरी ही भोगनी पड़ती है अर्थात् दीर्घ समयावधि तक इन नारकी जीवों को दुःख व कष्ट भोगने ही पड़ते हैं। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ६ : पहला बोल: गतियाँ चार जैनागम में यह स्पष्ट उल्लेख है कि देवगति से आयु पूर्ण कर कोई भी जीव नरक गति में या देव गति उत्पन्न नहीं हो सकता तथा नारकी जीव भी नरक आयु पूर्ण कर देवगति में अथवा नरक गति में उत्पन्न नहीं होता। इससे यह स्पष्ट होता है कि नरक में जीव मनुष्य और तिर्यंच गति से ही आते हैं और अपनी नरकायु भोगकर तिर्यंच अथवा मनुष्य गति में ही उत्पन्न होते हैं। इसके साथ यह भी नियम है कि पहली से चौथी नरक तक के जीव मनुष्य गति में उत्पन्न होकर निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार पाँचवीं नरक के जीव मनुष्य गति पाकर संयम धारण कर सकते हैं। छठी नरक से निकले नारक देशविरति और सातवीं नरक से निकले नारक सम्यक्त्वी बन सकते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रियों तक के सभी असंज्ञी जीव और मनरहित पंचेन्द्रिय जीव भी आयु पूर्ण कर पहली नरक भूमि तक में जन्म ले सकते हैं । भुजपरिसर्प, जैसे- नेवला, चूहा आदि दूसरी नरक भूमि तक; खेचर, जैसे- पक्षी आदि तीसरी नरक भूमि तक; थलचर, जैसे- सिंह, अश्व आदि चौथे नरक भूमि तक; उस्परिसर्प, जैसे-सर्प आदि पाँचवें नरक भूमि तक; स्त्री छठे नरक भूमि तक और मनुष्य सातवें नरक भूमि तक जा सकते हैं। जैनदर्शन में नरक गति के बंध का प्रमुख कारण महारम्भ और महापरिग्रह माना गया है तथापि देव, शास्त्र, गुरु की निन्दा करने से, आगम के विपरीत बोलने से क्रोध, लोभ व पर- स्त्री सेवन, पंचेन्द्रिय जीवों का वध करने से तथा माँस, मदिरा आदि दुर्व्यसनों के सेवन से संसारी जीव नरक गति में जा सकता है। वास्तव में नरक एक ऐसा स्थान है जहाँ जीव अपने अति अशुभ कर्मों का फल भोगता है। (२) तिर्यंच गति मध्य या तिर्यक् लोक में तिर्यंच गति और मनुष्य गति के जीव रहते हैं । इस लोक में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के मनुष्य को छोड़कर समस्त जीव, जो भूमि पर चलते हैं, आकाश में उड़ते हैं तथा पानी में रहते हैं साथ ही विकलेन्द्रिय जीव भी तिर्यंच कहलाते हैं । तिर्यंच जिस गति में रहते हैं वह गति तिर्यंच गति कहलाती है अर्थात् तिर्यंच गति नामकर्म के उदय से पशु, पक्षी, कीट, पतंगे, वृक्षादि की पर्याय में जन्म लेने को तिर्यंच गति कहते हैं। तिर्यंच गति के जीवों में अनेक भेद-प्रभेद हैं, जैसे- स्थावरकाय, त्रसकाय, सूक्ष्म - बादर, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय । पंचेन्द्रियों में भी जलचर, थलचर, खेचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प आदि । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ७ नरक गति की तरह तिर्यंच गति भी पापमूलक मानी जाती है। इस गति के जीव अपने अशुभ कर्मों का फल भोगते हैं । यहाँ छेदन - भेदन, भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी आदि भयंकर दुःख हैं । इनकी उत्कृष्ट और जघन्य आयु भी अलग-अलग हैं। यहाँ से निकलकर जीव अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार चारों गतियों में जा सकते हैं । तिर्यंच गति के बन्ध का मूल कारण मायाचार है । (३) मनुष्य गति मनुष्य जिस लोक में रहते हैं वह मध्य लोक है और वह गति मनुष्य गति है । जैनधर्म में मनुष्यों का निवास ढाई द्वीपों में माना गया है - एक जम्बू द्वीप, दूसरा धातकीखण्ड द्वीप और आधा पुष्करवर द्वीप । संज्ञी और असंज्ञी - मनुष्य के ये दो भेद हैं। मनधारी मनुष्य संज्ञी तथा जिनमें द्रव्य मन का अभाव हो, असंज्ञी कहलाते हैं। संज्ञी मनुष्य गर्भज होते हैं जबकि असंज्ञी मनुष्य सम्मूर्च्छिम कहलाते हैं जो मनुष्य जाति के मल-मूत्र, श्लेष्म आदि चौदह स्थानों से उत्पन्न होते हैं । ये अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं इसलिए हम इनको देख नहीं सकते हैं। गुणों की दृष्टि से मनुष्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- एक आर्य और दूसरा म्लेच्छ । आर्य मनुष्य श्रेष्ठ गुण वाले, शील व सदाचार - सम्पन्न होते हैं तथा म्लेच्छ कोटि में वे मनुष्य परिगणित हैं जिनका आचरण निन्दित और गर्हित होता है । चारों गतियों में मनुष्य गति को श्रेष्ठ माना गया है। इसका कारण यह है कि केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो संयम और तपः साधना से अपनी - आत्मा का विकास करता हुआ मोक्ष पदवी प्राप्त कर सकता है। मनुष्यों की स्थिति चौदह गुणस्थानों तक हो सकती है जबकि नारक और देव चौथे गुणस्थान तक ही रह सकते हैं और तिर्यंच पाँचवें गुणस्थान तक । मनुष्य गति से निकला हुआ जीव चारों गतियों में जा सकता है। मनुष्य गति प्राप्त करने का मूल कारण है अल्पारम्भी, अल्पपरिग्रही, उत्तमभद्र, सरल स्वभावी, विनयी, दयालु स्वभावी होना तथा ईर्ष्यालु न होना । (४) देव गति ऊर्ध्व लोक में देवगति के जीव रहते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं। यथा(१) भवनपति देव, (२) व्यन्तर- वाणव्यन्तर देव, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ८ + पहला बोल: गतियाँ चार (३) ज्योतिष्क देव. (४) वैमानिक देव । इनके भी अनेक भेद-प्रभेद हैं । देवों की जघन्य आयु दस हजार वर्ष व उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम की है। देव मरकर न तो देव हो सकता है और न नारक किन्तु वह अपने शुभाशुभ कर्म - परिणामों के आधार पर मनुष्य या तिर्यंच गति में जा सकता है। इन देवों के 'कुल' २६ लाख करोड़ माने गये हैं । इन चारों प्रकार के देवों के निवास स्थान भी अलग-अलग हैं । भवनपतियों का निवास स्थान रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर-नीचे के एक-एक हजार योजन के भाग को छोड़कर शेष मध्य भाग है । व्यन्तर इस ऊपर के एक हजार योजन के भाग से ऊपर, नीचे के सौ-सौ योजन को छोड़कर बीच के ८०० योजन भाग में रहते हैं। ज्योतिष्क देव पृथ्वी से ऊपर ७९० योजन से लेकर ९०० योजन तक रहते हैं और वैमानिक देव ऊर्ध्व लोक में विमानों में उत्पन्न होते हैं। चारों देवों के कुल ६४ इन्द्र होते हैं जिनमें २० इन्द्र भवनवासी देवों के, ३२ इन्द्र वाणव्यन्तरों के, २ इन्द्र ज्योतिष्क देवों के तथा १० इन्द्र वैमानिक देवों के होते हैं। इन चार देवों में भवनपति और व्यन्तर देवों में कृष्ण, नील, कापोत व पीत अथवा तेजोलेश्याएँ ही सम्भव हैं जबकि ज्योतिष्क देवों में पीत या तेजोलेश्या पायी जाती हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर देवों की लेश्याएँ क्रमशः अधिक विशुद्ध होती जाती हैं और परिणाम भी शुभ होते जाते हैं। वैमानिक देवों के विमानों की यह विशेषता है कि वे अतिशय पुण्य के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं । उनमें निवास करने वाले देव भी विशेष पुण्यवान होते हैं। देवगति के बन्ध के चार मूल कारण हैं (१) सराग संयम, (२) संयमासंयम - श्रावकत्व, (३) बाल तप, (४) अकाम निर्जरा | ( आधार : चार गति का वर्णन - प्रज्ञापना पद २३, चार गति के कारणों का वर्णन - स्थानांग, स्थान ४ ) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल *९ * प्रश्नावली १. गति किसे कहते हैं और यह कितने प्रकार की होती है? २. कौन-सी गति श्रेष्ठ है और क्यों? ३. जीव एक गति से दूसरी गति में जाने के समय कैसे जाता है? ४. चारों गतियों के बन्ध के मुख्य कारणों को बताइये। ५. नारक जीवों में कौन-कौन-सी लेश्याएँ होती हैं? ६. नरक और देवगति के जीव निकलकर कौन-कौन-सी गतियों में जा सकते ७. कौन-से जीव तिर्यंच कहलाते हैं? Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा बोल : जाति पाँच (इन्द्रियों के आधार पर जीवों का वर्गीकरण) (१) एकेन्द्रिय जाति, (२) द्वीन्द्रिय जाति, (३) त्रीन्द्रिय जाति, (४) चतुरिन्द्रिय जाति, (५) पंचेन्द्रिय जाति। 'जाति' शब्द का अर्थ है-समानता, सदृशता। यानी समान गुणों या लक्षणों वाला समूह या समुदाय जाति कहलाता है। संसार में अनेक पदार्थ हैं उनमें से बहुत से पदार्थ समान लक्षण या समान गुण वाले हैं, ऐसे समान लक्षणों या गुणों वाले पदार्थों को एक समुदाय में रख दिया जाता है। यह समुदाय ही उन समान लक्षणों वाले पदार्थों की जाति कहलाता है। उदाहरण के लिए कुर्सी को ही लीजिए। कुर्सी चाहे लकड़ी की बनी हो या प्लास्टिक, रबड़ या लोह धातु की ही क्यों न हो, संसार की समस्त कुर्सियाँ कुर्सी जाति के अन्तर्गत ही समाविष्ट होंगी। ऐसे ही दूसरे पदार्थों के विषय में समझा जा सकता है। मानव जाति को ही लीजिए। मनुष्य चाहे गोरा हो, काला हो, भारतीय हो, यूरोपियन हो, अमेरिकन हो, संसार के किसी भी प्रान्त का हो, कहीं भी रहता हो, अन्ततः वह मानव ही है और उसकी जाति मानव जाति है। इसी प्रकार हम पशुओं में अश्व, कुक्कुट, मार्जार, गाय आदि किसी भी पशु के विषय में विचार कर सकते हैं। सारे अश्व अश्व जाति में, कुक्कुट कुक्कुट जाति में, मार्जार मार्जार जाति में, गाय गाय जाति में आदि-आदि समाविष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार संसार में अनन्त जातियाँ हैं। जातियों के आधार पर ही हम संसार के किसी भी पदार्थ का सहजता व सरलता से ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार 'जाति' संसार के अनेक पदार्थों में समानता इंगित करती है। ___ संसार में अनन्त जीव हैं किन्तु ये अनन्त जीव समान नहीं हैं। यद्यपि समस्त जीवों में चैतन्य गुण आदि समान हैं किन्तु ये गुण किसी में पूर्ण विकसित हैं और किसी में अल्प विकसित हैं जिसके कारण समस्त जीवों में भिन्नताएँ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ११ परिलक्षित हैं। चैतन्यादि गुणों को प्रकाशित करने का, उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम है इन्द्रियाँ | समस्त जीवों में इन्द्रियों का विकास एक-सा नहीं है। किसी में कम है और किसी में अधिक है। जैनदर्शन के अनुसार जीवों में इन्द्रियों के विकास का यह क्रम नामकर्म के एक भेद 'जाति' नामकर्म के उदय के कारण है। एकेन्द्रिय जाति नामकर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय कहलाता है । द्वीन्द्रिय जाति नामकर्म के उदय से जीव द्वीन्द्रिय कहलाता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीव, चतुरिन्द्रिय जीव और पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। इस प्रकार समस्त जीव पाँच जातियों में रखे जा सकते हैं। यथा (१) एकेन्द्रिय जाति (One-sensed Soul - वन सेन्स्ड सोल), (२) द्वीन्द्रिय जाति (Two-sensed class of Jivas - टू सेन्स्ड क्लास ऑफ जीव), (३) त्रीन्द्रिय जाति ( Three-sensed class of Jivas – थ्री सेन्स्ड क्लास ऑफ जीव), (४) चतुरिन्द्रिय जाति (Four-sensed class of Jivas - फोर सेन्स्ड क्लास ऑफ जीव), .71 (५) पंचेन्द्रिय जाति (Five-sensed class of Jivas - फाइव सेन्स्ड क्लास ऑफ जीव) । संसार के ऐसे जीवों का समूह जिनमें केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय पाई जाती है या जिनमें केवल एक ही इन्द्रिय का विकास हो पाया हो, एकेन्द्रिय जाति कहलाती है । इसी प्रकार ऐसे जीवों का समूह जिनमें केवल दो इन्द्रियाँ हों, तीन इन्द्रियाँ हों, चार इन्द्रियाँ हों, पाँच इन्द्रियाँ हों या इन इन्द्रियों का विकास हो वे क्रमशः द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति व पंचेन्द्रिय जाति कहलाती हैं। संसार के सारे जीव इन्हीं पाँच जातियों में समाविष्ट हैं । एकेन्द्रिय जाति के जीवों में केवल स्पर्शनेन्द्रिय का ही विकास होता है, शेष इन्द्रियों का अभाव रहता है । इस प्रकार के जीव केवल स्पर्शनेन्द्रिय के माध्यम से ही अपने जीवन की समस्त क्रियाएँ संचालित करते हैं। जैनदर्शन में एकेन्द्रिय जीव के पाँच भेद निरूपित हैं । यथा - (१) पृथ्वी (Earth) काय जीव, (२) जल ( Water ) काय जीव, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १२ * दूसरा बोल : जाति पाँच (३) अग्नि (Fire) काय जीव, (४) वायु (Air) काय जीव, (५) वनस्पति (Vegetarian) काय जीव । स्थूल व सूक्ष्म शरीर के आधार पर एकन्द्रिय जाति के जीवों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-एक सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव तथा दूसरे बादर एकेन्द्रिय जीव । सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर चर्म चक्षुओं से नहीं दीखता है वे सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव तथा बादर नामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर चर्म चक्षु से देख सकते हैं वे बादर एकेन्द्रिय जीव कहलाते हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ ये सूक्ष्म जीव न हों जबकि बादर एकेन्द्रिय जीव लोक के नियत क्षेत्र में ही होते हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि पर्वत की कठोर चट्टानों को भी पार कर हैं। इनका कोई भी घात-प्रतिघात नहीं कर सकता है । ये किसी के मारने से नहीं मरते हैं। साधारण वनस्पति के सूक्ष्म जीवों को सूक्ष्म निगोद भी कहते हैं । साधारण वनस्पतिकाय का शरीर निगोद कहलाता है, यानी एक शरीर का आश्रय करके अनन्त जीव जिसमें रहें अर्थात् एक ही शरीर को आश्रित कर जिन जीवों के आहार, आयु, श्वासोच्छ्वास आदि समान हों, उन्हें निगोद कहते हैं। जैसे - कन्द-मूल, आलू, गाजर, अदरक, रतालू, लहसुन व प्याज आदि । सम्पूर्ण जगत् में असंख्य गोलक हैं और एक-एक गोलक में असंख्यात निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं इसलिए इन्हें अनन्तकाय भी कहा जाता है । इनकी आयु अन्तर्मुहूर्त्त मानी गई है। द्वीन्द्रिय जाति के जीवों में एकेन्द्रिय जाति के जीवों की अपेक्षा एक और अधिक इन्द्रिय का विकास हो जाता है अर्थात् इस जाति के जीवों में केवल दो ही इन्द्रियाँ होती हैं। एक स्पर्शनेन्द्रिय और दूसरी रसनेन्द्रिय । शेष सभी इन्द्रियों का अभाव होता है। इस प्रकार के जीव शरीर और जीभ के माध्यम से अपनी जैविक क्रियाएँ पूरी किया करते हैं । द्वीन्द्रिय जीव हैं-लट, सीप, शंख, कृमि, घुन आदि । T त्रीन्द्रिय जाति के जीवों में इन्द्रियों का विकास पहली दो जातियों के जीवों की अपेक्षा कुछ अधिक होता है । त्रीन्द्रिय जाति के जीवों में घ्राणेन्द्रिय और अधिक विकसित हो जाती है। इस प्रकार इन जीवों में तीन इन्द्रियाँ पायी जाती Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १३ * - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - हैं-एक स्पर्शनेन्द्रिय, दूसरी रसनेन्द्रिय और तीसरी घ्राणेन्द्रिय। त्रीन्द्रिय जाति के जीव हैं-चींटी, मकोड़ा, नँ, लीख, चीचड़ आदि। चतुरिन्द्रिय जाति के जीवों में पिछली तीन जातियों के जीवों की अपेक्षा एक और इन्द्रिय अधिक विकसित हो जाती है। इस जाति के जीवों में चार इन्द्रियाँ होती हैं इसलिए ये चतुरिन्द्रिय जाति के जीव कहलाते हैं। ये चार इन्द्रियाँ इस प्रकार हैं-स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय व चक्षुरिन्द्रिय। ये चतुरिन्द्रिय जीव हैं-मक्खी, मच्छर, टिड्डी, कसारी, बिच्छू आदि। जिन जीवों में पाँच इन्द्रियाँ होती हैं, उन जीवों की जाति है पंचेन्द्रिय। पंचेन्द्रिय जाति के जीवों में श्रोत्र (कर्ण) इन्द्रिय विकसित हो जाती है। इस जाति के जीवों में पाँच इन्द्रियाँ इस प्रकार हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र (कर्ण) इन्द्रिय। पंचेन्द्रिय जाति के जीव हैं-मच्छ, मगर, गाय, सर्प, पक्षी आदि मनुष्य, नारक व देव। पंचेन्द्रिय जाति के जीवों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है (१) तिर्यंच पंचेन्द्रिय जाति के जीव, (२) मनुष्य पंचेन्द्रिय जाति के जीव, (३) देव पंचेन्द्रिय जाति के जीव, (४) नारक पंचेन्द्रिय जाति के जीव। इन चारों में देव, नारक, गर्भज मनुष्य और गर्भज तिर्यंच में तो मन होता - है किन्तु सम्मूर्छिम मनुष्य और तिर्यंच में मन का सर्वथा अभाव होता है। संसार के समस्त पशु-पक्षी तिर्यंच जाति के जीवों में समाहित हैं। ये तीन प्रकार के हैं। यथा (१) जल में रहने वाले जीव-जलचर, (२) थल में रहने वाले जीव-थलचर, (३) आकाश में उड़ने वाले जीव-खेचर-नभचर।। मछली, कछुआ, मगर आदि जलचर जीव हैं। चार पैर वाले और रेंगकर चलने वाले पशु स्थलचर जीव होते हैं। स्थलचर जीवों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-एक चतुष्पाद, यानी चार पैर वाले पशु और दूसरे परिसर्प, यानी रेंगकर चलने वाले पशु। चतुष्पाद जीव मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १४ + दूसरा बोल : जाति पाँच - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - (१) एक खुर वाले, (२) द्विखुर वाले, (३) गंडीपद (गोल पैर वाले), (४) सनखपद (नख सहित पैर वाले) या श्वान पद या पंजे वाले पद। पहले प्रकार के पशु हैं-घोड़ा, गधा, खच्चर आदि। दूसरे प्रकार के पशु हैंहिरन, रीछ, बैल, बकरी, गाय, भैंस आदि। तीसरे प्रकार के पशु हैं-हाथी, ऊँट, गैंडा आदि। चौथे प्रकार के पशु हैं-सिंह, बाघ, चीता, कुत्ता, बिल्ली आदि। परिसर्प या रेंगकर चलने वाले पशओं को भी दो भागों में बाँटा जा सकता है-एक भुजपरिसर्प और दूसरे उरपरिसर्प। भुजाओं की सहायता से रेंगने वाले पशु भुजपरिसर्प कहलाते हैं, जैसे-नेवला, चूहा, छिपकली, गिलहरी आदि। जो पशु (कीट) छाती या हृदय (उर) की मदद से जमीन पर रेंगते हैं वे उरपरिसर्प पशु या कीट कहलाते हैं, जैसे-सर्प आदि। इनके भी चार भेद हैं (१) अहि, (२) अजगर, (३) असालिया, (४) महुरग। आकाश में उड़ने वाले जीव खेचर या खग या पक्षी कहलाते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं (१) चर्म पक्षी, (२) रोम पक्षी, . (३) समुद्र पक्षी, (४) वितत पक्षी। पहले प्रकार के पक्षियों के पर चमड़े के होते हैं, जैसे-चील, चमगादड़, बगुला आदि। दूसरे प्रकार के पक्षी रोम (बाल) के पंखों वाले होते हैं, जैसेमोर, कौआ, मैना, कोयल, तोता, बाज, हंस, चकवा आदि। तीसरे प्रकार के पक्षियों के पंख अविकसित रहते हैं अर्थात् डिब्बेनुमा इनके पंख सदा ढके रहते हैं। चौथे प्रकार के पक्षियों के पंख सदा खुले और फैले हुए होते हैं। पहले-दूसरे प्रकार के पक्षी मनुष्य क्षेत्र की सीमा के अन्दर रहते हैं जबकि तीसरे और चौथे प्रकार के पक्षी मनुष्य क्षेत्र-सीमा से बाहर ही रहते हैं अर्थात् ये पक्षी अढाई द्वीप के बाहर ही मिलते हैं। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : १५ पंचेन्द्रिय जाति के दूसरे प्रकार के जीव हैं मनुष्य । मनुष्यं भी दो प्रकार के होते हैं - एक सम्मूर्च्छिम मनुष्य और दूसरे गर्भज मनुष्य । सम्मूर्च्छिम मनुष्य मनरहित, असंज्ञी प्राणी होते हैं । ये मनुष्य के मल, मूत्र, श्लेष्म, खखार, वमनउल्टी, पित्त, रस्सी - पीप, रुधिर- रक्त, वीर्य रज, मृतक शरीर, स्त्री-पुरुष के संयोग व नगर की गटर आदि चौदह अशुचि स्थानों में जन्म लेते रहते हैं । इनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अन्तर्मुहूर्त्त मानी गई है। एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय वाले सभी जीव सम्मूर्च्छिम होते हैं । इसके अतिरिक्त कुछ पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य भी सम्मूर्च्छिम होते हैं। गर्भ और उपपात जन्म वालों के अतिरिक्त शेष जीव सम्मूर्च्छिम हैं। इस दृष्टि से देव और नारक कभी भी सम्मूर्च्छिम जीव नहीं होते क्योंकि इन दोनों का जन्म उपपात से होता है। उपपात जन्म में माता-पिता का कोई संयोग नहीं होता है। जीव स्वयं ही उत्पत्ति स्थान के वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण करके अपना शरीर निर्मित कर लेता है। उपपात जन्म का एक निश्चित उत्पत्ति स्थान होता है । जैसे स्वर्ग में उपपात पुष्प शय्या तथा नरक में कुम्भी आदि । वैक्रिय शरीर और निश्चित उत्पत्ति स्थान ही उपपात जन्म की विशेषता है। गर्भज मनुष्य गर्भ में पैदा होते हैं। इनके मन होता है। ये संज्ञी कहलाते हैं । गर्भज मनुष्यों के भी दो भेद हैं- एक कर्मभूमिक और दूसरे अकर्मभूमिक। कर्मभूमि के जीव कर्मभूमिक कहलाते हैं । असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, व्यवसाय, शिल्प-कला आदि के द्वारा ये लोग श्रम - कर्मपूर्वक अपना जीवन निर्वाह करते हैं । दूसरे प्रकार के मनुष्य अकर्मभूमि में रहते हैं । यहाँ असि, मसि, कृषि आदि कर्मों का अभाव होता है । यहाँ के जीवन - निर्वाह का मुख्य आधार है प्राकृतिक साधन, प्राकृतिक उपज, यानी कल्पवृक्ष आदि । पंचेन्द्रिय जीवों में तीसरे और चौथे प्रकार के जीव हैं - देव और नारक । नारक के विषय में यह कहा जाता है कि ये अत्यन्त क्रूर स्वभाव वाले, अत्यन्त विकराल और भयानक आकृति से युक्त होते हैं । परस्पर लड़ते-झगड़ते रहते हैं। ये पृथ्वी के नीचे अधो लोक / पाताल लोक में निवास करते हैं जबकि देव नारकों के विपरीत स्वभाव वाले होते हैं। ये अत्यन्त सौम्य स्वभाव वाले, सुन्दर व मनोहारी होते हैं। ये अपना जीवन विनोद विलास में ही व्यतीत करते हैं । इनका शरीर विशेष प्रकार का तथा वैक्रियक होता है अर्थात् अपनी इच्छानुसार अपने शरीर को छोटा, बड़ा, हल्का, भारी, एक या अनेक रूपों वाला बना Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १६ + दूसरा बोल : जाति पाँच सकते हैं। देव ऊर्ध्व लोक में रहते हैं। इनका आवास स्वर्ग कहलाता है। सभी प्रकार के देव और नारक समनस्क या संज्ञी होते हैं। देव और नारक का वर्णन पहले बोल में विस्तारपूर्वक हो चुका है। ___ पंचेन्द्रिय जाति के जीव इन्द्रियों की दृष्टि से सर्वाधिक विकसित माने गये हैं। इन पाँचों जातियों के जीवों में इन्द्रिय-वृद्धि का जो क्रम है, नियम है, वह एक-एक इन्द्रिय का है और वह भी निश्चित इन्द्रिय का है। ऐसा नहीं है एकेन्द्रिय जाति के जीवों में स्पर्शनेन्द्रिय की अपेक्षा रसना या अन्य कोई इन्द्रिय हो। इन जीवों में स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है, अन्य इन्द्रियाँ नहीं। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों के विषय में नियम है। चतुरिन्द्रिय जाति के जीवों में श्रोत्रेन्द्रिय नहीं होती। श्रोत्रेन्द्रिय समेत अन्य चार इन्द्रियाँ तो पंचेन्द्रिय जीवों में ही विकसित हो पाती हैं। जिन जीवों में सम्पूर्ण इन्द्रियाँ नहीं होतीं वे विकलेन्द्रिय जाति के जीव कहलाते हैं। दो इन्द्रियों से लेकर चार इन्द्रियों वाले जीव विकलेन्द्रिय जीव होते हैं। (आधार : पाँच प्रकार के संसारी जीवों का वर्णन स्थानांग, स्थान ५) ... प्रश्नावली १. जाति के अर्थ-अभिप्राय को स्पष्ट कीजिए। २. जातियाँ कितने प्रकार की होती हैं? संक्षेप में इनका वर्णन कीजिए। ३. जीवों में इन्द्रियों के वृद्धि-क्रम को बताइये। ४. तिर्यंच जाति के जीवों का वर्णन कीजिए। . ५. द्वीन्द्रिय व त्रीन्द्रिय जाति के जीवों में कितनी और किन इन्द्रियों का अभाव होता ६. सम्मूर्छिम जीवों के बारे में प्रकाश डालिए। ७. गर्भज जीवों में कितनी इन्द्रियाँ होती हैं? ८. निगोद से क्या तात्पर्य है? कौन-से जीव निगोद काय के जीव कहलाते हैं? Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा बोल : काय छह (स्थावर और त्रस जीवों का स्वरूप - विवरण) (१) पृथ्वीकाय, (२) अप्काय, (३) तैजस्काय, (४) वायुकाय, (५) वनस्पतिकाय, (६) त्रसकाय । जैनधर्म अहिंसा - प्रधान धर्म है। किसी भी प्राणी की मन, वचन व काय से हिंसा न हो जाये, उन्हें कोई घात, कष्ट, पीड़ा न पहुँचे, इस हेतु प्रमादरहित तथा भेदविज्ञान, यानी विवेकपूर्वक जाग्रत जीवन जीने के लिए प्रत्येक को प्रेरित करता है । इस दृष्टि से जैनधर्म में जीवों पर विशेष और विस्तार के साथ चर्चा हुई है जिससे संसार के समस्त जीवों के बारे में परिचय प्राप्त हो सके । संसार अनन्त जीवों से भरा पड़ा है। कौन जीव हैं और कौन अजीव हैं ? जीवों में भी किस प्रकार के जीव हैं ? क्योंकि सामान्यतः लोगों को यह भी पता नहीं है कि अमुक जीवों के स्वरूप क्या हैं ? जीवों में भेदों का ज्ञान हो जाने पर ही हिंसा से बचा जा सकता है। अपेक्षा - विशेष को ध्यान में रखकर जीवों का वैज्ञानिक ढंग से वर्गीकरण जैनागमों में मिलता है । प्रस्तुत बोल में 'काय' (Body – बॉडी), यानी 'शरीर' के आधार पर जीवों का विवेचन हुआ है। विभिन्न पुद्गलों से विनिर्मित 'औदारिक शरीर' (Gross body — ग्रौस बॉडी) 'काय' कहलाता है। जैसे जिन जीवों का औदारिक शरीर पृथ्वी - हीरा, पन्ना, कोयला, मिट्टी, पत्थर, सोना, चाँदी, खनिज आदि हो, वे पृथ्वीकायिक जीव हैं; इसी प्रकार जिनका औदारिक शरीर जल या पानी, बर्फ, ओला, ओस आदि हो, वे अप्कायिक जीव; जिनका औदारिक शरीर आग या अग्नि, विद्युत्, उल्का, दीपक की लौ आदि हो, वे तैजस्कायिक जीव; जिनका औदारिक शरीर हवा या वायु, तूफान, आँधी हो, वे वायुकायिक जीव; जिनका औदारिक शरीर वनस्पति, जैसे - वृक्ष, लता, फल, फूल आदि हो, वे वनस्पतिकायिक जीव तथा जिन जीवों की काया त्रस हो, जैसे-लट, चींटी, Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १८ * तीसरा बोल : काय छह बर्र, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि हो, वे त्रसकायिक जीव कहलाते हैं। इस सम्बन्ध में एक बात ध्यान देने योग्य है कि पृथ्वी, जल आदि जिनकी काया हो वे ही जीव पृथ्वीकाय, जलकायादि जीव हैं। उनके आश्रय में रहने वाले जीव पृथ्वीकायिक आदि कदापि नहीं कहे जा सकते। वे तो स्पष्ट ही त्रसकायिक जीव हैं। उदाहरण के लिए, आधुनिक विज्ञान के अनुसार शुद्ध जल की एक बूंद में ३६,४५० चलते-फिरते जीव शक्तिशाली माइक्रोस्कोप यन्त्र से देखे गये हैं। ये सभी जीव त्रसकायिक हैं। जल तो सिर्फ उनका आश्रय-स्थल है इसलिए वे जलकायिक जीव नहीं हैं। इसी आधार पर जैनधर्म में कच्चे पानी को सचित्त अर्थात् जीव सहित बताकर अचित्त जल के ही प्रयोग का विधान है। इसी तरह अन्य जीवों के सन्दर्भ में समझा जा सकता है। . _ 'काया' की दृष्टि से समस्त संसारी जीव छह भागों में विभक्त हैं जिन्हें जैनागम में ‘षड्जीव निकाय' कहा गया है। निकाय का अर्थ है-समूह। ये इस प्रकार हैं (१) पृथ्वीकाय जीव, (२) अप्काय जीव, (३) तैजस्काय जीव, (४) वायुकाय जीव, (५) वनस्पतिकाय जीव, (६) त्रसकाय जीव। गतिशीलता और स्थिरता के आधार पर इन षड्जीव निकायों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-एक स्थावर जीव और दूसरे त्रस जीव। सामान्यतः एक ही स्थान पर स्थिर रहने वाले जीव स्थावर जीव और चलने-फिरने वाले जीव त्रस जीव कहलाते हैं। स्थावर जीवों में केवल एक ही बाह्य इन्द्रिय अर्थात् स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है जबकि त्रसकाय जीवों में द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव समाहित हैं। स्थावर जीव चूँकि जीव हैं, इसलिए उनमें सुखदुःख, इच्छा, राग-द्वेषादि भाव, समायोजन व्यवस्था, संवेदनशीलता, संचार व्यवस्था, उद्दीपन, चयापचय, वृद्धि, विकास और प्रजनन आदि तो होते हैं १. स्निग्ध पदार्थ विज्ञान, इलाहाबाद गवर्नमेंट प्रेस, कैप्टन स्कोर्स द्वारा सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से लिए गये चित्रानुसार। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : १९ परन्तु वे स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देते हैं, जबकि त्रसकाय के जीव में सुखदुःख विरोध आदि की अभिव्यक्ति अपेक्षाकृत स्पष्ट रूप से होती है। किसी के मन में यह प्रश्न उद्भूत हो सकता है कि एक स्थान पर स्थिर रहने वाले जीव स्थावर तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने वाले जीव त्रस हैं तो पेड़-पौधों में भी ऐसी गति देखी जा सकती है। पौधों की जड़ें गति करती हैं, पत्थर आदि आने पर मुड़ भी जाती हैं, जिधर नमी हो उधर विस्तार पा लेती हैं। एक दृष्टि से देखा जाये तो पौधे सभी दिशाओं में गति करते हैं। जड़ के रूप में वे नीचे की ओर बढ़ते हैं। तने के रूप में ऊपर की ओर शाखाओं- टहनियों आदि के रूप में आठों तिर्यक् दिशाओं में बढ़ते हैं। अपना आकार-प्रकार फैलाते हैं। जहाँ तक इनमें सुख-दुःख की अभिव्यक्ति का प्रश्न है, वहाँ लाजवन्ती और छुईमुई के पौधे इसके साक्षात् उदाहरण हैं। सूरजमुखी सूर्य की गति के अनुसार दिशा बदलता रहता है । प्रातः पूर्व दिशा में और सायं पश्चिम दिशा में अपना मुख कर लेता है। ऐसे ही अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं तो फिर ये सकाय जीव क्यों माने गये हैं? वायु, अग्नि, जलादि जीवों के सन्दर्भ में भी सोचा जा सकता है कि इनमें भी एक प्रकार से गतिशीलता है। तो फिर ये स्थावर जीव कैसे हुए? इस सन्दर्भ में जैनधर्म में यह स्पष्ट उल्लेख है कि लब्धि के अनुसार अर्थात् स्थावर नामकर्म के उदय से पृथ्वी, जलादि समस्त एकेन्द्रिय जीव स्थावर कहलाते हैं और त्रस नामकर्म के उदय से द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव सकाय जीव हैं । जैनदर्शन में यह भी उल्लेख है कि परस्पर विरोधी स्वभाव वाली या समान स्वभाव वाली जातियाँ एक-दूसरे के लिए घातक होती हैं, इससे उनका नाश होता है। वे उनके लिए एक प्रकार से स्वकाय या परकाय शस्त्र हैं। उदाहरण के लिए, विरोधी स्वभाव वाले दो भिन्न मिट्टियों के जीव एक-दूसरे के घातक हैं । तैजस्काय जीव अप्काय जीवों के लिए शस्त्र है, उसी प्रकार अप्काय जीव तैजस्काय जीवों के लिए शस्त्र है। इस प्रकार के शस्त्र परकाय शस्त्र कहलाते हैं किन्तु सचित्त वायु से सचित्त वायु का नाश होना, सचित्त मिट्टी से सचित्त मिट्टी का नाश होना आदि -आदि स्वकाय शस्त्र हैं । (१) पृथ्वीकाय जैनदर्शन ही एक मात्र ऐसा दर्शन है जो पृथ्वी, मिट्टी, पत्थर आदि को सजीव मानता है। इनमें जीवन है इस बात की पुष्टि इस बात से होती है कि Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * २० * तीसरा बोल : काय छह पृथ्वी आदि में भी जन्म, वर्द्धन व मरण होता है। जिस प्रकार अन्य जीव उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं, मरते हैं उसी प्रकार पृथ्वी भी उत्पन्न होती है, बढ़ती और मरती है। आधुनिक भू-वैज्ञानिकों ने अनेक अनुसंधान कर यह सिद्ध किया है कि पृथ्वी भी अन्य प्राणियों की भाँति सजीव है। इन वैज्ञानिकों में श्री एच. टी. वर्सटापेन, श्री सुगाते, श्री वेल्मेन, श्री डोकूशेव तथा डॉ. वाक्समन प्रमुख हैं। इनके अनुसार अन्य सजीव प्राणियों की भाँति मिट्टी, पत्थर, खनिजों आदि में भी स्वयं संचालित होने वाली प्रक्रिया विद्यमान है अन्यथा इनमें वृद्धि दिखना असम्भव था। पृथ्वी के स्वभाव का प्रभाव भी मानव पर पड़ता है। अनेक भू-भाग ऐसे होते हैं जिनमें परस्पर संघर्ष व स्पर्धाएँ देखी जा सकती हैं। इनमें भी क्रोध, अहंकार, युद्ध, क्रूरता, रूक्षता, शान्ति, स्नेह, दया, स्निग्धता आदि स्वभाव पाए जाते हैं। वैज्ञानिक जूलियस हक्सले पृथ्वी के स्वभाव को लेकर कहते हैं कि “जरा भूमि का चमत्कार देखिए। अफ्रीका के सिंहों. को आप केलीफोर्निया प्रान्त या साइबेरिया भेज दीजिए। वे अपनी हिंसक वृत्ति को भूल जायेंगे और गाय, बकरी की भाँति पालतू बन जायेंगे। हक्सले ने अपनी पुस्तक 'पृथ्वी का पुनर्निर्माण' (रीमेकिंग दी अर्थ) में लिखा है-पेन्सिल की नोंक से जितनी मिट्टी उठ सकती है, उसमें दो अरब से भी अधिक कीटाणु होते हैं।"२ पृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना के संदर्भ में जैनागम में यह अंकित है कि इन जीवों की अवगाहना जघन्य उत्कृष्ट अंगुलि के असंख्यातवें भाग है। अर्थात् सुई की नोंक के बराबर पृथ्वीकाय के भाग में असंख्य जीव होते हैं। इसकी पुष्टि नोबेल पुरस्कार विजेता न्यूजर्सी के डॉ. वाक्समन ने 'प्रिंसीपल ऑफ सॉयल माइक्रोबायोलोजी' में इस प्रकार से की है कि चम्मचभर मिट्टी में लाखों माइक्रोव असंख्य बैक्टीरिया जीव होते हैं। मिट्टी की सोंधी महक इन्हीं जीवों की देन है। (२) अपकाय ___ स्थावर जीवों का दूसरा भेद है-अप्काय या जलकाय जीव। ये भी सजीव होते हैं। जब तक विरोधी शस्त्र न लगे तब तक जल सजीव या सचित्त होता है। इन जीवों का शरीर अत्यन्त सूक्ष्म होता है। जल के अनेक प्रकार, अनेक योनियाँ व अनेक कुल हैं। जैसे-ओस, हिम, ओले, हरिततृण जल, शुद्ध जल, १. नवनीत, अक्टूबर १९५५ २. विज्ञान के आलोक में जीव-अजीव तत्त्व, पृ. १५ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * २१ * - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - मृदु, शीतल, खारा व मीठा आदि जल। आधुनिक विज्ञान भी शुद्ध जल, भारी जल, लवणीय जल व गंधकीय जल आदि जल के अनेक प्रकार मानता है। इसके अनुसार समस्त जल एक समान नहीं है। प्रत्येक की अपनी-अपनी विशेषताएँ होती हैं, गुण व मूल्य होता है। उदाहरण के लिए, एक विशेष प्रकार का जल होता है जो आणविक विद्युत् संयंत्रों के उपयोग में आता है। यह जल बहुमूल्य धातुओं के समान मूल्यवान होता है। इसी प्रकार किसी जल की प्रकृति रोग-निवारक है तो किसी की रोग उत्पादक या रोगवर्द्धक। जल में निहित विशेषताओं को वैज्ञानिक धरातल पर 'रासायनिक प्रक्रियाओं' के नाम से जाना जाता है। जल की रासायनिक प्रक्रियाएँ इतनी असामान्य हैं कि आज तक कोई भी वैज्ञानिक इनका सही उत्तर नहीं दे पाया।' पृथ्वीकाय जीवों की तरह अप्काय जीवों की प्रकृति का प्रभाव भी मनुष्यों पर पड़ा करता है। (३) तैजसकाय · जैनदर्शन अग्नि में भी जीव तत्त्व स्वीकारता है। भीषण अग्निकाण्ड एवं विस्फोट के समय यह स्थिति देखी जा सकती है। तैजस्काय जीवों की इस शक्ति के सामने मानव की समस्त शक्तियाँ प्रायः पराजित हैं। तैजस्काय जीवों के लिए भी ऑक्सीजन अनिवार्य है। ऑक्सीजन के अभाव में आग बुझ जाती है, यानी इन जीवों में भी श्वासोच्छ्वास की क्रिया होती है जिसमें ऑक्सीजन श्वास के रूप में ली जाती है और कार्बन डाइऑक्साइड उच्छ्वास के रूप में बाहर निकाली जाती है। यह इस बात का प्रमाण है कि आग या तैजस्काय जीवों में भी जीवन है, सजीवता है। यद्यपि वर्तमान में विज्ञान इनमें जीवत्व का होना नहीं स्वीकारता किन्तु कालान्तर में नित्य नयी खोजों के उपरान्त विज्ञान को भी इनमें जीवत्व मानना पड़ेगा। जब तक इन जीवों में विरोधी शस्त्र न लगे तब तक अग्नि सचित्त होती है। विरोधी शस्त्र के योग से वह अचित्त हो जाती है। इन जीवों के शरीर से प्रकाश (रोशनी) प्रभावित रहता है। ___ वन या समुद्र में आग लगने पर यह मीलों बढ़ती ही चली जाती है। इस दृष्टि से आप यह कह सकते हैं कि जिस प्रकार त्रसकाय जीव चलते हैं उसी प्रकार अग्नि भी चलती है। तैजस्काय जीवों के चलने की यह क्रिया दावानल या बड़वानल के रूप में देखी जा सकती है। जैनदर्शन में भी अग्निकाय और १. नवनीत, जुलाई १९५९ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * २२ * तीसरा बोल : काय छह वायकायु को गतिशील अर्थात् गतित्रस माना है। तेजस्काय जीवों के विषय में यह कहा जाता है कि ये जीव एक निश्चित गर्मी के तापमान में जीवित रहते हैं। उससे कम गर्मी होने पर मर जाते हैं, यानी सचित्त नहीं रहते। जैनदर्शन में इन जीवों के शरीर, अवगाहना, संहनन, संस्थान, संज्ञा व कषाय आदि का विस्तृत विवेचन मिलता है। ऐसे जीव सजीव, अनेक प्रकार की योनियों, कुल तथा अपनी अनेक विशेषताओं वाले हैं। (४) वायुकाय स्थावर जीवों का चौथा विभाग है-वायुकाय। इसमें अलग-अलग असंख्य जीव होते हैं। जब तक विरोधी शस्त्र न लगे तब तक ये जीव सचित्त रहते हैं। जैनागमों में इन जीवों के शरीर, अवगाहना, संस्थान, आयु आदि का सविस्तार वर्णन हुआ है। वैज्ञानिकों का मत है कि वायु में 'थेकसस' नामक जीव होते हैं जो अति सूक्ष्म हैं और सुई के अग्र भाग जितने स्थान में इनकी संख्या एक लाख से भी अधिक होती है। वायुकाय में चार प्रकार के शरीर होते हैं-एक औदारिक शरीर, दूसरा वैक्रियक शरीर, तीसरा तैजस् शरीर और चौथा कार्मण शरीर। वैक्रियक शरीर केवल स्थावर जीवों के वायुकाय जीवों में ही होता है। वैक्रियक शरीर की यह विशेषता है कि इसके आकार-प्रकार को छोटा या बड़ा किया जा सकता है। वायुकाय के शरीर की इस विशेषता को वैज्ञानिक क्षेत्र में भी स्पष्टतः देखा जा सकता है। विज्ञान के अनुसार गर्मी पाकर वायु फैल जाती है। उदाहरण के लिए, ट्यूब में बन्द भरी हवा ग्रीष्म ऋतु में फैलने से ट्यूब स्वतः फट जाता है। ट्यूब का फटना वायुकाय के जीवों के वैक्रियक शरीर के फैलाव को इंगित करता है। वैक्रियक शरीर का और अधिक जब विस्तार होता है तो यह चक्रवात या झंझावात का रूप ले लेता है। वायु का यह वैक्रियक स्वरूप बड़ा भयंकर व विध्वंसकारी होता है। जैसा कि सन् १९१९ में उड़ीसा में आये तूफान से लाखों लोग मारे गये। इन जीवों के स्वभाव का प्रभाव न केवल मानव जाति पर पड़ता है अपितु वनस्पतिकाय के जीवों पर भी पड़ता है। उदाहरण के लिए, पुरवाई जब चलती है तो वह प्राणियों के लिए बड़ी कष्टकारी व वेदनीय होती है। इससे वनस्पतियों में भी नुकसान होते देखा गया है। १. विज्ञान के आलोक में जीव-अजीव, पृ. ३२ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : २३ वायुकाय जीवों के पाँच भेद हैं (१) उत्कलिका वायु, (२) मण्डलिका वायु, (३) घन वायु, (४) गुंजा वायु, (५) शुद्ध वायु । पहली प्रकार की वायु ठहर-ठहरकर चलती है । दूसरी प्रकार की वायु चक्र खाती हुई चलती है । तीसरी प्रकार की वायु रत्नप्रभा आदि पृथ्वी के अथवा विमानों के नीचे है । यह जमी हुई बर्फ की भाँति गाढ़ी एवं आधारभूत है । चौथी प्रकार की वायु शब्द करती हुई गति करती है । पाँचवीं प्रकार की वायु उपरोक्त गुणों से रहित मन्द मन्द चलने वाली होती है। - (५) वनस्पतिकाय वनस्पतियाँ सजीव होती हैं । इनमें भी जीवन होता है। जैनदर्शन की यह बात तब स्वीकारी गई जब वैज्ञानिक डॉ. जगदीशचन्द्र वसु ने वनस्पति सम्बन्धी अनेक प्रयोग कर यह सिद्ध किया कि वनस्पतियों में भी प्राण तत्त्व है और वनस्पतियाँ भी अन्य प्राणियों की तरह अपनी समस्त जैविक क्रियाएँ मात्र स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा ही सम्पन्न करती हैं । डॉ. वसु के अनुसार जीवित प्राणियों में जो विशेष गुण पाये जाते हैं, वे समस्त गुण वनस्पतियों में भी पाये जाते हैं। ये विशेष गुण निर्जीव पदार्थों में नहीं पाये जाने से वनस्पतियाँ सजीव ठहरती हैं । ये गुण इस प्रकार हैं (१) सचेतनता (Irritability — इरिटेबिलिटी), (२) स्पंदनशीलता (Movement - मूवमेण्ट), (३) शारीरिक गठन (Organisation- ऑर्गेनाइजेशन), (४) भोजन (Food - फूड), (५) वर्धन (Growth — ग्रोथ ), (६) श्वसन (Respiration - रेसपाइरेशन), (७) प्रजनन (Reproduction - रिप्रोडक्शन), Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * २४ * तीसरा बोल : काय छह (८) अनुकूलन (Adaptation-एडप्टेशन), (९) विसर्जन (Excretion-एक्सक्रेशन), .. (१०) मरण (Death-डेथ)। वनस्पतियों में मन की बात को समझने की क्षमता होती है। पौधे सहानुभूति रखते हैं, दयार्द्र होते हैं। वे पहचानने की शक्ति भी रखते हैं। अधिकांश वनस्पतियाँ जड़ों, पत्ते, शाखाओं आदि से सजीव पृथ्वी, पानी, वायु व ऊष्मा का आहार लेती हैं। किन्तु कुछ वनस्पतियाँ, जैसे-परोपजीवी (Parasitesपेरासाइट्स) वनस्पतियाँ, ये वनस्पतियों का भी आहार ग्रहण करती हैं। कुछ माँसाहारी वनस्पतियाँ होती हैं, जैसे-कीटभक्षी, मानवभक्षी। ये द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों का आहार करती हैं। वनस्पतिकाय के जीवों में चारों प्रकार के कषाय व कृष्ण, नील, कापोत व तेजोलेश्याएँ प्रत्यक्ष रूप से देखी जा सकती हैं। इन जीवों की आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त व उत्कृष्ट दस हजार वर्ष है। ये जीव मानव जीवन के लिए विविध क्षेत्रों में बड़े उपयोगी सिद्ध हुए हैं। __वनस्पतिकाय के जीव अन्य स्थावर जीवों की अपेक्षा असंख्य नहीं, अनन्त होते हैं और वे पृथक्-पृथक् रूप से रहते हैं। जब तक उनको विरोधी शस्त्र न लगे तब तक वे सचित्त रहते हैं। वनस्पतिकाय के जीव दो प्रकार के हैं-एक साधारण वनस्पतिकाय जीव और दूसरे प्रत्येक वनस्पतिकाय जीव। पहले प्रकार के जीवों में एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं। सभी प्रकार के कन्द-मूल इसमें समाविष्ट हैं। दूसरे प्रकार के जीवों में एक-एक शरीर में एक-एक जीव होता है, जैसे-वृक्ष, लता, तृण आदि। इसमें शरीर का निर्माण करने वाला मूलतः एक ही जीव होता है किन्तु उसके आश्रित असंख्य जीव होते हैं जबकि द्वीन्द्रिय आदि जीवों में यह बात नहीं मिलती है। उनमें प्रत्येक जीव अपने शरीर का स्वतन्त्र निर्माण करता है। वनस्पतिकाय के जीवों की उत्पत्ति मुख्यतः आठ प्रकार से होती है। यथा(१) अग्र बीज, (२) मूल बीज, (३) पर्व बीज, (४) स्कन्ध बीज, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल + २५ * (५) बीज रूह, (६) सम्मूर्छिम, (७) तृण, (८) लता। पहले प्रकार की वनस्पति जिसका सिरा ही बीज हो, जैसे-कौरंट का पौधा आदि। दूसरे में मूल ही बीज हो, जैसे-कंद आदि। तीसरे में गाँठे ही बीज हों, जैसे-ईख आदि। चौथे के स्कन्ध ही बीज हों, जैसे-थूहर आदि। पाँचवें में जो बीज से ही उत्पन्न हों, जैसे-गेहूँ, जौ आदि। छठा जो स्वयमेव पैदा हो, जैसेअंकुर आदि। साँतवें तृणादि घास। आठवाँ चम्पा, चमेली, ककड़ी, खरबूज, तरबूज आदि की बेलें। (६) त्रसकाय .द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के समस्त जीव त्रसकाय जीव कहलाते हैं। इनमें क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, भय, रति-अरति, शोक, जुगुप्सा, सुरक्षा आदि प्रवृत्तियाँ मिलती हैं। इन जीवों की उत्पत्ति के आठ प्रकार हैं (१) अण्डज-अण्डों से पैदा होने वाले; जैसे-मुर्गा, कबूतर, मोर आदि। (२) पोतज-पोत अर्थात् शिशु के रूप में उत्पन्न होने वाले; जैसे-हाथी, मानव शिशु आदि। (३) जरायुज-जन्म के समय जिन पर झिल्ली लिपटी रहती है; जैसे-गाय आदि (ये तीनों गर्भज होते हैं)। (४) रसज-छाछ, दही आदि में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म जीव। (५) स्वेदन। (६) सम्मूर्छिम। (७) उद्भिज-पसीने से उत्पन्न होने वाले खटमल, नँ, टिड्डी, पतंगे, मधुमक्खी आदि। ये सभी सम्मूर्छिम और उद्भिज कहलाते हैं। (८) औपपातिक-अचानक उत्पन्न होने वाले; जैसे-कुंभी में उत्पन्न होने वाले नारक तथा पुष्प शय्या में उत्पन्न होने वाले देव। पहले में जीवों की अण्डों से उत्पत्ति होती है, जैसे-पक्षी, सर्प आदि। दूसरे, पोतज अपने जन्म के समय खुले अंगों सहित होते हैं, जैसे-हाथी। तीसरे, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * २६ * तीसरा बोल : काय छह जरायुज जो अपने जन्म के समय माँस की झिल्ली से लिपटे रहते हैं, जैसेमनुष्य, भैंस, गाय आदि। चौथे, रसज जो दही आदि रसों में उत्पन्न होते हैं, जैसे-कृमि आदि। पाँचवें, स्वेदज जिनकी उत्पत्ति पसीने से होती है, जैसे-जूं, लीख आदि। छठे, सम्मूर्छिम जो नर-मादा के संयोग के बिना ही उत्पन्न होते हैं, जैसे-मक्खी, चींटी आदि। सातवें, उद्भिज जो पृथ्वी को फोड़कर निकलते हैं, जैसे-टिड्डी, पतंगे आदि। आठवें, औपपातिक जो गर्भ में रहे बिना स्थान-विशेष में पैदा होते हैं, जैसे-देव और नारक। त्रसकाय जीवों का विशेष वर्णन पहले व दूसरे बोल में किया जा चुका है। _ (आधार : स्थानांग, स्थान ६) प्रश्नावली १. काय से क्या तात्पर्य है? इसके कितने भेद हैं? २. कौन-से जीव स्थावर हैं? ये त्रसकाय जीवों से किस प्रकार से भिन्न हैं? ३. शस्त्र किसे कहते हैं? स्थावर जीवों में इसकी क्या भूमिका है? ४. स्थावर जीवों का स्वभाव क्या मानव जीवों पर पड़ता है? स्पष्ट कीजिए। . ५. पृथ्वीकाय जीवों की विशेषताएँ बताइये। ६. अप्काय और वायुकाय जीवों के भेद बताइये। .. ७. डॉ. जगदीशचन्द्र वसु ने वे कौन-से कारण बताये हैं जिनसे वनस्पतियाँ सजीव ठहरती हैं? . ८. कितने प्रकारों से वनस्पतिकाय और त्रसकाय जीवों की उत्पत्ति होती है? संक्षेप में वर्णन कीजिये। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा बोल : इन्द्रिय पाँच (इन्द्रियाँ और उनके ग्राह्य विषय) (१) श्रोत्रेन्द्रिय, (२) चक्षुरिन्द्रिय, (३) घ्राणेन्द्रिय, (४) रसनेन्द्रिय, (५) स्पर्शनेन्द्रिय। 'इन्द्रिय' शब्द के मूल में ‘इन्द्र' है। ‘इन्द्र' ऐश्वर्य आदि का प्रतीक है। जीव ही एक मात्र ऐसा है जो तीनों लोकों के ऐश्वर्य से सम्पन्न है। इसलिए जैनदर्शन में इन्द्र शब्द जीव या आत्मा के लिए प्रयुक्त हुआ है। संसारी जीव की पहचान कैसे हो? संसारी जीव की पहचान कराने वाला एक मात्र साधन या माध्यम है इन्द्रिय। इस प्रकार जिसके द्वारा संसारी जीव की पहचान हो वह इन्द्रिय (Sense organ-सेन्स ऑर्गन) है। संसार का कोई भी जीव ऐसा नहीं है जो संसार-दशा में हो और इन्द्रियों से रहित हो। यह तो सम्भव है कि किसी में कम और किसी में अधिक इन्द्रियाँ हों। संसारी जीव में कम से कम एक और अधिक से अधिक पाँच इन्द्रियाँ ही होती हैं। पाँच से अधिक इन्द्रियाँ किसी भी जीव में नहीं होती हैं। सांख्य आदि दर्शनकारों ने तथा पाश्चात्य विद्वानों ने दस इन्द्रियों का जो उल्लेख किया है वह पाँच ज्ञानेन्द्रिय (Sense organs-सेन्स ऑर्गन्स) तथा पाँच कर्मेन्द्रिय (Activity organs-एक्टिविटी ऑर्गन्स) की अपेक्षा से किया है किन्तु जब हम गहराई के साथ विचार करते हैं तो इन पाँचों कर्मेन्द्रियों का स्पर्शनेन्द्रिय में ही समावेश हो जाता है। जैसे वाक् (बोली) एक कर्मेन्द्रिय है। वाक् को स्पर्शनेन्द्रिय में सम्मिलित किया जा सकता है क्योंकि वाक् नली (Vocal cord-वोकल कॉर्ड), कण्ठ, तालू आदि बोलने में जो सहायक इन्द्रिय है वह है स्पर्शन। इसी प्रकार पाणि (हाथ), पाद (पैर), पायु (गुदा) और उपस्थि (जननेन्द्रिय) के प्रयोग में स्पर्शनेन्द्रिय का ही सहयोग रहता है, बिना स्पर्शनेन्द्रिय के सहयोग के इन पाँचों कर्मेन्द्रियों का प्रयोग असम्भव है। अस्तु ये Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * २८ * चौथा बोल : इन्द्रिय पाँच पाँचों कर्मेन्द्रियाँ स्पर्शनेन्द्रिय के अन्तर्गत हैं। इस प्रकार संसारी जीवों में पाँच इन्द्रियाँ ही प्रमुख हैं। यथा(१) श्रोत्रेन्द्रिय [Sense of hearing (Ears) सेन्स ऑफ हीयरिंग (ईअर्स)], (२) चक्षुरिन्द्रिय [Sense of sight (Eyes)-सेन्स ऑफ साइट (आईज)], (३) घ्राणेन्द्रिय [Sense of smell (Nose) सेन्स ऑफ स्मैल (नोज)], (४) रसनेन्द्रिय [Sense of test (Tongue) सेन्स ऑफ टेस्ट __(टंग)], (५) स्पर्शनेन्द्रिय (Sense of touch-सेन्स ऑफ टच)। . पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों को ही ग्रहण करती हैं। कोई भी इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय के विषय को ग्रहण नहीं करती। जैसे-आँख सुन नहीं सकती, कान देख नहीं सकता आदि-आदि। जैनागम में इन पाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय बताए गये हैं। जैसे स्पर्शनेन्द्रिय का विषय है स्पर्श, उसी प्रकार रसनेन्द्रिय का स्वाद, घ्राणेन्द्रिय का गन्ध, चक्षुरिन्द्रिय का रूप तथा श्रोत्रेन्द्रिय का शब्द होता है। इन पाँचों विषयों के भी तेईस प्रभेद निरूपित हैं। ये भेद इस प्रकार हैं १. शब्द के तीन भेद- (१) जीव, (२) अजीव, (३) मिश्र। २. रूप के पाँच भेद- (१) श्वेत, (२) पीत, (३) नीला, (४) लाल, (५) काला। ३. गन्ध के दो भेद- (१) सुगन्ध, (२) दुर्गन्ध। ४. स्वाद के पाँच भेद- (१) तीखा, (२) कड़वा, (३) कषैला, (४) खट्टा, (५) मीठा। ५. स्पर्श के आठ भेद-(१) शीत, (२) उष्ण, (३) रूक्ष, (४) चिकना, . (५) कठोर, (६) कोमल, (७) हल्का, (८) भारी। ये पाँचों इन्द्रियाँ स्वयं कुछ नहीं करती हैं अपितु ये आत्म-प्रदेशों की सहायता से अलग-अलग कार्य सम्पन्न करती हैं। इन्द्रियाँ संसारी जीवों की Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * २९ * परिचायक ही नहीं हैं अपितु संसारी जीवों के संवेदनों का साधन भी हैं। इसी आधार पर इन्द्रियों के दो भेद हैं-(१) द्रव्येन्द्रिय, (२) भावेन्द्रिय। स्पर्शनादि इन्द्रियों की बाहरी और आन्तरिक पौद्गलिक रचना द्रव्येन्द्रिय तथा आत्मा की जानने की योग्यता और प्रवृत्ति भावेन्द्रिय कहलाती है। वास्तव में पुद्गलमय जड़ इन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय है और आत्मिक परिणाम रूप भावेन्द्रिय है। इनके भी दो प्रभेद हैं। द्रव्येन्द्रिय के ये प्रभेद हैं (१) निवृत्ति द्रव्येन्द्रिय-इन्द्रियों की आकार रचना, (२) उपकरण द्रव्येन्द्रिय-विषय ग्रहण की पौद्गलिक शक्ति। निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय के माध्यम से जीव बाह्य जगत् का ज्ञान करता है जबकि उपकरण इस बाह्य ज्ञान में सहायक होता है तथा निर्वृत्ति रूप रचना को नुकसान नहीं पहुँचाने देता। निर्वृत्ति और उपकरण बाह्य और आन्तरिक इन दो भेदों में निरूपित हैं। भावेन्द्रिय भी दो प्रकार की कही गई हैं-एक लब्धि भावेन्द्रिय और दूसरी उपयोग भावेन्द्रिय। - लब्धि का अर्थ है क्षमता, शक्ति की प्राप्ति। ज्ञानावरण आदि कर्म के क्षयोपशम से जीव की जो शक्ति जाग्रत या अनावृत्त होती है वह लब्धि है और इस लब्धि, यानी प्राप्त शक्ति क्षमता द्वारा जानने की जो क्रिया होती है, वह उपयोग है। इस प्रकार आत्मिक परिणाम लब्धि है और लब्धि, निर्वृत्ति और उपकरण इन तीनों के संयोगिक माध्यम से स्पर्शनादि विषयों का सामान्य और विशेष ज्ञान का होना उपयोग है। यानी चेतना की योग्यता लब्धि और चेतना . का व्यापार उपयोग है। जैसे कोई दूरदर्शन खरीदे यह तो उसकी प्राप्ति हुई और इसके द्वारा विभिन्न दर्शित चित्रों का अवलोकन करना उसका उपयोग है। उपयोग भावेन्द्रिय केवल स्पर्शनादि पर्यायों को ही जान सकती है। इनके भी बाह्य और आन्तरिक की अपेक्षा से दो-दो भेद हैं। उपयोग तो ज्ञान-विशेष है जो इन्द्रिय का फल है, उसको इन्द्रिय कैसे कहा जा सकता है ? इसका समाधान यह है कि यह बात सत्य है कि लब्धि, निर्वत्ति और उपकरण इन तीनों का समवाय रूप जो कार्य है, वह उपयोग है किन्तु उपचार से अर्थात् कार्य में कारण का आरोप करके उपयोग को भी इन्द्रिय कहा जा सकता है। इस प्रकार स्पर्शनादि प्रत्येक इन्द्रिय के ये जो चार भेद-लब्धि, निर्वृत्ति, उपकरण और उपयोग बताए गये हैं उनका एक आधार है वह यह कि निर्वृत्ति Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ३० : चौथा बोल : इन्द्रिय पाँच और उपकरण इन्द्रिय तो ज्ञान के साधन हैं और लब्धि ज्ञान की शक्ति है और इस शक्ति का कार्यरूप में परिणमन उपयोग है । अतः ये चारों मिलकर ही अपने-अपने विषय का ज्ञान कर सकती हैं, एक, दो या तीन नहीं । सार रूप में यह कहा जा सकता है कि पूर्व इन्द्रिय की प्राप्ति पर ही उत्तर इन्द्रिय प्राप्त हो सकती है। ऐसा नियम नहीं है कि उत्तर इन्द्रिय की प्राप्ति पहले हो जाये उसके उपरान्त पूर्व इन्द्रिय की प्राप्ति हो । मनः नोइन्द्रिय स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों के अतिरिक्त एक और इन्द्रिय का भी उल्लेख जैनागम में मिलता है वह है मन । स्पर्शन आदि इन्द्रियों की भाँति मन भी ज्ञान का साधन है और यह साधन स्पर्शनादि इन्द्रियों की तरह बाह्य न होकर आन्तरिक है । इसी कारण मन को अन्तःकरण भी कहते हैं । मन का विषय बाह्य इन्द्रियों की तरह सीमित नहीं है । बाह्य इन्द्रियाँ केवल मूर्त्त पदार्थों को अंश रूप ग्रहण करती हैं जबकि मन मूर्त्त-अमूर्त सभी पदार्थों को अनेक रूपों में ग्रहण करता है, जैसे-चक्षुरिन्द्रिय। उसका विषय देखना है तो वह केवल देखेगी, अन्य कार्य नहीं करेगी और उसमें भी अवरोध आ सकता है । इसी तरह अन्य इन्द्रियों के अपने-अपने विषय हैं किन्तु मन के लिए ऐसी कोई सीमा - मर्यादा नहीं है, न कोई अवरोध है । अतः मन सर्वार्थग्राही है । वह रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि सभी विषयों के साथ-साथ अमूर्त पदार्थों में भी प्रवृत्ति रखता है । मन के लिए क्षेत्र का भी कोई बन्धन नहीं है। वह क्षणभर में समग्र लोक का परिभ्रमण कर लेता है। मन की गति निर्बाध है, असीमित है, अपरिमित है। मन का काम है विचार करना, चिन्तन करना । मन उन विषयों का भी चिन्तन करता है जो इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं किये गये हैं। यानी मन समस्त विषयों में विकास-योग्यता के अनुसार विचार कर सकता है। वह विचार करने में स्वतन्त्र है। मन का विषय है श्रुत अर्थात् श्रुत ज्ञान । उदाहरण के लिए, 'धर्म' शब्द श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा सुनाई पड़ा। अब धर्म के जितने भी अर्थ - रूप हैं उन सबका चिन्तन-मनन मन के द्वारा होता है । अतः इस अपेक्षा से श्रुत को मन का विषय माना जा सकता है। मन की यह विशेषता है कि पाँचों इन्द्रियों से तो केवल मति ज्ञान हो सकता है लेकिन मन से मति और श्रुत दोनों हो सकते हैं। इनमें भी मति की अपेक्षा श्रुत ही प्रधान है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ३१ * मन को नोइन्द्रिय या अनिन्द्रिय अर्थात् इन्द्रिय नहीं परन्तु कार्य में इन्द्रिय-जैसा कहा गया है। इसका कारण यह है कि यद्यपि मन भी ज्ञान का साधन होने से इन्द्रिय ही है परन्तु रूपादि विषयों में प्रवृत्त होने के लिए उसको नेत्र आदि इन्द्रियों का अवलम्बन लेना ही पड़ता है। इसी पराधीनता के कारण उसे अनिन्द्रिय आदि कहते हैं। .. शरीर में मन कहाँ रहता है ? यह जिज्ञासा किसी की भी हो सकती है। स्पर्शनादि पाँचों इन्द्रियों के अवगाहन का तो शरीर में एक विशेष स्थान होता है किन्तु मन का कोई विशेष स्थान नहीं है। वह तो सर्वत्र विद्यमान है। उसकी यह विद्यमानता मन की गति का शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों में वर्तमान इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गये सभी विषयों में होने से है जो उसे शरीरव्यापी बनाती है। इसलिए तो कहा जाता है कि “यत्र पवनस्तत्र मनः।" अर्थात् शरीर में जहाँ-जहाँ पर पवन है वहाँ-वहाँ पर मन है। जैसे पवन सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है वैसे मन भी सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। - संसार के अन्य जीवों की अपेक्षा मनुष्य में मन सर्वाधिक विकसित होता है। इसका एक कारण यह है कि मनुष्य का नाड़ी तन्त्र (Nervous system-नर्वस सिस्टम) अन्य जीवों की अपेक्षा अधिक विकसित है। अमुक जीव में मन है कि नहीं? इसकी पहचान के लिए जैनागम में स्पष्ट कहा गया है कि जिन जीवों में संज्ञा होती है, उन जीवों में मन होता है। संज्ञा का तात्पर्य है. गुण-दोष आदि की विचारणारूपी विशिष्ट प्रवृत्ति। • मनोविज्ञान मन को तीन भागों में विभक्त करता है। यथा (१) चेतन मन (Conscious-कॉन्सस), (२) चेतनोन्मुख मन (Sub-conscious-सबकॉन्सस), (३) अचेतन (Unconscious-अन्कॉन्सस)। मन के जिस भाग से मन की समस्त क्रियाएँ, जैसे-चलना, फिरना, बोलना आदि संचालित होती हैं ,वह चेतन मन कहलाता है। चेतनोन्मुख मन में अप्रकाशित किन्तु चेतना के स्तर पर आने के लिए तत्पर इच्छाएँ, भावनाएँ, स्मृतियाँ व वेदनाएँ रहती हैं। अचेतन मन में भावनाएँ व विचारों आदि की न तो हमें जानकारी ही रहती है और न सहज रूप से चेतना के स्तर पर ये बाहर ही आती हैं। प्रयत्न-विशेष से ही ये चेतना के स्तर पर आती हैं। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ३२ + चौथा बोल : इन्द्रिय पाँच - - - - - - - - - - - - - - - - मन के दो भेद हैं-एक भाव मन और दूसरा द्रव्य मन। पौद्गलिक मन द्रव्य मन तथा चैतन्य मन भाव मन कहलाता है। द्रव्य मन मनोवर्गणा के पुद्गलों से विनिर्मित है जबकि भाव मन आत्मा की चिन्तन-मनन रूप शक्ति है। यदि किसी जीव में भाव मन विद्यमान है किन्तु उसमें द्रव्य मन का अभाव है तो इस अभाव के कारण उसका उपयोग नहीं हो सकता अर्थात् चिन्तन आदि मनोव्यापार नहीं हो सकते। जैसे भाव मन को यदि विद्युत् मान लिया जाये और द्रव्य मन को विद्युत् बल्ब आदि मान लें तो विद्युत् का संचार होने पर भी विद्युत् बल्ब आदि के अभाव में प्रकाश असम्भव है। (आधार : प्रज्ञापना पद १५) प्रश्नावली १. इन्द्रिय किसे कहते हैं? इनकी संख्याओं का उल्लेख कीजिए। २. स्पर्शनादि पाँचों इन्द्रियों के विषयों पर प्रकाश डालिए। ३. इन्द्रियों के कितने भेद हैं? इन भेदों के स्वरूप आदि का संक्षेप में वर्णन कीजिए। ४. लब्धि और उपयोग में क्या अन्तर है? ५. मन और स्पर्शनादि इन्द्रियों में मौलिक अन्तर बताइये। . ६. मन कौन-सी इन्द्रिय है? स्पष्ट कीजिये। ७. मन के स्वरूप का विवेचन कीजिए। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ बोल : पर्याप्ति छह (छह पौद्गलिक शक्तियाँ और उनके कार्य) (१) आहार पर्याप्ति, (२) शरीर पर्याप्ति, (३) इन्द्रिय पर्याप्ति, (४) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, (५) भाषा पर्याप्ति, (६) मनः पर्याप्ति। ‘पर्याप्ति' जैनदर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है आत्मा की विशिष्ट शक्ति की परिपूर्णता। (Certain capacity of bodily manifestation-सर्टेन केपेसिटी ऑफ बॉडिली मैनीफेस्टेशन)। इस विशिष्ट शक्ति के द्वारा जीव आहार-शरीरादि के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें आहारादि के रूप में बदलता है। यह पर्याप्ति शक्ति पुद्गलों के उपचय से मिलती है। जब कोई जीव पुराना शरीर छोड़कर नया शरीर धारण करता है तो उसके जीवन यापन के लिए कुछ आवश्यक पौद्गलिक सामग्री की आवश्यकता होती है। इस पौद्गलिक सामग्री का निर्माण जीव जिस विशिष्ट शक्ति के द्वारा सम्पन्न करता है वह शक्ति विशेष पर्याप्ति कहलाती है। आत्मा की यह विशिष्ट शक्ति ‘पर्याप्ति नामकर्म' के उदय से प्रस्फुटित होती है। इसे अंग्रेजी में इस प्रकार से अभिव्यक्त कर सकते हैं-Akind of naam karma which is responsible for manifestation of certain bodily capacity. - (ए काइण्ड ऑफ नामकर्म व्हिच इज रेसपोन्सिबल फॉर मैनीफेस्टेशन ऑफ सर्टेन बॉडिली केपेसिटी।) जैनागम में पर्याप्ति के छह भेद निरूपित हैं। यथा(१) आहार पर्याप्ति, (२) शरीर पर्याप्ति, (३) इन्द्रिय पर्याप्ति, (४) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ३४ : पाँचवाँ बोल : पर्याप्ति छह (५) भाषा पर्याप्ति, (६) मनः पर्याप्ति । जिस शक्ति से जीव आहार के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उनको खल और रस रूप में परिणत करता है और असार रूप में छोड़ देता है वह शक्ति आहार पर्याप्ति कहलाती है । इसी प्रकार जिस शक्ति से जीव रस रूप में परिणत आहार को रक्त, माँस, मज्जा और वीर्य आदि सात धातुओं में बदलता है वह शरीर पर्याप्ति; जिस शक्ति से जीव सप्त धातुओं को स्पर्शन, रसन आदि इन्द्रियों में बदलता है वह इन्द्रिय पर्याप्ति; जिस शक्ति से जीव श्वास और उच्छ्वास योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता और छोड़ता है वह श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति; जिस शक्ति से जीव भाषा योग्य भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा रूप में परिणत करके छोड़ता है वह भाषा पर्याप्ति तथा जिस शक्ति के द्वारा जीव मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर मन रूप में बदलता और छोड़ता है वह मनः पर्याप्ति कहलाती है। पर्याप्तियों का प्रारम्भ एक साथ होता है किन्तु इसकी पूर्णता क्रमरूप से होती है। पहले आहार पर्याप्ति पूर्ण होती है फिर शरीर पर्याप्ति, इसी तरह क्रमबद्धता के साथ अन्त में मनः पर्याप्ति की पूर्णता का विधान जैनागम में दृष्टव्य है। इस बात को मकान निर्माण के दृष्टान्त से समझा जा सकता है कि जिस प्रकार मकान बनवाने वाला पहले ईंट, पत्थर, चूना, गारा, सीमेण्ट, लकड़ी आदि सामग्रियों को एकत्रित करता है तब वह यह तय करता है कि कौन-सा पदार्थ किस योग्य है, अमुक लकड़ी स्तम्भ बनाने के योग्य है, अमुक लकड़ी दरवाजा बनाने के योग्य है, अमुक पत्थर इस दीवार के योग्य है आदि-आदि। फिर वह मकान के प्रवेश और निकास पर ध्यान रखता है। मकान और उसके कमरों के प्रवेश के लिए कौन-से और कहाँ दरवाजे उपयुक्त रहेंगे। फिर जब मकान तैयार हो जाता है तब अमुक कमरा शयन कक्ष है, अमुक रसोईघर है, अमुक स्नानगृह है, अमुक स्टोर है आदि-आदि तय किए जाते हैं और अन्त में यह विचारणा होती है कि अमुक कमरा शीतकाल में गरम रहता है, ग्रीष्म में ठण्डा रहता है, वर्षा में हवायुक्त है आदि-आदि। उसी तरह इस मकान के निर्माण की भाँति पर्याप्ति के सन्दर्भ में हम सोच सकते हैं। जीव अपने आहार - शरीरादि का क्रमशः निर्माण किस प्रकार की शक्ति के द्वारा सम्पन्न करता है । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ३५ आहार पर्याप्ति के पूर्ण होने में एक समय लगता है जबकि शरीरादि पाँच पर्याप्तियों में से प्रत्येक को अन्तर्मुहूर्त्त लगता है । इस प्रकार आहार पर्याप्ति के पूर्ण होने में कम समय लगता है और शेष पर्याप्तियों के पूर्ण होने में अधिक समय लगता है। यह छह पर्याप्तियाँ अन्तर्मुहूर्त्त में पूर्ण हो जाती हैं। इन छह पर्याप्तियों द्वारा गृहीत पुद्गल समान नहीं है। सबकी अलग-अलग वर्गणाएँ हैं । इस बात की पुष्टि आधुनिक विज्ञान ने भी की है। भाषा की ध्वनि तरंगें अलग होती हैं और शरीर निर्माण के पुद्गल अलग प्रकार के होते हैं। सभी संसारी जीवों में सभी पर्याप्तियाँ नहीं होती हैं। कम से कम चार और अधिक से अधिक छह पर्याप्तियाँ संसारी जीवों में होती हैं। एकेन्द्रिय जीवों में छह में से प्रारम्भ की केवल चार पर्याप्तियाँ ही होती हैं । यथा - आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास । जो एकेन्द्रिय जीव इन चार पर्याप्तियों को अर्थात् स्वयोग्य पर्याप्ति को पूर्ण कर लेता है वह पर्याप्त कहलाता है और जो पूर्ण नहीं करता है वह अपर्याप्त है । द्वीन्द्रियों से लेकर पंचेन्द्रिय असंज्ञी जीवों में मनः पर्याप्ति को छोड़कर शेष पाँचों पर्याप्तियाँ होती हैं। यथा-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और भाषा । केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही ऐसे जीव हैं जिनमें सभी छह पर्याप्तियाँ होती हैं । इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि पहली चार पर्याप्तियाँ- आह्यर, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास संसार के सभी जीवों में होती हैं। चारों पर्याप्तियाँ पूर्ण करके ही जीव अगले भव का आयुबन्ध बाँधता है किन्तु जब कोई जीव अपर्याप्त दशा में मरता है तब वह कम से कम प्रथम की तीन पर्याप्तियाँ और चौथी में से आधी पर्याप्ति तो अवश्य ही पूर्ण करता है। इस प्रकार पर्याप्ति जीवों का एक विलक्षण लक्षण है जो केवल जीवों में ही पाया जाता है। पर्याप्तियों के द्वारा जीवों में विभिन्न पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन होता रहता है। आहार पर्याप्ति के द्वारा जीव आहार के योग्य पुद्गलों को लेते हैं, उन्हें आहार में परिणत करते हैं और मल-मूत्र आदि असार पुद्गलों को त्याग देते हैं। शरीर पर्याप्ति के द्वारा शरीर के योग्य पुद्गलों को लेते हैं। उन्हें शरीर के रूप में परिणत करते हैं और असार पुद्गलों को छोड़ देते हैं। इसी प्रकार इन्द्रिय पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति व मनः पर्याप्ति के द्वारा क्रमशः इन्द्रिय योग्य, श्वासोच्छ्वास के योग्य, भाषा के योग्य व मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हुए क्रमशः इन्हें इन्द्रिय के रूप में, श्वासोच्छ्वास के रूप में, भाषा के रूप में व मानस- विचारों के रूप में Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ३६ ÷ पाँचवाँ बोल : पर्याप्ति छह परिणत करते हैं और असार पुद्गलों को त्याग देते हैं। इस प्रकार पर्याप्तियाँ जीवों के लिए अत्यन्त उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण मानी गई हैं। ( आधार : भगवतीसूत्र, शतक ३, उद्देशक १ ) प्रश्नावली १. पर्याप्ति के अर्थ - अभिप्राय को स्पष्ट कीजिये । २. पर्याप्ति के भेदों का उल्लेख कीजिए । ३. किन जीवों के कितनी पर्याप्तियाँ होती हैं ? ४. संसारी जीवों में कम से कम और अधिक से अधिक कितनी पर्याप्तियाँ होती हैं? ५. पर्याप्ति के आधार पर जीवों के कितने भेद हो सकते हैं? ६. पर्याप्तियों से जीवों को क्या लाभ होता है? Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा बोल : प्राण दस (दस जीवन-शक्तियाँ और उनके कार्य) (१) श्रोत्र बल प्राण, (२) चक्षुस् बल प्राण, (३) घ्राण बल प्राण, (४) रसन बल प्राण, (५) स्पर्शन बल प्राण, (६) मन बल प्राण, (७) वचन बल प्राण, (८) काय बल प्राण (९) श्वासोच्छ्वास बल प्राण, (१०) आयुष्य बल प्राण। जीवन धारण करने वाली शक्ति का नाम है प्राण (Life force लाइफ फोर्स)। प्राण जीव का बाह्य लक्षण है जिसके द्वारा हम पहचान सकते हैं कि अमुक जीव जीवित है या मर गया है क्योंकि कोई भी जीव बिना प्राण के जीवित नहीं रह सकता। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जीव जिस शक्ति के संयोग से जीवित रहता है और वियोग से मर जाता है वह शक्ति प्राण कहलाती है। प्राण प्रतीक है जीवन का। जीवन की प्रतीति प्राण से ही सम्भव है। जैनागम में प्राण के मूलतः दो भेद परिलक्षित हैं-एक द्रव्य प्राण और दूसरा भाव प्राण। जो प्राण मुक्त अवस्था में भी आत्मा के साथ हैं, वे भाव प्राण हैं। भाव प्राण आत्मा के निज स्वरूप कहे गये हैं। यथा-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य-ये चारों भाव प्राण हैं। दूसरे प्रकार के प्राण हैं द्रव्य प्राण। ये जीव के संसार अवस्था या बद्ध दशा में ही रहते हैं। द्रव्य प्राण के दस भेद कहे गये हैं जिनमें पाँच प्राण इन्द्रियों की अपेक्षा से, तीन प्राण योग की अपेक्षा से तथा एक-एक प्राण श्वसन और आयु की अपेक्षा से विभक्त हैं। इन्द्रियों की अपेक्षा से कहे गये प्राण इन्द्रिय बल प्राण कहलाते हैं। ये इस प्रकार हैं Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ३८ : छठा बोल : प्राण दस (१) श्रोत्र बल प्राण, (२) चक्षुस् बल प्राण, (३) घ्राण बल प्राण, ➖➖➖➖➖➖---------- (४) रसन बल प्राण, (५) स्पर्शन बल प्राण | योग की अपेक्षा से विभाजित प्राण योग प्राण हैं । यथा (१) मन बल प्राण, (२) वचन बल प्राण, (३) काय बल प्राण | श्वसन प्रक्रिया की अपेक्षा से एक प्राण है जिसे श्वासोच्छ्वास बल प्राण कहा गया है और आयु की अपेक्षा से जो एक प्राण है वह आयुष्य बल प्राण है । इस प्रकार द्रव्य प्राण के दस भेद हो जाते हैं। इन प्राणों में प्रत्येक के साथ एक शब्द और जुड़ा हुआ है वह है बल । बल का अर्थ है शक्ति - विशेष । इस प्रकार जिस प्राण में जिस प्रकार की शक्ति-विशेष हो वह उसी शक्ति - विशेष का प्राण कहलाता है । उदाहरण के लिए, इन्द्रिय शक्ति- विशेष वाले प्राण इन्द्रिय बल प्राण कहलाते हैं। जिसमें सुनने की शक्ति - विशेष हो वह श्रोत्र बल प्राण, जिसमें देखने की शक्ति- विशेष हो वह चक्षुस् बल प्राण, जिसमें सूँघने की शक्ति - विशेष हो वह घ्राण बल प्राण, जिसमें चखने या स्वाद की शक्ति- विशेष हो वह रसन बल प्राण और जिसमें छूने या स्पर्शन की शक्ति - विशेष हो वह स्पर्शन बल प्राण है। ये सभी प्राण इन्द्रिय बल प्राण हैं । इसी प्रकार चिन्तन-मनन करने की शक्ति - विशेष जिसमें हो वह मन बल प्राण, जिसमें बोलने की शक्ति- विशेष हो वह वचन बल प्राण तथा जिसमें चलने-फिरने आदि की शारीरिक शक्ति हो वह काय बल प्राण है। ये तीनों प्राण योग रूप प्राण हैं । इसी प्रकार जिसमें श्वास और उच्छ्वास की शक्ति-विशेष हो वह श्वासोच्छ्वास बल प्राण है। इसी क्रम में अन्तिम प्राण है आयुष्य बल प्राण। अमुक भव में अमुक काल तक जीवित रहने की शक्ति-विशेष जिसमें हो वह आयुष्य बल प्राण है। दस प्राणों में आयुष्य बल प्राण सबसे प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण प्राण माना गया है। बिना इस प्राण के अन्य प्राणों का कोई अस्तित्व नहीं है । जीव जब मरता Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ३९ * है तो प्रायः यह कहा जाता है कि उसके प्राण निकल गए। प्राण के सन्दर्भ में यह जो बहुवचन लगा हुआ है उसका अभिप्राय भी यही है कि जीव के शरीर में जितने भी प्राण हैं उन सभी प्राणों के साथ आयुष्य प्राण का निकलना होता है। प्राण और पर्याप्ति में अन्तर . प्रत्येक जीव के लिए प्राण और पर्याप्ति ये दोनों ही परम उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण हैं। संसारी जीवों की पूर्ण विकसित अवस्था में प्राणों की संख्या दस तथा पर्याप्तियों की संख्या छह बतायी गई है। प्राण जीव की शक्ति-विशेष है जबकि पर्याप्ति जीव द्वारा ग्रहण की हुई पुद्गलों की शक्ति-विशेष है। प्राण यदि कार्य है तो पर्याप्ति उस कार्य में सहकारी कारण है। इस प्रकार प्राण और पर्याप्ति में जो सम्बन्ध है वह कार्य-कारण का सम्बन्ध है। कोई भी संसारी जीव अपनी मन, वचन, कायपूर्वक समस्त प्रवृत्तियों का सम्पादन बाह्य पुद्गल द्रव्यों की सहायता के बिना सम्पन्न नहीं कर सकता। जैसे कोई यन्त्र है वह बिना ईंधन आदि.बाह्य सामग्री की सहायता मिले अपनी क्रिया संचालित नहीं कर सकता। उसी प्रकार जीव जब तक शरीर में रहता है तब तक खाने-पीने, चलने-फिरने, बोलने, श्वसन, उत्सर्जन आदि क्रियाएँ होती रहती हैं। इन क्रियाओं के सम्पादन आदि के लिए पौद्गलिक शक्तियों की सहायता मिलना आवश्यक है। बिना इसके कोई भी क्रिया सम्पन्न नहीं हो सकती। प्राण की पर्याप्ति को जब कारण मान लिया गया है तो यह जानना भी आवश्यक है कि किस-किस प्राण की कौन-कौन-सी पर्याप्ति कारण है ? उसके लिए कहा गया है कि पाँचों इन्द्रिय बल प्राण का कारण है-इन्द्रिय पर्याप्ति, मन बल प्राण का कारण है मनः पर्याप्ति, वचन बल प्राण का कारण है भाषा पर्याप्ति, काय बल प्राण का कारण है शरीर पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास बल प्राण का कारण है श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, आयुष्य बल प्राण का कारण है आहार पर्याप्ति। आहार पर्याप्ति इसलिए कारण बताया गया है कि आहार ही वह तत्त्व है जिस पर आयुष्य प्राण टिका हुआ है। इस प्रकार इन प्राण बल के कारणों का छह पर्याप्तियों में ही समावेश हो जाता है। प्राण और पर्याप्ति के सम्बन्ध को समझ लेने के उपरान्त यह जानना भी जरूरी है कि किस जीव में कितने प्राण हो सकते हैं ? संसारी जीवों में कम से कम चार प्राणों का और अधिक से अधिक दस प्राणों का होना बताया गया Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ४० छटा बोल : प्राण दस है । चार प्राण एकेन्द्रिय जीव में तथा दस प्राण संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव में होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में पाए जाने वाले चार प्राण इस प्रकार हैं- स्पर्शनेन्द्रिय बल प्राण, काय बल प्राण, श्वासोच्छ्वास बल प्राण और आयुष्य बल प्राण । द्वीन्द्रिय जीवों में छह प्राणों का उल्लेख है - चार उपर्युक्त प्राण और एक रसनेन्द्रिय बल प्राण तथा एक वचन बल प्राण । त्रीन्द्रिय जीवों में सात प्राण- छह पूर्वोक्त और एक घ्राणेन्द्रिय बल प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रिय जीवों में आठ प्राण-सात पूर्वोक्त और एक चक्षुरिन्द्रिय बल प्राण होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में नौ प्राण-आठ पूर्वोक्त और एक श्रोत्रेन्द्रिय बल प्राण हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में दस प्राण- नौ पूर्वोक्त और एक मन बल प्राण हैं । इस प्रकार जीवों में ज्यों-ज्यों इन्द्रियों का विकास होता जाता है त्यों-त्यों उनमें क्रमशः प्राणों का भी विकास होता जाता है। प्रत्येक संसारी जीव में स्पर्शन, काय, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य बल प्राण - चार प्रकार के प्राण तो अवश्य ही होते हैं। मृत्यु कब होती है ? प्राण या जीवन शक्ति को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए. हमें मृत्यु के विषय में भी मनन करना होगा । शरीर विज्ञान मानव शरीर में तीन अंगों को ही प्रमुख मानता है - हृदय (Heart), मस्तिष्क (Brain), फेफड़े (Lungs)। जब ये तीनों अपना कार्य करना बन्द कर देते हैं तो जीव की मृत्यु हो जाती है। पर कभी-कभी ऐसा होता है कि इन तीनों अंगों के कार्य करने की शक्ति समाप्त हो जाने पर भी मनुष्य जिन्दा रहता है। ऐसा क्यों ? इस सन्दर्भ में जैनदर्शन की मान्यता है कि जीवन-शक्ति के स्रोत ये तीन अंग ही नहीं हैं अपितु दस प्राण हैं। इन दस प्राणों में से किसी एक प्राण की शक्ति का काम बन्द हो जाने पर भी मृत्यु नहीं होती। जब तक आयुष्य बल प्राण क्रियाशील है तब तक किसी भी प्राण की शक्ति कम या बन्द हो जाये तो भी जीव जीवित रह सकता है। जीवन की समस्त क्रियाएँ, समस्त अंगों का संचालन तभी तक सम्भव है जब तक आयुष्य बल प्राण क्रियाशील है। इसके समाप्त होते ही जीवन की समस्त क्रियाएँ समाप्त हो जाती हैं और जीव मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस बात की और अधिक गहराई में जायें तो हम यह अनुभव करेंगे कि जो स्वस्थ प्राणी है जिसके सारे अंग क्रियाशील हैं वह अचानक मर जाता है और जो अस्वस्थ है, लम्बे समय से रुग्नादि है या दुर्घटनाग्रस्त हो गया है फिर भी वह जीवित है, ऐसा क्यों ? इसका क्या रहस्य है ? जैन दृष्टि से इसका समाधान यह Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ४१ * ------------------------ ---- ----------------- ------------ --- --- है कि आयु के पुद्गल जिस क्षण समाप्त हो जाते हैं, उस क्षण जीव स्वस्थ रहता हुआ भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। ठीक इसके विपरीत आयु के पुद्गल यदि अधिक हैं तो वह जीव रुग्ण और दुर्घटना के शिकार होते हुए भी जीवित बना रहता है। आयु के दो प्रकार । प्रायः यह कहा जाता है कि मनुष्य की जितनी आयु होती है उतना ही वह जीता है। आयुष्य को कोई भी घटा-बढ़ा नहीं सकता। फिर भी हम देखते हैं कि अग्नि या जल या ऊँचाई से छलाँग लगाने पर या जहर खाने पर मृत्यु अवश्यम्भावी है। ऐसा क्यों? इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आयु के दो प्रकार हैं-एक अपवर्तनीय आयु और दूसरी अनपवर्तनीय आयु। अपवर्तन का अर्थ है कम। जो आयु किसी निमित्त को पाकर कम हो सके वह अपवर्तनीय आयु और जो आयु किसी भी कारण से कम न हो सके वह अनपवर्तनीय आयु कहलाती है अर्थात् पहली प्रकार की आयु बंधकालीन स्थिति के पूरा होने से पूर्व भी भोगी जा सकती है और दूसरे प्रकार की आयु बंधकालीन स्थिति के पूरा होने से पूर्व नहीं भोगी जा सकती है। सामान्यतः पहली प्रकार की आयु, यानी अपवर्तनीय आयु को अकाल मृत्यु और दूसरे प्रकार की आयु, यानी अनपवर्तनीय आयु को काल मृत्यु या स्वाभाविक मृत्यु कहते हैं। अनपवर्तनीय आयु वाले जीवों की आयु स्थिति सदा नियत रहती है। उसमें कोई किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है अर्थात् इसके पहले वे किसी भी हालत में मर नहीं सकते। इन जीवों का आयु बन्धन इतना सुदृढ़ और सघन होता है कि बीच में वह टूट ही नहीं सकता। ऐसे जीव हैं-नारक, देव, असंख्यात वर्ष जीवी मनुष्य और तिर्यंच, चरमशरीरी और त्रिषष्टिशलाका पुरुष, जैसे-तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव। सामान्य पुरुष और तिर्यंच अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय दोनों प्रकार की आयु वाले होते हैं। निमित्त मिलने पर इनकी अकाल मृत्यु हो सकती है और निमित्त न मिलने पर अकाल मृत्यु नहीं भी हो सकती है। ___ अकाल मृत्य के अनेक निमित्त-कारण होते हैं। इन निमित्तों को उपक्रम भी कह सकते हैं। जैनागम में आयुभंग के सात कारण बताये गये हैं। यथा (१) अध्यवसाय, यानी तीव्र राग-द्वेष अथवा भय से, (२) निमित्त, यानी दण्ड, शस्त्र आदि द्वारा, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ४२ * छठा बोल : प्राण दस - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -- - - - - - - - - - - - - (३) आहार, यानी आहार की अतिरेकता या अभाव से या तृषा से, (४) वेदना, यानी शरीर के अंगों की तीव्र पीड़ा-वेदना से, (५) पराघात, यानी कुएँ, तालाब, नदी आदि में डूबना, ऊँचाई से गिरना, सीढ़ियों से फिसलना आदि से, (६) स्पर्श, यानी विषैले कीड़े (सर्प, बिच्छू आदि) के दंश से या विष, नींद की गोलियाँ, कीटनाशक गोलियाँ आदि के सेवन से, (७) श्वासोच्छ्वास रुकने से, यानी फाँसी लगा लेना, गला आदि दबा दिया जाना आदि से। आधुनिक युग में जिसे दया मृत्यु (Mercy killing-मर्सी किलिंग) कहा जाता है वह एक प्रकार से अकाल मृत्यु ही है। (आधार : स्थानांगसूत्र ७) प्रश्नावली १. प्राण से क्या तात्पर्य है? इसके कितने भेद हैं? ये भेद किस अपेक्षा से हैं? २. प्राण और पर्याप्ति में क्या अन्तर है? स्पष्ट कीजिए। ३. कौन-कौन-से प्राण की कौन-कौन-सी पर्याप्ति कारण हैं? बताइये। ४. पर्याप्ति छह हैं और प्राण दस हैं, ऐसा क्यों? ५. संसारी जीवों में कम से कम और अधिक से अधिक कितने प्राण होते हैं? प्रत्येक के नामों का उल्लेख कीजिए। ६. कौन-कौन-से जीवों में कौन-कौन-से प्राण होते हैं? संक्षेप में बताइये। ७. समस्त प्राणों में आयुष्य बल प्राण को अधिक महत्त्व क्यों दिया गया है? ८. आयु के कितने प्रकार हैं? अनपवर्तनीय आयु वाले जीवों के नाम बताइये। ९. अकाल मृत्यु को समझाइए। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाँ बोल :शरीर पाँच (पाँच प्रकार के शरीर और उनका स्वरूप) (१) औदारिक शरीर, (२) वैक्रियक शरीर, (३) आहारक शरीर, (४) तैजसू शरीर, (५) कार्मण शरीर। ____ संसारी जीव की जितनी भी क्रियाएँ या प्रवृत्तियाँ होती हैं उन समस्त प्रवृत्तियों या क्रियाओं का माध्यम या साधन शरीर है क्योंकि मूलतः जीव तो अरूपी है। चूँकि वह कर्मों से आबद्ध है अतः उसे जन्म और मरण तो धारण करना ही होता है और इसके लिए उसे स्थूल या सूक्ष्म शरीर का आश्रय लेना ही पड़ता है। अस्तु, संसार के समस्त जीव सशरीरी होते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संसारी आत्माओं का निवास स्थान शरीर है। इस शरीर का निर्माण शरीर नामकर्म (A body type naam karma-ए बॉडी टाइप नामकर्म) के उदय से होता है। एक बात ध्यातव्य है कि यद्यपि संसारी आत्मा शरीर में रहती है तदपि शरीर और आत्मा एक नहीं है अपितु पृथक्-पृथक् ही है। __ आत्मा चैतन्य है, शाश्वत है और शरीर पुद्गलों से बना हुआ है अर्थात् पौद्गलिक है। वह बनता-बिगड़ता है, जन्म और मरण को प्राप्त होता रहता है। संसारी जीव को पौद्गलिक सुख-दुःख का जितना भी अनुभव होता है वह सब शरीर के माध्यम से ही होता है, यानी संसारी जीव अपने पूर्वबद्ध कर्मों को शरीर के द्वारा ही जिसमें वह अपना निवास-स्थल बनाये हुए है, भोगता है और इस शरीर के द्वारा ही वह तप व ध्यानादि के द्वारा अपने संचित कर्मों की निर्जरा कर मुक्त भी होता है। इस दृष्टि से संसारी जीवों के लिए शरीर को परम उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण माना गया है। जैनागम में शरीर के पाँच भेद निरूपित हैं। यथा- . (१) औदारिक शरीर (Gross body-ग्रॉस बॉडी), (२) वैक्रियक शरीर (A kind of body-ए काइण्ड ऑफ बॉडी), Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ : सातवाँ बोल : शरीर पाँच (३) आहारक शरीर (Etheral body — ईथरल बॉडी), (४) तैजस् शरीर (A kind of body – ए काइण्ड ऑफ बॉडी), (५) कार्मण शरीर (Karmana body - कार्मण बॉडी) । उदार या स्थूल पुद्गलों से विनिर्मित शरीर औदारिक शरीर कहलाता है । चूँकि इसकी निष्पत्ति स्थूल पुद्गलों से होती है अतः यह चर्म चक्षुओं या स्थूल इन्द्रियों द्वारा देखा जा सकता है । स्थूल पुद्गलों से तात्पर्य है - हाड़, माँस, रक्त आदि का बना शरीर । औदारिक शरीर का स्वभाव है - गलना, सड़ना और विध्वंसना। औदारिक शरीर को जलाया जा सकता है, इसका छेदन - भेदन भी हो सकता है। इतना ही नहीं मोक्ष की उपलब्धि भी औदारिक शरीर के द्वारा ही सम्भव है जबकि ये विशेषताएँ वैक्रियक आदि शरीर में नहीं पायी जाती हैं। साधारण जीवों का शरीर स्थूल- असार पुद्गलों से बनता है जबकि तीर्थंकर आदि का शरीर प्रधान पुद्गलों वाला होता है । जो शरीर कभी छोटा-बड़ा, कभी पतला-मोटा, कभी हल्का- भारी, कभी एक - अनेक, कभी दिखाई देना तो कभी अदृश्य हो जाना आदि अनेक रूपों को धारण करने की शक्ति रखता है वह शरीर वैक्रियक कहलाता है। इसके माध्यम से जीवों में विशिष्ट और विविध क्रियाएँ होती रहती हैं। यह हाड़, माँस, रक्त आदि का बना नहीं होता है । मृत्यु के पश्चात् इस शरीर की अवस्थिति नहीं रहती है। आत्मा से अलग होते ही इस प्रकार का शरीर बिखर जाता है । वह कपूर की तरह उड़ जाता है जबकि औदारिक शरीर आत्मा से अलग हो जाने के बाद भी टिका रह सकता है । नारक और देवों में वैक्रियक शरीर होता है । मनुष्य और तिर्यंच में भी यह शरीर लब्धि से प्राप्त किया जा सकता है। आहारक शरीर आहारक - लब्धि से बना हुआ शरीर होता है। यह संयमी, तपस्वी, सम्यक् दृष्टिमुनि की एक विशेष प्रकार की लब्धि होती है । विशिष्ट योग शक्ति-सम्पन्न चौदह पूर्वों के धारक मुनि किसी विशिष्ट प्रयोजन से इस शरीर की संरचना करते हैं । इस शरीर का प्रमाण एक हाथ का होता है और आकार समचतुरस्र संस्थान है । यह श्वेत वर्ण का होता है और यह अत्यन्त विशुद्ध होता है । यह न किसी को व्याघात पहुँचाता है और न किसी भी पदार्थ से आहत होता है । यह शुभ पुद्गलों से निर्मित अत्यधिक मनोज्ञ होता है। इस प्रकार आहारक शरीर में कतिपय ऐसी विशेषताएँ होती हैं जो अन्य किसी शरीर में नहीं होती हैं । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल * ४५ * चौथे प्रकार का शरीर है तैजस् शरीर। इसे विद्युत् शरीर (Electric body-इलेक्ट्रिक बॉडी) भी कह सकते हैं। योग ग्रन्थों में यह प्राणमय शरीर के नाम से जाना जाता है। यह तैजस् पुद्गलों से बना हुआ है। तैजस् शरीर के कारण शरीर में तेज, ओज व ऊर्जा-उष्णता रहती है। यह शरीर आहार के पचन-पाचन अर्थात् परिपाक में निमित्त बनता है। शाप, वरदान आदि भी इसी का प्रयोग है। शरीर में तैजस् शक्ति के पाये जाने का कारण भी यही शरीर है। इस शरीर के अंगोपांग नहीं होते हैं। पूर्ववर्ती तीन शरीरों से यह अपेक्षाकृत सूक्ष्म शरीर होता है। पाँचवाँ शरीर है कार्मण शरीर। यह शरीर उपर्युक्त चारों प्रकार के शरीरों का कारण या निमित्त है। यानी सब शरीरों का बीज है। यह शरीर कार्मण वर्गणाओं से बना होता है अर्थात् इसका निर्माण ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्म-पुद्गलों से होता है। यह कर्मस्वरूप है और कर्म ही सब कार्यों का निमित्त कारण और सबसे सूक्ष्म है। तैजस् सबका कारण नहीं है। वह तो सबके साथ अनादि सम्बन्ध रखकर भुक्त आहार के पाचन आदि में सहायक होता है। कार्मण और तैजस् में यही मुख्य अन्तर है। इन पाँचों शरीरों में तैजस् और कार्मण शरीर प्रत्येक संसारी जीव के साथ रहते हैं। इन दोनों शरीरों के छूटते ही आत्मा संसार के आवागमन से सर्वथा मुक्त हो जाता है। इन दोनों शरीरों का संसारी जीवों के साथ अनादिकालीन सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध प्रवाह रूप में है, जैसे नदी का प्रवाह। नदी का जल प्रतिक्षण आगे बढ़ता जाता है और पिछला प्रतिक्षण आता रहता है किन्तु जल सदा बना रहता है। इस प्रकार इन शरीरों से संचित कर्म झरते रहते हैं और नवीन कर्म बँधते रहते हैं। ___औदारिक शरीर के बारे में कहा गया है कि यह शरीर जन्म-सिद्ध होता है जबकि वैक्रियक शरीर जन्म-सिद्ध और लब्धि-सिद्ध दोनों प्रकार का होता है और आहारक शरीर योग शक्ति से प्राप्त होता है। प्रथम तीन शरीरों औदारिक, वैक्रियक और आहारक-के अंग, उपांग और अंगोपांग होते हैं किन्तु तैजस् और कार्मण शरीर के कोई अंग-उपांग नहीं होते हैं क्योंकि ये दोनों शरीर अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं। पाँचों शरीरों में सबसे स्थूल शरीर औदारिक शरीर और सबसे सूक्ष्म शरीर कार्मण शरीर है। औदारिक से कार्मण शरीर तक के क्रम में शरीर की स्थूलता क्रमशः घटती जाती है या कम होती जाती है और इसके विपरीत Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *४६ * सातवाँ बोल : शरीर पाँच कार्मण शरीर से औदारिक शरीर के क्रम में शरीर की स्थूलता क्रमशः बढ़ती जाती है। यहाँ सूक्ष्मता का अभिप्राय इन्द्रियगोचर न होने से और पुद्गलों के सघन बंधन से है न कि परिमाण-विशेष से। वैज्ञानिक जगत् में सघन बंधन को घनत्व (Density-डेन्सिटी) कहते हैं। घनत्व अर्थात् सघन बन्धन से भार भी बढ़ता जाता है, जैसे-सुई, वस्त्र, काष्ठ, स्वर्ण और पारे को लें। इनमें उत्तरोत्तर एक-दूसरे में पुद्गल परमाणुओं का अर्थात् प्रदेशों का अधिक घना बन्धन है। इनमें एक-दूसरे से पुद्गल परमाणुओं की अधिकाधिक सघनता है। इसी कारण एक-दूसरे से क्रमशः भार भी अधिक होता जाता है। इसी प्रकार औदारिक शरीर की अपेक्षा वैक्रियक शरीर में असंख्यात गुणा प्रदेश हैं किन्तु वह सूक्ष्म है क्योंकि इसके प्रदेशों में सघनता औदारिक शरीर की अपेक्षा असंख्यात गुणी है। यही क्रम आहारक शरीर तक है। तैजस में अनन्त गुणा प्रदेश हैं और कार्मण शरीर में उससे भी अनन्त गुणा हैं। प्रदेशों की सघनता के कारण यह उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। इनमें इन्द्रियों से अगोचरता बढ़ती जाती है। इस बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए हम भिण्डी की फली और हाथी के दाँत का उदाहरण लेते हैं। ये दोनों बराबर परिमाण वाले लेकर देखे जाएँ तो भिण्डी की रचना शिथिल होगी और हाथी के दाँत की रचना उससे निबिड़ ठोस, किन्तु दोनों का परिमाण बराबर होते हुए भी भिण्डी की अपेक्षा हाथी के दाँत का पौद्गलिक द्रव्य अधिक है। __ तैजस् और कार्मण शरीर अत्यन्त सूक्ष्म होने से इनकी स्थिति अप्रतिहत मानी गई है अर्थात् ये न किसी से रुकते हैं और न ही किसी को रोकते हैं। यह दोनों वज्र-पटलों को भी बिना रुकावट के भेदते चले जाते हैं, जैसेलोहपिण्ड में अग्नि। वैक्रियक और आहारक भी अपेक्षाकृत सूक्ष्म होने से ये भी बिना प्रतिघात के प्रवेश कर लेते हैं। ये अव्याबाध गति वाले तो होते हैं पर तैजस् कार्मण की तरह सारे लोक में व्याप्त नहीं होते हैं। जबकि यहाँ अप्रतिघात का तात्पर्य लोकान्त पर्यन्त अव्याहत गति से है। जैनागम में यह उल्लेख है कि एक शरीर किसी भी संसारी जीव के नहीं हो सकता है क्योंकि तैजस् और कार्मण ये दोनों शरीर कभी अलग नहीं होते। इसलिए कम से कम दो शरीर और अधिक से अधिक चार शरीर होते हैं। पाँच शरीर एक साथ एक समय किसी के नहीं हो सकते हैं क्योंकि वैक्रियक-लब्धि और आहारक-लब्धि का एक साथ प्रयोग सम्भव नहीं है। इसलिए आहारक और वैक्रियक शरीर एक जीव में एक साथ नहीं हो सकते। इसका कारण है Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ४७ * ----------------------------------------------------------------------------- कि वैक्रियक शरीर देवों और नारकों में होता है। उनके तो आहारक शरीर सम्भव ही नहीं है क्योंकि आहारक शरीर केवल चौदह पूर्वो के धारक संयमी साधक के ही हो सकता है। इसी आधार पर तिर्यंच जीवों और सामान्य मनुष्यों के भी आहारक शरीर सम्भव नहीं होता है। इसी प्रकार चौदह पूर्वो के धारक संयती श्रमणों को वैक्रियक और आहारक-लब्धि प्राप्त तो होती हैं किन्तु इनमें से वे एक ही शरीर बना सकते हैं। चाहे वह शरीर वैक्रियक हो या आहारक शरीर हो। इन दोनों शरीरों को एक साथ न रहने का जो कारण जैनागम में बताया गया है वह है प्रमाद। वैक्रियक शरीर सदा प्रमत्त दशा में बनता है। जब तक यह शरीर रहता है तब तक प्रमत्त दशा बनी रहती है। यद्यपि आहारक शरीर की निर्माण-प्रक्रिया तो प्रमाद अवस्था में ही होती है लेकिन संयती श्रमण शीघ्र ही अप्रमत्त दशा में आरोहण कर जाते हैं और जब तक आहारक शरीर का संहरण नहीं कर लेते तब तक अप्रमत्त दशा में ही बने रहते हैं। __ जीव के साथ जो निरन्तर दो शरीर होते हैं वे हैं-तैजस और कार्मण। जीव के एक साथ जो तीन शरीर होते हैं उसके दो रूप हैं-एक तैजस्, कार्मण और औदारिक; दूसरा तैजस्, कार्मण और वैक्रियक। जीव के एक साथ जो चार शरीर होते हैं उसके भी दो रूप हैं-एक तेजस्, कार्मण, औदारिक एवं वैक्रियक शरीर और दूसरा तैजस्, कार्मण, औदारिक और आहारक शरीर। (आधार : स्थानांग ५) प्रश्नावली १. शरीर से क्या तात्पर्य है? यह कितने प्रकार का है? २. आत्मा के साथ-साथ शरीर को भी महत्त्व दिया गया है। क्यों? ३. क्या आहारक शरीर और वैक्रियक शरीर एक साथ हो सकते हैं? यदि नहीं, तो क्यों? ४. तैजस् शरीर और कार्मण शरीर में मुख्य अन्तर क्या है? ५. आहारक शरीर की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। ६. एक संसारी जीव में एक साथ कम से कम और अधिक से अधिक कितने और कौन-से शरीर होते हैं? ७. इस बोल में स्थूल और सूक्ष्म शरीर से क्या अभिप्राय है? यह स्थूलता और सूक्ष्मता किस अपेक्षा से है? स्पष्ट कीजिये। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवाँ बोल : योग पन्द्रह (मनोयोग, वचनयोग और काययोग का स्वरूप कथन) चार मन के (१) सत्य मनोयोग, (२) असत्य मनोयोग, (३) मिश्र मनोयोग, (४) व्यवहार मनोयोग। चार वचन के (१) सत्य वचनयोग, (२) असत्य वचनयोग, (३) मिश्र वचनयोग, (४) व्यवहार वचनयोग। सात काय के (१) औदारिक काययोग, (२) औदारिक मिश्र काययोग, (३) वैक्रिय काययोग, (४) वैक्रियक मिश्र काययोग, (५) आहारक काययोग, (६) आहारक मिश्र काययोग, (७) कार्मण काययोग। 'योग' शब्द अनेक अर्थों में व्यवहृत है। यथा-मिलन या संयोग, ध्यान, समाधि, यम, नियम आदि क्रियाएँ, साधना-पद्धति व आसनादि। चित्तवृत्तियों के निरोध को भी योग कहा गया है क्योंकि इसमें ध्याता का ध्येय के साथ संयोग रहता है, यानी ध्याता और ध्येय एकाकार हो जाते हैं किन्तु जैनदर्शन Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ४९ * में योग एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ प्रचलित अर्थों से नितान्त भिन्न है। इसका अर्थ है प्रवृत्ति। शरीर, वचन और मन जब सक्रिय होते हैं या प्रवृत्ति की ओर उन्मुख होते हैं तब आत्मा के प्रदेशों में जो स्पन्दन, कम्पन, हलचल (Vibration-वाइब्रेशन) होता है, वह योग कहलाता है। इस प्रकार योग एक प्रकार का स्पन्दन है जो आत्मा और पुद्गल वर्गणाओं के संयोग से होता है। बिना पुद्गल वर्गणाओं के सहयोग या संयोग से आत्मा की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। इसी बात को शास्त्रीय भाषा में कहें तो कह सकते हैं कि वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम तथा नामकर्म के उदय से मन, वचन व काय वर्गणा के संयोग से जो आत्मा की प्रवृत्ति होती है, वह योग है। ___छद्मस्थ अवस्था के जीवों का यह योग क्षयोपशम जन्य है जबकि केवली भगवान में योग का यह सद्भाव क्षायिक भाव की अपेक्षा से है क्योंकि उनके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म पूर्ण रूप से क्षय हो चुके हैं। इस कारण केवली भगवान वचन व काययोग की प्रवृत्ति के लिए उद्यत नहीं होते अपितु ये प्रवृत्तियाँ-क्रियाएँ उनके सहज ही होती हैं। उनके वचन व काययोग की सहजता का मुख्य कारण यही है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्म के पूर्णरूपेण क्षय से उनका भाव मन आत्मा के ज्ञानगुण में विलीन हो जाता है। अतः भाव मन न रहने की अपेक्षा मनोयोग सम्बन्धी क्रिया भी उनमें नहीं होती जबकि छद्मस्थ जीव क्षायोपशमिक भाव के कारण उद्यत होता है। छद्मस्थ और केवली के योग में यही मुख्य अन्तर है। शैलेशी अवस्था में केवली अयोगी होते हैं. अतः उन्हें किसी भी योग का सद्भाव नहीं होता। भाव और द्रव्य की अपेक्षा से योग के दो भेद हैं-एक भावयोग और दूसरा द्रव्ययोग। आत्मा की विशिष्ट शक्ति अर्थात् योग शक्ति भावयोग है और मन, वचन व काय के निमित्त से जो आत्म-प्रदेशों में परिस्पन्दन होता है, वह द्रव्ययोग है। प्रवृत्ति की दृष्टि से योग के तीन भेद हैं-एक मनयोग, दूसरा वचनयोग और तीसरा काययोग। जीव की मानसिक प्रवृत्ति को मनोयोग, वाचनिक प्रवृत्ति को वचनयोग और कायिक प्रवृत्ति को काययोग कहते हैं। शुभाशुभ प्रवृत्ति के आधार पर योग के दो भेद हैं-एक शुभ योग और दूसरा अशुभ योग। शुभ योग से पुण्य का और अशुभ योग से पाप का आस्रव होता है। यह शुभत्व और अशुभत्व का आधार भावना की शुभाशुभता है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *५०* आठवाँ बोल : योग पन्द्रह - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -- __ मन, वचन व काय; इन तीनों योगों में काययोग संसार के प्रत्येक जीवों में होता है चाहे वे स्थावर, विकलेन्द्रिय, संज्ञी-असंज्ञी, पंचेन्द्रिय जीव हों। स्थावर जीवों में केवल काययोग, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी जीवों में काय और वचनयोग तथा संज्ञी, पंचेन्द्रिय, तिर्यंच आदि जीवों में तीनों योग होते हैं। मन, वचन व काय की शुभाशुभ प्रवृत्ति एक होते हुए भी मन, वचन व कायारूप निमित्त भेद की अपेक्षा से तीन प्रकार की और उत्तर भेद की अपेक्षा से पन्द्रह प्रकार की कही गई है। मनोयोग ___ यह मन की प्रवृत्ति या मन का व्यापार है। यह दो प्रकार का है-एक द्रव्य मनोयोग और दूसरा भाव मनोयोग। मन की प्रवृत्ति के लिए जो मनोवर्गणा के पुद्गल ग्रहण किए जाते हैं वे द्रव्य मनोयोग और उन गृहीत पुद्गलों के सहयोग से जो मनन-चिंतन होता है वह भाव मनोयोग है। भाव मन (Subjective mind सब्जेक्टिव माइण्ड) का सम्बन्ध आत्मा से है क्योंकि वह ज्ञानरूप है अतः आत्मा और भाव मन ये दोनों एक हैं, अलग-अलग नहीं जबकि द्रव्य मन (Objective mind-ऑब्जेक्टिव माइण्ड) का सम्बन्ध मस्तिष्क (Brain ब्रेन) और इन्द्रियों (Senses सैन्सस) के साथ रहता है। भाव मन के अभाव में आत्मा को इन्द्रिय जन्य ज्ञान नहीं होता। इसलिए जितने भी संसारी समनस्क जीव हैं उनमें द्रव्य मन अवश्य विद्यमान रहता है। मुक्त आत्माओं के लिए द्रव्य मन की कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि ये तो सम्पूर्ण ज्ञानमय हैं। इन्द्रियाँ बाह्य जगत् का ज्ञान कराती हैं। ये इस ज्ञान को मस्तिष्क तक पहुँचाती हैं। मस्तिष्क इसे द्रव्य मन को, द्रव्य मंन इसे भाव मन को और भाव मन आत्मा को यह ज्ञान कराता है। इन्द्रियों द्वारा आत्मा तक इस ज्ञान की सम्प्रेषणीयता (पहुंच) का यह एक क्रम है। ___मन की प्रवृत्ति कभी सत्य, कभी असत्य, कभी सत्यासत्य (मिश्र रूप) और कभी लोक-व्यवहार रूप होने से मनोयोग के चार भेद किए गए हैं। यथा (१) सत्य मनोयोग, (२) असत्य मनोयोग, (३) मिश्र मनोयोग, (४) व्यवहार मनोयोग। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल * ५१ * - - - - - - सत्य मनोयोग में सत्य सम्बन्धी मन की प्रवृत्ति रहती है जबकि असत्य मनोयोग में असत्य से संदर्भित मानसिक वृत्ति, मिश्र मनोयोग में सत्य-असत्य की मिश्रित मनःप्रवृत्ति तथा व्यवहार मनोयोग में व्यवहार लक्ष्यी मानसिक प्रवृत्ति होती है। इसमें मन की प्रवृत्ति न तो सत्य रूप है और न असत्य रूप है अपितु व्यवहार रूप है। इसमें मन आदेश-उपदेश देने का विचार करता है। वचनयोग वचन या भाषा की प्रवृत्ति वचनयोग है। इसके भी दो भेद हैं-एक द्रव्य वचनयोग और दूसरा भाव वचनयोग। भाषा वर्गणा के पुद्गल द्रव्य वचनयोग और इन पुद्गलों की सहायता से भाषा सम्बन्धी आत्मा की प्रवृत्ति भाव वचनयोग है। वचनयोग के चार भेद हैं। यथा (१) सत्य वचनयोग, (२) असत्य वचनयोग, (३) मिश्र वचनयोग, (४) व्यवहार वचनयोग। काययोग काया सम्बन्धी प्रवृत्ति काययोग है। इसके दो भेद हैं-एक द्रव्य काययोग और दूसरा भाव काययोग। काय की प्रवृत्ति हेतु कायावर्गणा के पुद्गल को ग्रहण करना द्रव्य काययोग और इन पुद्गलों के सहयोग से जीव की जो काय प्रवृत्ति होती है वह भाव काययोग है। काया या शरीर की प्रवृत्ति अधिक से अधिक सात प्रकार की हो सकती है इसलिए काययोग के सात भेद हैं। यथा (१) औदारिक काययोग, (२) औदारिक मिश्र काययोग, (३) वैक्रिय काययोग, (४) वैक्रियक मिश्र काययोग, (५) आहारक काययोग, (६) आहारक मिश्र काययोग, (७) कार्मण काययोग। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ५२ * आठवाँ बोल : योग पन्द्रह औदारिक काययोग में औदारिक शरीर की प्रवृत्ति होती है। ऐसा शरीर मनुष्य और तिर्यंचों का होता है। औदारिक मिश्र काययोग में जैसा कि नाम से ही विदित है कि औदारिक शरीर के साथ अन्य किसी शरीर की सन्धि के समय होने वाली कायिक प्रवृत्ति होती है। औदारिक शरीर के साथ चार प्रकार के शरीर की संधि होने से यह काययोग चार प्रकार का होता है। यथा (१) कार्मण काययोग के साथ औदारिक मिश्र, (२) आहारक काययोग के साथ औदारिक मिश्र, (३) वैक्रिय काययोग के साथ औदारिक मिश्र, (४) केवली समुद्घात के समय दूसरे, छठे व सातवें समय में कार्मण के साथ औदारिक मिश्र काययोग। तीसरे प्रकार का काययोग है वैक्रिय काययोग। यह शरीर देवों और नारक जीवों के होता है। इसमें देवता और नारक में शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद वैक्रिय शरीर की तथा मनुष्य और तिर्यंच में लब्धि जन्य वैक्रिय शरीर की क्रिया या प्रवृत्ति होती है। ___ चौथे प्रकार के काययोग में वैक्रिय शरीर से मिश्रित अन्य किसी शरीर की संधि के समय की कायिक प्रवृत्ति होती है। यह दो प्रकार का होता है-एक कार्मणयोग के साथ वैक्रियक मिश्र काययोग, दूसरा औदारिक काययोग के साथ वैक्रियक मिश्र काययोग। __पाँचवें प्रकार के काययोग में आहारक शरीर की प्रवृत्ति होती है। यह शरीर चौदह पूर्वधर संयमी मुनि ही अपने तपस्या जन्य लब्धि-बल से निर्मित करते हैं। __छठे प्रकार के काययोग में आहारक शरीर के साथ अन्य शरीर की सन्धि के समय होने वाली कायिक प्रवृत्ति होती है। सातवें प्रकार के काययोग में कार्मण शरीर की प्रवृत्ति होती है। जब जीव एक गति से दूसरी गति में या एक भव से दूसरे भव में जन्म लेने के लिए गमन करता है तब कार्मण काययोग साथ होता है। मन में यह प्रश्न उद्भूत हो सकता है कि कार्मण योग की तरह तैजस् योग को क्यों नहीं माना गया? यानी औदारिक, वैक्रिय, आहारक और कार्मण Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ५३ * शरीर की भाँति तैजस् शरीर का योग क्यों नहीं होता? इसका समाधान यह है कि तैजस् शरीर के योग को स्वतंत्र रूप से मानने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि तैजस् का कार्मणयोग में समावेश हो जाता है। जिस समय औदारिक, वैक्रिय और आहारक होते हैं उस समय तो वे अपना काम करते ही हैं। परन्तु जिस समय वे नहीं होते तब कार्मण शरीर के द्वारा जो वीर्य-शक्ति का व्यापार या प्रवृत्ति होती है, वह तैजस् शरीर के द्वारा होती है। अतः तैजस् काययोग का कार्मण काययोग में ही समावेश हो जाता है। तेजस् और कार्मण शरीर सदा सहचर रहते हैं। (आधार : भगवतीसूत्र, शतक २५) प्रश्नावली १. योग किसे कहते हैं? समझाइए। २. छद्मस्थ और केवली के योग में क्या अन्तर है? स्पष्ट कीजिए। ३. मनोयोग के स्वरूप पर प्रकाश डालिए। ४. वचनयोग से क्या तात्पर्य है? इसके कितने भेद-प्रभेद हैं? ५. काययोग का वर्णन कीजिए। ६. स्थावर, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच और समनस्क मनुष्यों में कौन-कौन-से योग होते ७. औदारिक, वैक्रियक, आहारक और कार्मण शरीर की भाँति तैजस शरीर का योग क्यों नहीं माना गया है? Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाँ बोल : उपयोग बारह [ विशेष बोध (ज्ञान) और सामान्य बोध (दर्शन) का विवेचन ] पाँच ज्ञान के - (१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनः पर्यवज्ञान, (५) केवलज्ञान । तीन अज्ञान के - (१) मतिअज्ञान, (२) श्रुतअज्ञान, (३) अवधिअज्ञान ( विभंगज्ञान ) । चार दर्शन के (१) चक्षुः दर्शन, (२) अचक्षुः दर्शन, (३) अवधिदर्शन, (४) केवलदर्शन । जीव का प्रधान लक्षण है चेतना । चेतना की प्रवृत्ति उसका व्यापार उपयोग कहलाता है। अर्थात् चेतना सामान्य गुण है और ज्ञान-दर्शन ये दो उसकी सहज अवस्थाएँ हैं । इन्हीं को उपयोग कहा जाता है। इस प्रकार उपयोग जीव का प्रमुख लक्षण है । संसारी और सिद्ध- जीव की इन दोनों ही अवस्थाओं में यह लक्षण विद्यमान रहता है अर्थात् उपयोग प्रत्येक जीव में होता है जो जीव इन्द्रियों आदि की अपेक्षा से अविकसित हैं उनमें उपयोग अव्यक्त होता है और जो पूर्ण विकसित हैं उनमें यह व्यक्त होता है। उपयोग का यह लक्षण है कि यह त्रिकाल में भी बाधित नहीं हो सकता । यह असंभव, अव्याप्ति, अतिव्याप्ति आदि दोषों से रहित पूर्णतः निर्दोष होता है। बोध, ज्ञान, चेतना, संवेदन आदि शब्द Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ५५ * उपयोग के लिए व्यवहृत हैं। यह उपयोग तीन प्रकार का होता है-एक शुभ उपयोग, दूसरा अशुभ उपयोग और तीसरा शुद्धोपयोग। पहले के दो संसार का कारण होने से परमार्थतः हेय हैं और शुद्धोपयोग मोक्ष का कारण होने से सर्वथा उपादेय है। उपयोग की प्रबलता ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय इन दो कर्मों के क्षय और क्षयोपशम पर ही निर्भर करती है। जितना अधिक इन कर्मों का क्षयोपशम होगा उतना ही अधिक उपयोग निर्मल होगा। इसके दो भेद हैं-एक ज्ञानोपयोग और दूसरा दर्शनोपयोग। पहले में चेतना की शक्ति ज्ञानाकार न होकर ज्ञेयाकार होती है। चेतना की यह शक्ति सामान्य न होकर विशिष्ट होती है जबकि दूसरे में चेतना की शक्ति किसी वस्तु-विशेष के प्रति विशेष रूप से न होकर सामान्य रूप से उसे ग्रहण करती है। इस दृष्टि से उपयोग के दो भेद हैं-एक साकार उपयोग और दूसरा अनाकार उपयोग। ज्ञानोपयोग साकार उपयोग कहलाता है जबकि दर्शनोपयोग को अनाकार उपयोग कहते हैं क्योंकि आत्मा का ज्ञानगुण साकार है और दर्शनगुण निराकार है। जो बोध ग्राह्य वस्तु को विशेष रूप से जानने वाला हो अर्थात् पदार्थों के विशेष धर्म, गुण, क्रिया का बोध कराने वाला हो, वह साकार उपयोग या ज्ञानोपयोग है। इसे सविकल्प बोध भी कह सकते हैं। जो बोध ग्राह्य वस्तु को सामान्य रूप से जानने वाला हो अर्थात् पदार्थों के अस्तित्व या सत्ता का सामान्य बोध कराने वाला हो, वह अनाकार उपयोग या दर्शनोपयोग है। इसे निर्विकल्प बोध भी कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है। प्रत्येक पदार्थ में सामान्य गुण भी होता है और विशिष्ट गुण भी। विशिष्टता का सम्बन्ध ज्ञान से है और सामान्य का सम्बन्ध दर्शन से है। ज्ञान के पाँच भेद हैं। यथा(१) मतिज्ञान, (२) श्रुतज्ञान, (३) अवधिज्ञान, (४) मनःपर्यवज्ञान, (५) केवलज्ञान। इन्द्रिय और मन के सहयोग से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। यह ज्ञान वर्तमान विषयक है। कारणभेद से इसके दो भेद हैं-एक इन्द्रियजन्य मतिज्ञान और दूसरा मनोजन्य मतिज्ञान। चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ५६ * नवाँ बोल : योग पन्द्रह इन्द्रियजन्य मतिज्ञान और मन से होने वाला ज्ञान मनोजन्य मतिज्ञान है। सामान्यतः मतिज्ञान एक है पर विषयभेद की दृष्टि से इसके पाँच भेद हैं (१) मति, (२) स्मृति, (३) संज्ञा, (४) चिन्ता, (५) अभिनिबोध (अनुमान)। मतिज्ञान के विकास-क्रम या अवस्था-विशेष के आधार पर इसके चार . भेद हैं (१) अवग्रह, (२) ईहा, (३) अवाय, (४) धारणा। इनमें अवग्रह प्राथमिक ज्ञान है, अवाय इस ज्ञान की निश्चयान्मुख स्थिति है, ईहा विचारणा की स्थिति है और धारणा इन्द्रिय ज्ञान की स्थितिशीलता है। इस प्रकार एक ही ज्ञान की धारा क्रम से विकसित होती हुई अनेक नामों से अभिहित है। ज्ञान का दूसरा प्रकार है श्रुतज्ञान। मतिज्ञान के बाद ही जीव में श्रुत की स्थिति आती है। श्रुत का अर्थ है सुना हुआ। मतिज्ञान में शब्दादि का ज्ञान होता है किन्तु इसके बाद चिन्तन, मनन द्वारा परिपक्व जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। जैसे जल शब्द का सुनना या देखना-जानना मतिज्ञान है और इस जल शब्द को सुनने के उपरान्त इसका अर्थ-बोध होना और उस पर विचार करना जल सम्बन्धी श्रृतज्ञान है। मतिज्ञान और श्रृतज्ञान में प्रगाढ़ सम्बन्ध है। इनका परस्पर सम्बन्ध कारण और कार्य का है। मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है। चूँकि मतिज्ञान से श्रुतज्ञान होता है अतः मतिज्ञान श्रुतज्ञान का कारण है। पर यह कारण बाह्य कारण है, आन्तरिक कारण तो श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम है क्योंकि किसी विषय का मतिज्ञान हो जाने पर भी यदि उक्त क्षयोपशम न हुआ हो तो उस विषय का श्रुतज्ञान नहीं हो सकता। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में एक अन्तर यह भी है कि मतिज्ञान विद्यमान वस्तु में प्रवृत्त होता है Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल ५७ जबकि श्रुतज्ञान अतीत, विद्यमान तथा भावी इन त्रैकालिक विषयों में प्रवृत्त होता है। इसके अतिरिक्त मतिज्ञान में शब्दोल्लेख नहीं होता है जबकि श्रुतज्ञान होता है। यानी जो ज्ञान इन्द्रियजन्य और मनोजन्य होने पर भी शब्दोल्लेख सहित है वह श्रुतज्ञान और जो शब्दोल्लेखरहित है वह मतिज्ञान है । मतिज्ञान यदि सन है तो श्रुतज्ञान रस्सी है। दोनों ही ज्ञान निमित्तों पर आधारित होने से परोक्ष ज्ञान हैं। श्रुतज्ञान के दो भेद हैं- एक द्रव्यश्रुत और दूसरा भावश्रुत। भावश्रुत ज्ञानात्मक है और द्रव्यश्रुत शब्दात्मक | जैनागम द्रव्यश्रुत है । तीसरे प्रकार का ज्ञान है अवधिज्ञान | यह ज्ञान प्रत्यक्ष है अर्थात् इन्द्रिय और मन के सहयोग के बिना आत्मिक शक्ति के द्वारा द्रव्यं, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा-सीमा से जो ज्ञानरूपी पदार्थों या पुद्गलों को जानता है, उसे अवधिज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान सूक्ष्म से सूक्ष्म पुद्गलों को जानने की शक्ति रखता है। यह ज्ञान देव और नारकों में जन्मजात होता है । मनुष्य और तिर्यंचों के कर्मक्षयोपशम के कारण चौथा ज्ञान मनःपर्यवज्ञान है । यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष है । मन और इन्द्रियों के सहयोग के बिना आत्म-शक्ति द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा या सीमा से जो ज्ञान समनस्क या संज्ञी जीवों की चित्तवृत्तियों को, उनके मनोभावों को जानता है वह मनः पर्यवज्ञान है । यह ज्ञान निर्मल अन्तःकरण वाले संयमी साधक में होता है। यद्यपि ये दोनों ज्ञान अपूर्ण हैं फिर भी असाधारण हैं । इस ज्ञान की तुलना टेलीपैथी या Mind reading (माइण्ड रीडिंग) से नहीं की जा सकती है। आधुनिक विज्ञान जिसे Clair voyance (क्लेयर वोयेन्स) कहते हैं वह मनः पर्यवज्ञान का अंग नहीं कहा जा सकता। पाँचवें प्रकार का ज्ञान है केवलज्ञान । जो ज्ञान बिना किसी बाह्य निमित्त के त्रिकाल व त्रिलोकवर्ती समस्त वस्तुओं को एक साथ जानने या देखने की क्षमता और सामर्थ्य रखता है, वह ज्ञान केवलज्ञान है। इस ज्ञान के प्रकट होने पर जीव सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और परम चिन्मय बन जाता है । केवलज्ञान परिपूर्ण होने के कारण इसमें उपरोक्त अन्य ज्ञानों की अपेक्षा कोई, किसी प्रकार का भेद नहीं होता है, कोई भिन्नता नहीं होती है । मति, श्रुत और अवधि; ये तीनों ज्ञान मिथ्यात्व के संसर्ग से मिथ्याज्ञान भी हो सकते हैं किन्तु मनः पर्यव और केवलज्ञान सदा सम्यक् ही होते हैं । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ५८ * नवाँ बोल : उपयोग बारह अज्ञान का अर्थ इस बोल में ज्ञान के साथ-साथ अज्ञान शब्द भी आया है। यहाँ अज्ञान शब्द अभाव के लिए नहीं, कुत्सित के लिए है। ज्ञान और अज्ञान में मूल अन्तर सम्यक्त्व के सहभाव और असहभाव से है। अज्ञान को कुत्सित ज्ञान भी कहते हैं। ऐसा इसलिए है कि इसमें मिथ्यात्व का संयोग रहता है। मिथ्यात्व का अर्थ है-विपरीतता, मिथ्या। विपरीत ज्ञान अर्थात् वह ज्ञान जो मोक्ष की ओर न ले जाकर संसारोन्मुख है, वह ज्ञान अज्ञान है। जैसे नीच या दुष्ट व्यक्ति के सम्पर्क से उत्तम पुरुष भी नीच या दुष्ट हो जाता है उसी प्रकार ज्ञान निंदित या कुत्सित नहीं होता, पर मिथ्यात्व के अवलम्बन के कारण अज्ञान कहलाता है। इस प्रकार ज्ञान और अज्ञान में केवल पात्र का ही भेद है। यदि पात्र सम्यक्त्वी है तो उसका ज्ञान ज्ञान है और यदि वह मिथ्यात्व से युक्त है तो उसका ज्ञान अज्ञान है। अज्ञान के तीन भेद हैं(१) मतिअज्ञान, (२) श्रुतअज्ञान, (३) विभंगज्ञान या अवधिअज्ञान। अज्ञान कभी भी मनःपर्यव और केवलज्ञान के लिए प्रयुक्त नहीं हो सकता। क्योंकि ये दोनों ज्ञान विशिष्ट योगियों के होते हैं, मिथ्यात्वी के नहीं होते हैं। इस प्रकार ज्ञान के पाँच भेद और अज्ञान के तीनों भेदों का कारण सम्यक्त्व और मिथ्यात्व है। इन आठ प्रकार के ज्ञानों में आत्मा जब, जिस उपयोग में जानने की क्रिया करता है तब उसका उपयोग भी उसी प्रकार का हो जाता है। उपयोग का दूसरा भेद है दर्शनोपयोग। यह अनाकार या निराकार उपयोग है। इसके चार भेद हैं (१) चक्षुःदर्शन, (२) अचक्षुःदर्शन, (३) अवधिदर्शन, (४) केवलदर्शन। इन चारों में मनःपर्यव को दर्शन में नहीं लिया गया है। इसका कारण यह है कि मनःपर्यवज्ञान में मन की विविध आकृतियों को जीव ज्ञान से पकड़ता Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ५९ * है, इसलिए वह ज्ञान है जबकि दर्शन का विषय निराकार है इसलिए मनःपर्यव दर्शन नहीं है। जो सामान्य बोध नेत्रजन्य हो वह चक्षुःदर्शन है और जो नेत्र के अतिरिक्त अन्य किसी इन्द्रिय से या मन से सामान्य बोध हो, वह अचक्षुःदर्शन है। अवधिलब्धि से मूर्त पदार्थों का सामान्य बोध अवधिदर्शन तथा केवललब्धि से होने वाला समस्त पदार्थों का सामान्य बोध केवलदर्शन है। दोनों दर्शन क्रमशः अवधिज्ञान और केवलज्ञान के सहवर्ती हैं। मन में यह शंका उठ सकती है कि चक्षुःदर्शन और अचक्षुःदर्शन न कहकर केवल इन्द्रियदर्शन क्यों नहीं कहा गया? इससे एक ही में पाँचों इन्द्रियों का समावेश हो जाता है और यदि यह अभिप्रेत नहीं था तो पाँचों इन्द्रियों के पाँच भेद क्यों नहीं किए गए? इसका समाधान यह है कि दर्शन की व्यवस्था वस्तु के सामान्य और विशेष इन दो स्वभावों के आधार पर हुई है। चक्षुःदर्शन यद्यपि सामान्य बोध है फिर भी अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा वह अधिक विश्वस्त है। इसमें विशेषता की कुछ झलक आ जाती है, उसी को ध्यान में रखकर चक्षुःदर्शन को अन्य इन्द्रियों से भिन्न रखा गया है। ___ अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान दोनों ही सही पुद्गलों को ग्रहण करते हैं, किन्तु इनमें एक खास अन्तर है, अवधिज्ञानी सभी प्रकार के मूर्त पुद्गलों को जान लेता है, जबकि मनःपर्यवज्ञानी केवल संज्ञी जीवों के मनोगत भावों, विचारों को ही जानता है। र: प्रज्ञापना पद प्रश्नावली १. उपयोग से आप क्या समझते हैं? २. दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग में क्या अन्तर है? ३. मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को समझाते हुए इनके अन्तर को स्पष्ट कीजिए। ४. प्रत्यक्ष और परोक्षज्ञान से क्या अभिप्राय है? ५. मनःपर्यव को दर्शन क्यों नहीं माना गया? ६. क्या ज्ञान कुत्सित हो सकता है? यदि हाँ, तो कैसे? ७. चक्षुःदर्शन और अचक्षुःदर्शन न कहकर केवल इन्द्रियदर्शन क्यों नहीं कहा गया? Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ बोल : कर्म आठ (आत्म-शक्तियों के आवाक आठ प्रकार के कर्म और उनके बंध हेतुओं का वर्णन) (१) ज्ञानावरण कर्म, (२) दर्शनावरण कर्म, (३) वेदनीय कर्म, (४) मोहनीय कर्म, (५) आयुष्य कर्म, (६) नाम कर्म, (७) गोत्र कर्म, (८) अन्तराय कर्म। जीवन में जितनी भी विविधताएँ और विषमताएँ हैं उनका मूल हेतु कर्म है। कर्म का सामान्य अर्थ है-कार्य, प्रवृत्ति अथवा क्रिया। हँसना, रोना, चलना, काम-धंधा या व्यवसाय आदि करना यह भी एक कर्म है। इस तरह कर्म के अनेक अर्थ हैं। दार्शनिक क्षेत्र में कर्म की अनेक व्याख्याएँ हुई हैं। उनके अनुसार कर्म कहीं कायिक क्रियाकाण्डों एवं अन्य प्रवृत्तियों के अर्थ में तो कहीं कर्तव्यों, संस्कारों एवं वासनाओं आदि के रूप में प्रयुक्त है। पर जैनदर्शन में कर्म का जो विवेचन हुआ है वह अत्यन्त वैज्ञानिक है। __जैनदर्शन के अनुसार लोक अनेक प्रकार के पुद्गल परमाणुओं या वर्गणाओं से परिव्याप्त है। इनमें से जो पुद्गल परमाणु कर्मरूप में परिणत हैं वे कार्मण पुद्गल कहलाते हैं और इन कार्मण पुद्गलों का आत्मा के साथ बँधना/जुड़ना/चिपकना कर्म है। ये कर्म-परमाणु राग-द्वेषरूपी कषायों की चिकनाहट और मन, वचन व काय की प्रवृत्ति अर्थात् योग की चंचलता के कारण आत्मा के साथ सम्बन्ध स्थापित करते हैं। आत्मा और कर्म का यह सम्बन्ध दूध और .पानी, अग्नि और लोहपिण्ड की तरह होता है। यह सम्बन्ध अनादिकाल से है जिसमें पुराने कर्म अलग भी होते हैं और नए कर्म चिपकते भी हैं। इस तरह पुराने कर्मों का आत्मा से अलग होना और नए कर्मों के Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल *६१ * चिपकने का यह सिलसिला अनादिकाल से निरन्तर प्रवहमान है। किन्तु जीवों में यह सिलसिला अनन्तकाल तक ऐसा ही बना रहेगा, ऐसी बात नहीं है। इसका अन्त भी हो सकता है। इसके लिए आचार्यों ने कहा है कि जिस प्रकार खान में से निकले हुए मिट्टी आदि से चिपके हुए स्वर्ण-पाषाण को विशेष शोध क्रिया द्वारा मिट्टी आदि को पृथक् कर शुद्ध-परिशुद्ध बनाया जाता है, उसी प्रकार कर्मों से चिपकी हुई आत्मा को तपादि द्वारा कर्मों से अलग अर्थात् शुद्ध किया जाता है। कर्मों से रहित आत्मा शुद्ध, मुक्त और बुद्ध होती है जबकि कर्मों से जकड़ी आत्मा विकारों से युक्त अर्थात् अशुद्ध होती है और संसार के परिभ्रमण का कारण बनती है। कर्म के दो भेद हैं-एक द्रव्यकर्म और दूसरा भावकर्म। राग, द्वेष और कषाय आदि भावकर्म हैं और भावकर्म के निमित्त से कर्म-पुद्गलों की एक विशेष परिणति द्रव्यकर्म है। द्रव्यकर्म से भावकर्म और भावकर्म से द्रव्यकर्म की उत्पत्ति का यह क्रम अनादि है। इस प्रकार कर्म-पुद्गल शुभाशुभ प्रवृत्तियों द्वारा आकृष्ट होकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को विकृत या आवृत करते हैं, साथ ही अनुकूल-प्रतिकूल, यानी शुभाशुभ फल के कारण भी बनते हैं। यद्यपि ये कर्म-पुद्गल एकरूप हैं तो भी ये आत्मा के जिस गुण-स्वभाव को विकृत-आवृत या प्रभावित करते हैं, उसके अनुसार ही इन पुद्गलों का नाम होता है। जैसे आत्मा के ज्ञानगुण को प्रभावित करने वाला कर्म ज्ञानावरण कर्म कहलाता है। कर्म के आठ भेद हैं(१) ज्ञानावरण कर्म, (२) दर्शनावरण कर्म, (३) वेदनीय कर्म, (४). मोहनीय कर्म, (५) आयुष्य कर्म, (६) नाम कर्म, (७) गोत्र कर्म, (८) अन्तराय कर्म। इनमें पहले चार घाति कर्म और बाद के चार अघाति कर्म हैं। घाति कर्म आत्मा के मुख्य या स्वाभाविक गुणों का घात करते हैं जबकि अघाति कर्म का Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ६२ : दसवाँ बोल : उपयोग बारह प्रभाव शरीर आदि पर ही प्रमुख रूप से पड़ता है। ये जीव को उसी जन्म में टिकाए रखते हैं। (१) ज्ञानावरण कर्म यह कर्म आत्मा के ज्ञानगुण को आवृत / आच्छादित / विकृत करता है । इस कर्म के क्षय होने पर केवलज्ञान की प्राप्ति होती है । इस कर्म का स्वभाव आँख पर बँधी पट्टी के समान होता है । जिस प्रकार पट्टी बँधने से देखने में बाधा पहुँचती है उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से जानने में अवरोध उत्पन्न होता है । इस कर्म के पाँच भेद हैं। यथा (१) मतिज्ञानावरण, (२) श्रुतज्ञानावरण, (३) अवधिज्ञानावरण, (४) मनः पर्यवज्ञानावरण, (५) केवलज्ञानावरण। यद्यपि कर्मबन्ध के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पाँच हेतु हैं तथापि जिन कारणों से ज्ञानावरण कर्म का विशेष बन्ध होता है वे इस प्रकार से हैं (१) ज्ञान - ज्ञानी से प्रतिकूलता और द्वेष रखना, (२) ज्ञान तथा ज्ञानदाता गुरुओं का नाम छिपाना अथवा ज्ञानी को ज्ञानी नहीं कहना, (३) ज्ञान को प्राप्त करने में विघ्न या बाधा डालना अर्थात् अन्तराय उपस्थित करना, (४) ज्ञान या ज्ञानी की अवहेलना करना, (५) ज्ञान या ज्ञानी के वचनों में विसंवाद अर्थात् विरोध दिखाना । (२) दर्शनावरण कर्म यह आत्मा के दर्शन गुण को आच्छादित करता है । इस कर्म के क्षीण होने से ही केवलदर्शन की प्राप्ति सम्भव है। इस कर्म की तुलना राजा के द्वारपाल से की जा सकती है। इस कर्म का स्वभाव परदे - जैसा है। इसके नौ भेद हैं। यथा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) चक्षुः दर्शनावरण, (२) अचक्षुः दर्शनावरण, (३) अवधिदर्शनावरण, (४) केवलदर्शनावरण, (५) सामान्य निद्रा, (६) गहरी निद्रा, (७) प्रचला, (८) प्रचलाप्रचला, (९) स्त्यानगृद्धि । आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ६३ जिन कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है, दर्शनावरण कर्म भी उन्हीं साधनों से बँधता है। इन दोनों में अन्तर केवल इतना ही है कि दर्शनावरण कर्म में ज्ञान और ज्ञान के साधन न होकर दर्शन और दर्शन के साधनों के प्रति वैसा व्यवहार होता है। ये कारण इस प्रकार हैं -- (१) दर्शन - दर्शनी से प्रतिकूलता और द्वेष रखना, (२) दर्शन तथा दर्शनदाता का नाम छिपाना अथवा दर्शनी को कहना कि यह दर्शनी नहीं है, (३) दर्शन को प्राप्त करने में विघ्न-बाधा डालना अथवा अन्तराय उपस्थित करना, (४) दर्शन या दर्शनी की अवहेलना करना, (५) दर्शन या दर्शनी के वचनों में विसंवाद अथवा विरोध दिखाना । (३) वेदनीय कर्म यह कर्म जीव को सांसारिक सुख - दुःखों की अनुभूति कराता है । इस कर्म के क्षीण होने पर आत्मा का अनन्त सुख गुण प्रकट हो जाता है। इसका स्वभाव शहद से लिप्त तलवार या छुरी - जैसा है। इसके दो भेद हैं - एक सातावेदनीय कर्म और दूसरा असातावेदनीय कर्म । पहले प्रकार के कर्म से जीवों को अनुकूल . संयोगों की प्राप्ति होती है जिससे उसे शारीरिक-मानसिक सुख की अनुभूति होती है जबकि दूसरे प्रकार के कर्म से प्रतिकूल संयोगों की प्राप्ति होती है जिससे जीव को मानसिक-शारीरिक दुःख - संक्लेश का अनुभव होता है। इस कर्मबंध Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ६४ * दसवाँ बोल : कर्म आठ के दो प्रकार के कारण हैं-एक सातावेदनीय कर्मबंध का कारण और दूसरा असातावेदनीय कर्मबंध का कारण। पहले प्रकार के कारण इस प्रकार से हैं (१) सभी जीवों को अपनी असत् प्रवृत्ति से दुःखं न पहुँचाना, (२) सभी जीवों को हीन न मानना, (३) सभी जीवों के शरीर को हानि पहुँचाने वाले शोक आदि पैदा न करना, (४) सभी जीवों को न सताना और न लाठी आदि से प्रहार करना, (५) सभी जीवों को परितापित न करना। इसी प्रकार उपर्युक्त पाँच बातों को करने से असातावेदनीय कर्म के बंध का कारण माना गया है। (४) मोहनीय कर्म ___ यह आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात करता है। इस कर्म के क्षय से परिपूर्ण सम्यक्त्व और चारित्र का उदय होता है। इसका स्वभाव मदिरा-जैसा है। इससे जीवों का तत्त्वों के प्रति श्रद्धान विपरीत होता है और जीव विषयभोगों में ही रमा रहता है। यह दो प्रकार का होता है-एक दर्शनमोहनीय और दूसरा चारित्रमोहनीय। दर्शनमोह आत्मा के श्रद्धान गुण का एवं चारित्रमोह चारित्र गुण का घात करता है। इन दोनों के भी अनेक भेद-प्रभेद हैं जिनमें दर्शनमोह के तीन और चारित्रमोह के नौ भेद हैं। इस प्रकार मोहनीय कर्म के कुल मिलाकर अट्ठाईस भेद हैं। इस कर्मबंध के अनेक कारण हैं (१) तीव्र क्रोध, (२) तीव्र मान, (३) तीव्र माया, (४) तीव्र लोभ, (५) तीव्र दर्शनमोह, (६) तीव्र चारित्रमोह, (७) तीव्र मिथ्यात्व। इसके साथ-साथ 'नोकषाय' (कषाय नहीं किन्तु कषाय में वृद्धि करने वाले) भी मोहनीय कर्म के कारण माने गये हैं। यथा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ६५ * (१) हास्य, (२) रति, (३) अरति, (४) शोक, (५) भय, (६) जुगुप्सा, (७) स्त्रीवेद, (८) पुरुषवेद, (९) नपुंसकवेद। (५) आयुष्य कर्म - यह कर्म जीव को किसी एक पर्याय में रोके रखता है। इस कर्म के कारण ही जीव भव धारण करता है। इस कर्म के क्षय से अजरता-अमरता की अनन्तकालीन स्थिति प्राप्त होती है। इस कर्म की तुलना बन्दीगृह या कारागार से की गई है। इस कर्म के चार भेद हैं (१) नरकायु, (२) तिर्यञ्चायु, (३) मनुष्यायु, (४) देवायु। - प्रत्येक आयु के चार कारण निम्न प्रकार हैंनरकायुबंध के कारण (१) महारम्भ, (२) महापरिग्रह, (३) पंचेन्द्रिय वध, (४) माँस-मदिरा सेवन। तिर्यवायुबंध के कारण (१) मायाचारी करना, (२) गूढ कपट करना, यानी एक कपट को ढकने के लिए दूसरा छल करना, Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : दसवाँ बोल : कर्म आठ (३) असत्य वचन बोलना, (४) कूट तोल - माप करना । मनुष्यायुबंध के कारण (१) भद्र व सरल प्रकृति का होना, (२) विनीत स्वभावी होना, (३) दयालु होना, (४) ईर्ष्या - द्वेष न करना तथा मरते समय संक्लेश परिणामी न होना । वायुबंध के कारण ( 9 ) सरागसंयमी होना, (२) संयमासंयमी होना, (३) बालतपस्वी होना अर्थात् तप का आश्रय मिथ्यात्व हो, (४) अकामनिर्जरा करना । (६) नाम कर्म यह कर्म जीव के विभिन्न प्रकार की गति, जाति, शारीरिक संरचना आदि का कारण है । इस कर्म के उदय से ही जीव को शरीर मिलता है और इसके क्षय से आत्मा का अमूर्त्तत्त्व गुण प्रकट होता है । इस कर्म की तुलना चित्रकार से की गई है। नाम कर्म के मुख्य रूप से बयालीस भेद हैं तथा इसके उपभेद कुल मिलाकर तिरानवें हो जाते हैं। शुभ - अशुभ की अपेक्षा से नाम कर्म के दो भेद हैं- एक शुभ नाम कर्म और दूसरा अशुभ नाम कर्म । शुभ नाम कर्म के चार कारण हैं (१) दूसरों को ठगने वाली शारीरिक चेष्टा न करना, (२) दूसरों को ठगने वाली मानसिक चेष्टा न करना, (३) दूसरों को ठगने वाली वचन की चेष्टा न करना, (४) कथनी-करनी में विसंवाद न करना । इन सभी कार्यों को करना अशुभ नाम बंध के कारण हैं। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ६७ (७) गोत्र कर्म इस कर्म के उदय से जीव में पूज्यता - अपूज्यता के भाव आते हैं। ऊँच या नीच कुल 'में जन्म लेना इसी गोत्र कर्म के कारण होता है। इस कर्म के क्षय से जीव में अगुरु - लघुत्व गुण प्रकट होता है। इस कर्म का स्वभाव कुम्भकार के समान है। इसके दो भेद हैं - एक उच्च गोत्र और दूसरा नीच गोत्र । जहाँ आचरण तथा व्यवहार अहिंसा, सत्य, कुलीनता और शिष्टता आदि से ओतप्रोत हो, वहाँ उच्च गोत्र और इसके विपरीत स्थिति वाला आचरण व व्यवहार नीच गोत्र है । उच्च गोत्र बंध के कारण हैं - (१) जाति, (२) कुल, (३) बल, (४) रूप, (५) तप, (६) श्रुत (ज्ञान), (७) लाभ, (८) ऐश्वर्य आदि का अहंकार न करना और इसकी विपरीत स्थिति में नीच गोत्र बंध बँधता है अर्थात् जाति कुल आदि का अहंकार करना । (८) अन्तराय कर्म यह जीव की वीर्य शक्ति का घात करता है । यह दान, लाभ, भोग आदि के उत्साह में बाधक बनता है । आत्मा के लब्धि गुण को यह कर्म रोकता है। इसके क्षय से अनन्त शक्ति व विपुल लाभ की प्राप्ति होती है। इस कर्म का स्वभाव कोषाध्यक्ष या भण्डारी के समान है। इसके पाँच भेद हैं - (१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय, (५) वीर्यान्तराय । अन्तराय कर्म के पाँच कारण माने गए हैं (१) दान में बाधा उत्पन्न करना, (२) लाभ में रोड़ा अटकाना, (३) भोग में व्यवधान डालना, (४) उपभोग में रुकावट पैदा करना, (५) वीर्य, यानी उत्साह या सामर्थ्य में अवरोध उत्पन्न करना । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *६८ * दसवाँ बोल : कर्म आठ आठों कर्मों की स्थिति (Duration—ड्यूरेशन) के विषय में उल्लेख है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस क्रोड़ा-क्रोड़ी सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। इसी प्रकार मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर क्रोड़ा-क्रोड़ी सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस क्रोड़ा-क्रोड़ी सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस क्रोड़ा-क्रोड़ी सागर और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की होती है। जैनदर्शन में कर्म व्यवस्था के अन्तर्गत कर्म की दशाओं का भी उल्लेख हुआ है। ये दशाएँ मुख्य रूप से दस हैं- . (१) बन्ध-आत्म-प्रदेशों के साथ कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध होना। दूध-पानी की तरह एकाकार हो जाना। प्रकृति (स्वभाव), स्थिति (समय या काल मर्यादा), अनुभाग (रस की तीव्रता-अल्पता) और प्रदेश (कर्म पुद्गल शक्ति का स्वभावानुसार अमुक-अमुक परिमाण में बँट जाना) बंध के चार भेद हैं। (२) उद्वर्तन-कर्मों की स्थिति और रस में वृद्धि होना। . (३) अपवर्तना-कर्मों की स्थिति तथा रस में हानि होना। (४) सत्ता-बंध के बाद कर्म जब तक उदय में नहीं आकर अस्तित्व में रहते (५) उदय-कर्म का शुभ या अशुभ फल रूप में उदय में आना। (६) उदीरणा-उदयकाल से पहले ही प्रयत्न करके कर्मों को भोग लेना। (७) संक्रमण-एक कर्म प्रकृति का दूसरी सजातीय कर्म प्रकृति में परिवर्तित होना आयुष्य कर्म का संक्रमण नहीं होता है। (८) उपशम-मोह कर्म की अनुदय अवस्था। (९) निधत्ति-जिसमें उद्वर्तन अपवर्तन के सिवाय संक्रमण आदि नहीं हैं। (१०) निकाचना-जिन कर्मों का फल निश्चित स्थिति और अनुभाग के आधार पर भीगे बिना छुटकारा ही नहीं हो वे निकाचित कर्म कहलाते हैं। (आधार : प्रज्ञापना पद २३) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ६९ * प्रश्नावली १. कर्म से क्या तात्पर्य है? इसके स्वरूप पर संक्षेप में प्रकाश डालिए। २. कौन-कौन-से कर्म घाति हैं और कौन-से अघाति हैं? विवेचन कीजिए। ३. ज्ञानावरणीय कर्म और दर्शनावरणीय कर्म के कारणों का उल्लेख करते हुए उनके अन्तर को स्पष्ट कीजिए। ४. कर्म की कितनी दशाएँ हैं? प्रत्येक दशा का नामोल्लेख कीजिए। ५. कर्मक्षय से जीव को क्या लाभ है? ६. मूल कर्म-प्रकृतियों का स्वभाव क्या है? संक्षेप में समझाइए। ७. आठों कर्म की स्थितियों का वर्णन कीजिए। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ बोल :गुणस्थान चौदह (आत्म-विकास की चौदह भूमिकाओं का विवरण) (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, (२) सास्वादन सम्यक् दृष्टि गुणस्थान, (३) सम्यक् मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान, (४) अविरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थान, (५) देशविरत गुणस्थान, (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान, (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, (८) निवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थान, (९) अनिवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थान, (१०) सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान, (११) उपशान्तमोह गुणस्थान, (१२) क्षीणमोह गुणस्थान, (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान, (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान। विकासशील होना प्रत्येक जीव का लक्षण है। जब तक जीवन है तब तक प्रत्येक जीव अपना विकास करता है। उसके विकास के मुख्यतः तीन रूप हैंएक शारीरिक विकास, जिसमें शरीर सम्बन्धी विकास होता है; दूसरा मानसिक विकास, जिसमें मन का विकास होता है और तीसरा आध्यात्मिक विकास, जिसमें आत्मा का विकास होता है। आध्यात्मिक विकास का एक क्रम है। इस क्रम को गुणस्थान या जीवस्थान कहते हैं। यहाँ स्थान का तात्पर्य विकास से है। यानी आत्मिक गुणों का विकास या आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्थाएँ गुणस्थान (Stages of Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ७१ * - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - spiritual development स्टेज्स ऑफ स्प्रिच्युअल डिवैलपमेण्ट) कहलाती हैं। जीवों में आत्मिक परिणाम सदा एक से नहीं रहते हैं। वे निरन्तर उत्कर्ष और अपकर्ष को प्राप्त होते रहते हैं। जीव में जितना मोह-मिथ्यात्व व कषाय-योग होगा उतना ही उसके परिणाम मलिन होंगे और जितने ये कम होंगे उतने ही उसके परिणाम निर्मल व विशुद्ध होंगे। इस प्रकार गुणस्थान/जीवस्थान प्रत्येक जीव को अशुद्ध से शुद्ध, मोह से निर्मोह, संसार से मोक्ष, बंध से निर्बन्ध की स्थिति या अवस्था में पहुँचाने का साधन हैं, सोपान हैं। ये गुणस्थान प्रत्येक जीव को उसकी आध्यात्मिक स्थिति या अवस्था का अवबोध कराते हैं। जीव ज्यों-ज्यों दर्शन, ज्ञान, चारित्र में उन्नति करता जाता है त्यों-त्यों वह एक के बाद दूसरा, तीसरा और इस तरह क्रमशः गुणस्थानों पर चढ़ता जाता है। इस प्रकार गुणस्थान आत्मा के विकास और मोह की तरतमता का दिग्दर्शक है। इन गुणस्थानों का आधार क्या है ? इसके लिए कहा गया है कि आत्मा पाँच प्रकार के आवरणों-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय, (५) योग-से आच्छादित है, इनके हटते ही आत्मा की विशुद्धावस्था प्रकट हो जाती है। इसी विशुद्धि का नाम गुणस्थान है। पहला आवरण आत्मा के श्रद्धान गुण को आच्छादित कर बुद्धि को विपरीत बनाता है, दूसरा आवरण आत्मा को आसक्ति-तृष्णा के जाल में फाँसता है, तीसरा आवरण आत्मा को प्रमादी बनाता है, चौथा आवरण आत्मा में कषायों की अग्नि को प्रज्वलित करता है और पाँचवाँ आवरण आत्मा को चंचल बनाता है। इन पाँचों आवरणों का जो लेपन होता है वह है मोहनीय कर्म। इस प्रकार इन पाँचों आवरणों और मोहनीय कर्म की तीव्रता और मन्दता के आधार पर जीव की चौदह अवस्थाओं या चौदह गुणस्थानों का निर्माण होता है। __जैनदर्शन में मार्गणा स्थान और गुणस्थानों के बीच जो अन्तर है उसको भी स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि एक समय में एक जीव किसी एक ही गुणस्थान में रह सकता है जबकि एक समय में एक जीव कई मार्गणा स्थानों में रह सकता है क्योंकि मार्गणा स्थान जीव की केवल अवस्थिति को बताते हैं जबकि गुणस्थान जीव के आध्यात्मिक विकास की अवस्थाएँ हैं। ___ गुणस्थान चौदह प्रकार के कहे गए हैं। इनमें पहला है मिथ्यात्व गुणस्थान और अन्तिम है अयोगीकेवली गुणस्थान। पहले वाला जीव मोह-प्रधान होता Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ७२ * ग्यारहवाँ बोल : गुणस्थान चौदह - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - है। उसमें आत्मिक शक्तियों का प्रकाश अत्यन्त मंद होता है किन्तु ज्यों-ज्यों उसमें मोह कम होता जाता है त्यों-त्यों उसमें व्याप्त आत्मिक शक्तियाँ प्रकाशित होती जाती हैं और चौदहवें गुणस्थान तक आते-आते जीव मोह से पूर्ण मुक्त होता हुआ क्षायिक सम्यक्त्व को धारण कर परम विशुद्ध हो जाता है, यानी आत्मा से परमात्मा बन जाता है। इस प्रकार जीव का पहला गुणस्थान या पहली अवस्था आत्मिक गुणों की अपेक्षा से निकृष्टतम है और अन्तिम अवस्था है उत्कृष्टतम। चौदह गुणस्थानों का क्रमशः वर्णन इस प्रकार है(१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ___यह जीव का पहला गुणस्थान है। इसमें जीव का श्रद्धान-विश्वास विपरीत होता है। जिस प्रकार पित्त ज्वर वाले रोगी को मीठा अच्छा नहीं लगता है उसी प्रकार इस स्थान वाले जीव को तत्त्वों के प्रति अरुचि होती है। इस स्थान के जीव अज्ञानी, असत्यवादी, अंध-विश्वासी, मिथ्यात्व को पूजने वाले, मोहग्रन्थि से जकड़े हुए विषय-कषायों में ही लिप्त रहते हुए अनन्त आध्यात्मिक सुख से वञ्चित रहते हैं। संसार के अधिकांश जीव इसी अवस्था में अपना जीवन यापन करते हैं। (२) सास्वादन सम्यक् दृष्टि गुणस्थान यह जीव का दूसरा गुणस्थान है। इसमें अनन्तानुबंधी कषाय का उदय रहता है जिसके कारण जीव सम्यक्त्व से विमुख रहता हुआ मिथ्यात्व की ओर झुका होता है। इसमें सम्यक्त्व का अंश किंचित् मात्र ही रहता है। इस गुणस्थान का काल छह आवलिका और सात समय मात्र है। इसके बाद जीव निश्चित रूप से पहले गुणस्थान में पहुँच जाता है। (३) सम्यक् मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान ___ यह तीसरा गुणस्थान है। इसमें जीव को सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिलाजुला स्वाद रहता है। इसमें जीव के परिणाम मिश्र (शुद्ध-अशुद्ध) होते हैं। इसमें जीवों की दृष्टि तत्त्वों के प्रति पूर्णतः मिथ्या नहीं होती अपितु संदिग्ध होती है। (४) अविरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थान यह चौथा गुणस्थान है। इसमें जीव की श्रद्धा शुद्ध अर्थात् सम्यक्त्व से अनुप्राणित रहती है। सच्चे देव, गुरु, धर्म पर आस्था बनी रहती है किन्तु आचरण Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ७३ त्यागरूप नहीं होता। व्रत, त्यागरहित सम्यक्त्व बोध की यह अवस्था है। अन्य दर्शनों में इस अवस्था को आत्म-दर्शन या आत्म-साक्षात्कार कहते हैं । (५) देशविरत गुणस्थान यह पाँचवाँ गुणस्थान है । इस स्थिति में जीव श्रावक व्रतों का पालन तो करता है किन्तु उसकी विरति आंशिक होती है अर्थात् उसका त्याग पूर्ण नहीं होता है अपितु देशरूप में या अंशरूप में होता है। इसे देशव्रती, संयतासंयती, व्रताव्रती और धर्माधर्मी भी कहते हैं। इस स्थान में ६७ प्रकार की कर्म - प्रकृतियाँ बँधती हैं जबकि चतुर्थ गुणस्थान में ७७ कर्म - प्रकृतियाँ बँधती हैं। (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान यह छठा गुणस्थान है। यहाँ से साधु जीवन की अवस्थाएँ प्रारम्भ होती हैं। यहाँ से आगे के सभी गुणस्थान मनुष्यों को ही होते हैं । यद्यपि इस अवस्था के साधक का चारित्र पूर्ण विशुद्ध होता है फिर भी प्रमाद की सत्ता यहाँ बनी रहती है। इसमें तिरेसठ कर्म - प्रकृतियों का बंध होता है । ' (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान यह सातवाँ गुणस्थान है । इसमें प्रमाद का भी अभाव हो जाता है। यह अवस्था छंठी अवस्था से भी अधिक विशुद्ध है । साधुजन इस अवस्था में आकर ज्ञान, ध्यान, तप में लीन रहते हैं । (८) निवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थान यह आठवाँ गुणस्थान है। इसमें स्थूलकषाय की निवृत्ति होती है अर्थात् कषाय थोड़े रूप में उपशान्त या क्षीण होता है । इसमें कषाय का संज्वलन रूप बना रहता है । यहीं से श्रेणी - आरोहण होता है। श्रेणी दो प्रकार की हैं - एक क्षपक श्रेणी और दूसरी उपशम श्रेणी । ( ९ ) अनिवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थान यह नवाँ गुणस्थान है। इसमें स्थूलकषायों की निवृत्ति की मात्रा बहुत बढ़ 'जाती है अर्थात् इसमें कषाय थोड़ी मात्रा में रहता है। आठवें और नवें गुणस्थान में अन्तर यह है कि इस अवस्था में आत्मा कषाय से प्रायः निवृत्त हो जाता है। १. कर्म प्रकृतियों के लिए देखिए दूसरा कर्म ग्रंथ सुखलाल संघवी । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ७४ * ग्यारहवाँ बोल : गुणस्थान चौदह आठवें में कषाय की निवृत्ति थोड़ी मात्रा में रहती है जबकि नवें में कषाय थोड़ी मात्रा में शेष रहता है। इसलिए इसे अनिवृत्ति बादर कहा गया है। आठवें गुणस्थान का नाम कषाय निवृत्त होने के आधार पर रखा गया है जबकि नवें का नाम कषाय निवृत्त न होने के आधार पर रखा गया है। (१०) सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान ___ यह दसवाँ गुणस्थान है। इसमें संज्वलन प्रकृति का लोभ कषाय सूक्ष्म अंश में रहता है। इस अवस्था में क्रोध, मान, माया; ये तीन कषाय उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं। केवल लोभ कषाय अंश मात्रा में शेष रह जाता है। (११) उपशान्तमोह गुणस्थान यह ग्यारहवाँ गुणस्थान है। इसमें कषाय पूर्ण रूप से उपशान्त हो जाते हैं। यद्यपि वे सत्ता में रहते हैं किन्तु उदय में नहीं आते हैं। इसमें मोह अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशान्त हो जाता है। पूर्ण रूप से क्षय नहीं होता है। गुणस्थान का समय पूरा होते ही उपशान्त मोहनीय कर्म उदय में आने से जीव पतित होकर नीचे के गुणस्थानों में पहुँच जाता है। यदि इस गुणस्थान में साधक का आयु क्षय होता है तो वह साधक सर्वार्थसिद्ध विमान में देव बनता है। (१२) क्षीणमोह गुणस्थान यह बारहवाँ गुणस्थान है। इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म का सम्पूर्ण रूप से क्षय हो जाता है, यानी लोभकषाय का संज्वलन रूप भी मिट जाता है। इस अवस्था में आत्मा पूर्ण वीतरागी हो जाती है। (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान यह तेरहवाँ गुणस्थान है। यहाँ तक आते-आते साधक के चारों घाति कर्मों का सम्पूर्ण क्षय हो जाता है। साधक के अनन्त चतुष्टय प्रकट हो जाते हैं जिससे साधक तीनों लोक और तीनों काल का हस्तामलकवत् दर्शी व ज्ञानी होता है। साधक योग केवली व सर्वज्ञ बन जाता है। (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान यह चौदहवाँ गुणस्थान है। इस अवस्था में केवली भगवान योग का निरोध करके शैलेशी अवस्था प्राप्त कर अर्थात् मेरु पर्वत के समान निष्कम्प होकर अन्ततः मुक्त हो जाते हैं। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ७५ इस प्रकार आत्मा के इस विकास क्रम से एक बात स्पष्ट है कि जैनधर्म में कोई अनादि सिद्ध परमात्मा नहीं माना गया है। प्रत्येक जीव इन गुणस्थानों पर ऊपर चढ़ता हुआ अन्ततोगत्वा परमात्मा बन सकता है। पहले तीन गुणस्थानों में बहिरात्मा, चौथे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक अन्तरात्मा और तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानों में परमात्मा की स्थिति बतायी गई है। इन चौदह गुणस्थानों में पहला, चौथा, पाँचवाँ, छठा और तेरहवाँ गुणस्थान शाश्वत है अर्थात् लोक में सदा रहते हैं। चौथे गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान वाले जीवों में तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है। दसवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों में चौदह प्रकार के परीषहों का होना सम्भव माना गया है। यथा - क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, प्रज्ञा, अज्ञान, अलाभ, शय्या, वध, रोग, तृण स्पर्श और मल । पहले गुणस्थान वाले जीव अनन्तकाल तक संसार का परिभ्रमण करते हैं जबकि दूसरे का कालमान छह आवलिका सात समय, चौथे का तैंतीस सागर से कुछ अधिक, पाँचवें, छठे और तेरहवें का कुछ कम करोड़ पूर्व और चौदहवें का पाँच ह्रस्वाक्षर - अ, इ, उ, ऋ, लृ-उच्चारण मात्र तथा शेष का अन्तर्मुहूर्त्त माना गया है। ग्यारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक जीवों में यथाख्यात चारित्र होता है । बारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव अप्रतिपाती माने गये हैं । ( आधार: समवायांग १४/५ ) प्रश्नावली १. गुणस्थान से क्या तात्पर्य है? इसके कितने प्रकार हैं? २. गुणस्थानों के निर्माण का आधार क्या है ? ३. गुणस्थानों के कालमान को बताइए । ४. मार्गणास्थान और गुणस्थान में क्या अन्तर है? स्पष्ट कीजिए । ५. पहले गुणस्थान और तीसरे गुणस्थान तथा आठवें व नवें गुणस्थानों के स्वरूप को समझाते हुए इनके अन्तर को बताइए | ६. पाँचवें और बारहवें गुणस्थानों की जानकारी दीजिए । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ७६ : ग्यारहवाँ बोल : गुणस्थान चौदह ➖➖➖➖➖➖➖➖➖ ---------- ७. निम्न को बताइए - (अ) पाँचवें और छठे गुणस्थानों में कर्मों की कितनी प्रकृतियाँ होती हैं ? (ब) किस गुणस्थान से श्रेणी आरोहण होता है ? (स) ग्यारहवें गुणस्थान का साधक आयु क्षय कर कहाँ जाता है ? (द) तीर्थंकर प्रकृति का बंध कितने गुणस्थान वाले जीवों में होता है ? (य) बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा की स्थिति वाले कौन-कौन-से गुणस्थान हैं? (र) ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक कौन - सा चारित्र होता है ? (ल) दसवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीवों में कितने परीषह हो सकते हैं? Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ बोल : पाँच इन्द्रियों के तेईस विषय (इन्द्रियों के विषय और उनका स्वरूप) श्रोत्रेन्द्रिय के तीन विषय- . (१) जीव शब्द, (२) अजीव शब्द, (३) मिश्र शब्द। चक्षुरिन्द्रिय के पाँच विषय (१) कृष्ण वर्ण, (२) नील वर्ण, . (३) रक्त वर्ण, . (४) पीत वर्ण, (५) श्वेत वर्ण। घ्राणेन्द्रिय के दो विषय (१) सुगन्ध, (२) दुर्गन्ध। रसनेन्द्रिय के पाँच विषय (१) तिक्त रस, (२) कटु रस, (३) कषाय रस, (४) अम्ल रस, (५) मधुर रस। . स्पर्शनेन्द्रिय के आठ विषय (१) कर्कश स्पर्श, (२) मृदु स्पर्श, Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ७८ ÷ बारहवाँ बोल : पाँच इन्द्रियों के तेईस विषय (३) लघु स्पर्श, (४) गुरु स्पर्श, (५) शीत स्पर्श, (६) उष्ण स्पर्श, (७) स्निग्ध स्पर्श, (८) रूक्ष स्पर्श । ➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖-------------- जगत् के समस्त पदार्थ दो भागों में विभक्त हैं - एक मूर्त पदार्थ और दूसरे अमूर्त पदार्थ | जिनमें वर्ण, गंध, रस व स्पर्श आदि हों वे पदार्थ मूर्त्त हैं और जिनमें इनका अभाव हो वे अमूर्त पदार्थ हैं। आत्मा अमूर्त पदार्थ है क्योंकि वह वर्णहीन, गन्धहीन, रसहीन व स्पर्शनहीन आदि होता है। मूर्त्त पदार्थों का सम्बन्ध इन्द्रियों से रहता है क्योंकि ये पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ही ग्राह्य हैं, इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञेय हैं । इन्द्रियाँ पाँच हैं (१) श्रोत्रेन्द्रिय. (२) चक्षुरिन्द्रिय, (३) घ्राणेन्द्रिय. (४) रसनेन्द्रिय, (५) स्पर्शनेन्द्रिय । पाँचों इन्द्रियों के धारक जीव सकलेन्द्रिय/समनस्क - अमनस्क होते हैं। इन्द्रियों की अपेक्षा से ये पूर्ण विकसित जीव हैं। कम इन्द्रियों वाले जीव विकलेन्द्रिय तथा अविकसित कहलाते हैं । प्रत्येक इन्द्रिय का अपना एक विषय होता है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है, उसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय का विषय वर्ण है, घ्राणेन्द्रिय का गंध, रसनेन्द्रिय का रस तथा स्पर्शनेन्द्रिय का स्पर्श है। ये पाँचों विषय जो अलग-अलग दर्शाए गये हैं, यथार्थतः ये एक ही द्रव्य के भिन्न-भिन्न अंश या पर्याय हैं। अर्थात् पाँचों इन्द्रियों के ये पाँच विषय अलग-अलग वस्तु न होकर एक ही मूर्त्त द्रव्य के पर्याय हैं। जैसे एक लड्डू है। इस लड्डू को भिन्न-भिन्न रूपों से पाँचों इन्द्रियाँ जानती हैं। अंगुली छूकर उसके शीत-उष्ण आदि स्पर्श का ज्ञान करा सकती है। जीभ चखकर उसके खट्टे-मीठे आदि रसों का, नाक सूँघकर Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ७९ * उसकी गंध का, आँख देखकर उसके रंग का, कान शब्दों के माध्यम से उसकी अवधि आदि का बोध कराते हैं। इस प्रकार इस एक लड्डू में उक्त पाँचों विषयों का स्थान अलग-अलग नहीं है अपितु ये सभी उसके सब भागों में एक साथ रहते हैं। क्योंकि ये सभी एक ही द्रव्य की अविभाज्य पर्याय हैं। इनका विभाजन केवल बुद्धि के द्वारा ही सम्भव है जो इन्द्रियों से होता है। इन्द्रियाँ अपने ग्राह्य विषय के अतिरिक्त अन्य विषय को जानने में सर्वथा असमर्थ व असक्षम हैं। इस प्रकार पाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय पृथक्-पृथक् हैं। ये पाँचों जब सहचरित हैं तब किन्हीं-किन्हीं पदार्थों में इन पाँचों विषयों की जानकारी नहीं हो पाती, केवल एक-दो का ही ज्ञान हो पाता है, ऐसा क्यों है? जैसे सूर्य आदि की प्रभा का रूप तो अनुभव होता है पर स्पर्श, गंध, रस आदि नहीं। इसी प्रकार पुष्पादि से अमिश्रित वायु का स्पर्श मालूम पड़ता है पर रस, गंध, वर्ण आदि नहीं। इसका समाधान यह है कि जगत् के प्रत्येक पदार्थ में स्पर्शादि ये सभी पर्याय होती हैं पर जो पर्याय उत्कट होती है वही इन्द्रियग्राह्य होती है। जगत् के प्रत्येक पदार्थ में पर्यायों की उत्कटता और अनुत्कटता एक-सी नहीं होती है अपितु भिन्न-भिन्न होती है। किसी पदार्थ में स्पर्श आदि पाँचों पर्याय उत्कटता के साथ अभिव्यक्त हैं और किसी में एक-दो आदि। शेष पर्याय अनुत्कट अवस्था में होने के कारण इन्द्रियग्राह्य नहीं हैं परन्तु ये सभी पर्याय होते अवश्य हैं। इन्द्रियग्राह्य शक्ति सभी जीवों में एक-सी नहीं होती है यहाँ तक कि एक ही जाति से सम्बन्ध रखने वाले सभी जीवों में इन्द्रियग्राह्य शक्ति विविध प्रकार की देखी जा सकती है अस्तु स्पर्श आदि की उत्कटता और अनुत्कटता इन्द्रियग्राह्य शक्ति की तरतमता पर निर्भर करती है। संसार के सभी पौद्गलिक या मूर्त पदार्थ इन्द्रियगम्य हों या इन्द्रियों द्वारा जाने जा सकते हों, ऐसा कोई जरूरी नहीं है। जैसे परमाणु एक मूर्त पदार्थ है तो इसे इन्द्रियगम्य होना चाहिए पर परमाणु इन्द्रियगम्य नहीं है। अनन्त परमाणु मिलकर एक स्कन्ध का रूप धारण करते हैं तो भी जब तक सूक्ष्म परिणाम की निवृत्ति और स्थूल परिणाम की प्राप्ति नहीं होती, तब तक वह भी इन्द्रिय द्वारा नहीं जाना जा सकता है। जितने भी पदार्थ दिखाई देते हैं वे सब मूर्त और अनन्त प्रदेशी स्कन्ध हैं। सूक्ष्मातिसूक्ष्म यंत्रों से जो दिखाई देते हैं, वे भी अनन्त प्रदेशी स्कन्ध हैं। परमाणु आदि प्रत्यक्ष ज्ञान के बिना दिखाई नहीं दे सकते। शब्द आदि जितने भी इन्द्रिय विषय हैं वे सभी अनन्त प्रदेशी स्कन्ध हैं। अतः इन्द्रियों द्वारा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ८० * बारहवाँ बोल : पाँच इन्द्रियों के तेईस विषय ही जाने जा सकते हैं। स्थूल परिणाम वाले पुद्गल-स्कन्ध इन्द्रिय द्वारा जाने जाते हैं, सूक्ष्म परिणाम वाले नहीं। यदि ऐसा मान लिया जाये तो जो स्थूल हैं वे आँखों से दिखाई देते हैं और जो सूक्ष्म हैं वे यन्त्रों के माध्यम से दिखाई देते हैं पर यथार्थतः ऐसा है नहीं। दृष्टि में आने वाले सभी पदार्थ चाहे वे आँखों से दिखाई दें अथवा यन्त्रों आदि बाह्य साधनों से दिखाई दें, वे सब स्थूल की कोटि में आते हैं। यदि यह स्थूल है तो फिर पर्याप्त सहयोग के बिना दीखता क्यों नहीं? इसका भी समाधान यही है कि जब तक इन्द्रिय को बाह्य सामग्री की पूर्णता प्राप्त नहीं होती तब तक वह अपने विषय को पूरी तरह से नहीं जान सकती। पाँचों इन्द्रियों के पाँचों विषयों के कुल तेईस प्रकार हैं। 'शब्द' श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है। शब्द के परमाणु सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। इसका जन्म अनन्तानन्त पुद्गल स्कन्धों से होता है। इसके जन्म के दो कारण हैं-एक संघात और दूसरा भेद। शब्द के तीन प्रकार हैं (१) जीव शब्द (सचित्त शब्द), (२) अजीव शब्द (अचित्त शब्द), (३) मिश्र शब्द। जीवों द्वारा बोले जाने वाले शब्द सचित्त या जीव शब्द कहलाते हैं, जैसेमनुष्य, पशु-पक्षी के शब्द। अजीव शब्द जड़ पदार्थों से निःसृत होते हैं, जैसेटूटती हुई लकड़ी का शब्द। मिश्र शब्द सचित्त और अचित्त शब्दों के संयोग से होता है, जैसे-बाजे-बाँसुरी का शब्द। दूसरा विषय है वर्ण या रूप। यह चक्षुरिन्द्रिय का विषय है। वर्ण स्वयं पुद्गल नहीं है किन्तु पुद्गल का गुण है। यह पाँच प्रकार का है-(१) काला, (२) नीला, (३) पीला, (४) लाल, (५) श्वेत। शेष सब वर्ण रूप इन्हीं के सम्मिश्रण के परिणाम हैं। जैसे-काला वर्ण श्वेत वर्ण में मिला देने पर कापोत वर्ण हो जाता है। इसी तरह अनेक वर्ण उत्पन्न हो सकते हैं। __ तीसरा विषय है गंध। यह घ्राणेन्द्रिय का विषय है। नासिका बाह्य द्रव्येन्द्रिय के द्वारा सूंघने का अनुभव जीव को होता है। जीव को गंध का संवेदन घ्राण द्वारा ही सम्भव है। यदि नासिका के दोनों पुट बन्द कर दिये जायें तो गंध की अनुभूति नहीं हो सकती। गंध भी पौद्गलिक है। इसके दो भेद हैं-एक सुगन्ध और दूसरा दुर्गन्ध। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ८१ * - - - - - - - - - - - - - - - - - - - चौथा विषय है रस। यह रसनेन्द्रिय का विषय है। क्योंकि रस का संवेदन रसना से होता है। रसना या जीभ बाह्य द्रव्येन्द्रिय तरल पदार्थ या लार मिश्रित पदार्थ के सम्पर्क से जब उत्तेजित हो उठती है तब वह अपने ज्ञान तन्तुओं द्वारा जीव को रस संवेदना करती है। यह विषय भी पौद्गलिक है। यह पाँच प्रकार का है। यथा-(१) तिक्त या तीक्ष्ण, (२) कटु, (३) कषैला, (४) अम्ल, (५) मधुर। जैसे सौंठ आदि का रस तिक्त या तीक्ष्ण होता है वैसे नीम आदि का कटु, हरड़ आदि का कषैला, इमली आदि का अम्लीय तथा चीनी आदि का रस मधुर होता है। __ पाँचवाँ विषय है स्पर्श। यह स्पर्शनेन्द्रिय का विषय है एवं पौद्गलिक है। इसके आठ भेद हैं-(१) कर्कश, (२) मृदु, (३) लघु, (४) गुरु, (५) शीत, (६) उष्ण, (७) स्निग्ध, (८) रूक्ष। इनमें शीत, उष्ण, स्निग्ध व रूक्ष तो मूल हैं तथा कर्कश, मृदु, लघु व गुरु उनकी बहुलता से बनते हैं। जैसे रूक्ष की बहुलता से लघु, स्निग्ध की बहुलता से गुरु, शीत और स्निग्ध की बहुलता से मृदु तथा उष्ण और रूक्ष की बहुलता से कर्कश स्पर्श बनता है। बाद वाले आपेक्षिक होते हैं। उदाहरण के लिए, पत्थर गुरु है, दीपशिखा लघु, हवा गुरु-लघु है और आकाश अगुरु-लघु है परन्तु निश्चय दृष्टि से न तो कोई पदार्थ या द्रव्य सर्वथा लघु है और न सर्वथा गुरु है। ___ उष्ण स्पर्श मृदुता व पाक करने वाला, शीत स्पर्श निर्मलता व स्तम्भित करने वाला होता है। स्निग्ध संयोग होने का और रूक्ष संयोग न होने का कारण है। लघु ऊर्ध्वगमन व तिर्यक् गमन का और गुरु अधोगमन का कारण है तथा मृदु नमन का और कर्कश अनमन का कारण है। ___ पाँचों इन्द्रियों के तेईस विषयों के कुल दो सौ चालीस विकारों का उल्लेख है, जिनमें श्रोत्रेन्द्रिय के तीन विषयों के बारह विकार हैं। छह विकार राग पर और छह द्वेष पर आधारित हैं। इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय के पाँच विषयों के साठ विकारों का उल्लेख है। यथा-काला आदि पाँच वर्ण होने से ये पाँच सचित्त, पाँच अचित्त और पाँच मिश्र। इस प्रकार पन्द्रह हुए। ये पन्द्रह शुभ और पन्द्रह ही अशुभ कुल तीस हुए। इन तीस पर राग और तीस पर द्वेष होने से कुल साठ विकार हुए। इसी प्रकार घ्राणेन्द्रिय के दो विषयों के बारह विकार, रसनेन्द्रिय के पाँच विषयों के साठ विकार, स्पर्शनेन्द्रिय के आठ विषयों के छियानवे विकारों का उल्लेख हुआ है। इस प्रकार इन पाँचों इन्द्रियों के तेईस Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ८२ * बारहवाँ बोल : पाँच इन्द्रियों के तेईस विषय विषयों के विकारों की संख्या कुल २४० है जिनमें श्रोत्रेन्द्रिय के विषयों के १२ विकार + चक्षुरिन्द्रिय के विषयों के ६० विकार + घ्राणेन्द्रिय के विषयों के १२ विकार + रसनेन्द्रिय के विषयों के ६० विकार + स्पर्शनेन्द्रिय के विषयों के ९६ विकार = कुल २४० विकार। (आधार : प्रज्ञापना पद २३) प्रश्नावली १. पाँचों इन्द्रियों के कुल कितने विषय हैं? ३. “पाँचों इन्द्रियों के विषय अलग-अलग वस्तु न होकर एक ही मूर्त द्रव्य के पर्याय हैं।" सोदाहरण स्पष्ट कीजिये। ३. संसार के समस्त पौद्गलिक या मूर्त पदार्थ क्या इन्द्रियगम्य हैं? समझाइए। ४. “पाँचों इन्द्रियों के पाँचों विषय जब सहचरित हैं तब किन्हीं पदार्थों में इन पाँचों की जानकारी नहीं हो पाती। केवल एक या दो का ही ज्ञान हो पाता है।" ऐसा क्यों? ५. स्पर्शनेन्द्रिय विषय के लक्षण को स्पष्ट करते हुए उसके भेदों-प्रभेदों का उल्लेख कीजिए। ६. पाँचों इन्द्रियों के तेईस विषयों के विकारों का उल्लेख कीजिए। ७. मूर्त और अमूर्त पदार्थों से क्या अभिप्राय है? इन्द्रियों का सम्बन्ध किन पदार्थों से रहता है? Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ बोल : दस प्रकार का मिथ्यात्व (मिथ्यात्व का दिग्दर्शन) (१) जीव को अजीव समझना, (२) अजीव को जीव समझना, (३) धर्म को अधर्म समझना, (४) अधर्म को धर्म समझना, (५) साधु को असाधु समझना, (६) असाधु को साधु समझना, (७) संसारमार्ग को मोक्षमार्ग समझना, (८) मोक्षमार्ग को संसारमार्ग समझना, (९) मुक्त को अमुक्त समझना, (१०) अमुक्त को मुक्त समझना। अध्यात्म की अपेक्षा से प्रत्येक जीव का यह लक्षण है कि वह या तो उत्कर्ष को प्राप्त होता है या फिर अपकर्ष की ओर उन्मुख होता है। जीव के आध्यात्मिक उत्कर्ष का प्रमुख कारण सम्यक्त्व को माना गया है जबकि उसके आध्यात्मिक पतन का आधार है मिथ्यात्व। सम्यक्त्व पथ पर सतत आरूढ़ साधक को शाश्वत सुख की प्रतीति होती है जबकि मिथ्यात्व का आश्रय लेने वाला जीव जगत् के अनन्त दुःखों को भोगता है। आध्यात्मिक सुख से वंचित रहता है। इन दुःखों के भोगने का मूल कारण मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व ही बन्ध का प्रमुख हेतु है। __ मिथ्यात्व का अर्थ है विपरीत विश्वास या श्रद्धान (Wrong faith or belief-ौंग फेथ और बिलीफ)। यानी जो बात जैसी है वैसी न मानना या विपरीत मानना मिथ्यात्व है। इस प्रकार मिथ्यात्व के दो रूप बनते हैं-एक पदार्थ के यथार्थ स्वरूप पर श्रद्धान न रखना और दूसरा पदार्थ के अयथार्थ स्वरूप पर श्रद्धान रखना। इन दोनों रूपों पर यदि विचार किया जाय तो ये दोनों एक ही हैं। एक नेगेटिव (Negative) है तो दूसरा पोजीटिव (Positive) है। क्योंकि यह तो तय है कि जिसको यथार्थ श्रद्धान नहीं होगा उसे अयथार्थ श्रद्धान तो होगा ही। पहले और दूसरे में इतना ही अन्तर है कि पहले में यथार्थ श्रद्धान का Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ८४ * तेरहवाँ बोल : दस प्रकार का मिथ्यात्व ------------------ अभाव है और दूसरे में अयथार्थ श्रद्धान है। पहला तो मूढ़ दशा में भी हो सकता है जबकि दूसरा विचार दशा में ही होता है। मूढ़ता की स्थिति में उसे तत्त्वों आदि का बोध ही नहीं है, इसलिए वहाँ श्रद्धान-अश्रद्धाने का प्रश्न ही नहीं है किन्तु विचार की शक्ति जब विकसित होती है और अभिनिवेश के कारण किसी एक दृष्टि या पक्ष को पकड़ लिया जाता है और कदाग्रहपूर्वक उस पर ही श्रद्धान रखा जाता है तो वह दृष्टि सर्वांगीण न होकर मिथ्यात्व से युक्त होती है। मिथ्यात्व सदा एकपक्षीय होता है। उसमें निष्पक्षता का अभाव होता है जबकि पदार्थ-स्वरूप की यथार्थता के लिए सर्वांगीण दृष्टिकोण का होना या निष्पक्षता का होना अनिवार्य है। मिथ्यात्व के कारण स्व-पर का भेदविज्ञान नहीं होता। पदार्थों के स्वरूप में संशय बना रहता है। यह सुख की हनि तो करता ही है साथ ही आत्म-स्वरूप की ओर रुचि भी नहीं होने देता। सत्य प्रतीति या सम्यक्त्व की प्राप्ति में मिथ्यात्व सबसे प्रबल अवरोधक है। आत्मा पर पड़ा मिथ्यात्व का आवरण जब तक हट नहीं जाता तब तक आत्मा कर्ममल से मुक्त नहीं हो सकती अर्थात् शुद्ध व निर्मल अवस्था में नहीं आ सकती। मिथ्यात्व के सन्दर्भ में कहा गया है कि मिथ्यात्वी भौतिक उन्नति चाहे कितनी भी कर ले किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से वह दरिद्र ही रहता है। जैसे शराबी को हित-अहित का ध्यान ही नहीं रहता, ठीक वैसे ही मोह की मदिरा से उन्मुक्त बने हुए मिथ्यात्वी को हित-अहित का ध्यान ही नहीं रहता है। मिथ्यात्वी धर्म-अधर्म, मार्ग-कुमार्ग, जीव-अजीव, साधु-असाधु, मुक्त-अमुक्त आदि के यथार्थ स्वरूप से अविज्ञ है। मिथ्यात्व के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए इसके अनेक भेद-प्रभेद हैं। कहीं पाँच तो कहीं दस, कहीं पच्चीस तो कहीं तीन सौ तिरेसठ भेदों आदि का उल्लेख है। .. प्रस्तुत बोल में मिथ्यात्व के दस भेदों का उल्लेख है। धर्म, मार्ग, जीव, साधु और मुक्त इन पाँच तत्त्वों के आधार पर ये दस भेद हैं। इन पंच तत्त्वों से अध्यात्म का प्रासाद (भवन) स्थिर व मजबूत रहता है जिसकी मूल भित्ति है जीव। जीव के अभ्युदय के साधन हैं धर्म और मार्ग। धर्म और मार्ग की विधिवत् शिखर तक साधना साधु अवस्था में ही सम्भव है इसलिए साधु अभ्युदय का कार्यक्षेत्र है और इस कार्यक्षेत्र अर्थात् साधना का अन्तिम लक्ष्य या फल-प्राप्ति मुक्ति (मोक्ष) है। इस प्रकार जीव मिथ्यात्व को मिटाकर सम्यक्त्व को जगाता हुआ धर्ममार्ग पर चलकर साधक बनकर अपनी साधना को अन्तिम और अभीष्ट लक्ष्य (मोक्ष) तक पहुँचता है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल + ८५ * मिथ्यात्व का पहला भेद है जीव को अजीव समझना। जीव को जीव और अजीव को अजीव जानना और मानना सम्यक्त्व है परन्तु जीव को अजीव समझना, उस पर श्रद्धान रखना मिथ्यात्व है। जैनदर्शन में जीव और अजीव के स्वरूपादि को बड़ी गहराई के साथ विभिन्न दृष्टिकोणों से समझाया गया है। क्योंकि इन दोनों तलों को समझे बिना इन पर श्रद्धान करना कैसे सम्भव है? जीव का प्रधान लक्षण है चेतना, जो जीव को अजीव से पृथक रखती है। यानी जिसमें चेतना हो वह जीव और जिसमें इसका अभाव हो वह अजीव है। यह सत्य जब अन्तरंग से अनुभूत हो उठता है तो कोई भी जीव को जीव और अजीव को अजीव ही मानेगा। जब तक यह प्रतीति नहीं होगी तब तक वह जीव को अजीव ही मानता रहेगा। उसका यह श्रद्धान या विश्वास जीव और अजीव के सन्दर्भ में मिथ्यात्व कहलायेगा। मिथ्यात्व का दूसरा भेद है अजीव को जीव समझना। यह नेगेटिव रूप है। यानी इसमें विचारणा शक्ति मिथ्यात्व का सहारा लेती है और श्रद्धान या विश्वास में विपरीतता लाती है। मिथ्यात्व के कारण जो मतिज्ञान आदि है, वह दुराग्रह से युक्त रहता है जिसके कारण पदार्थ में जो गुण है उसको न मानकर विपरीत गुण को ही महत्त्व देता है। ऐसा मिथ्यात्वी अजीव को अजीव नहीं मानता। वह तो अजीव में जीव की ही कल्पना करता है और उसी पर ही अपना श्रद्धान रखता है। __मिथ्यात्व का तीसरा और चौथा भेद है धर्म को अधर्म समझना और अधर्म को धर्म समझना। इसको समझने के लिए हमें धर्म के लक्षण-स्वरूप को पहले समझना होता है। धर्म का लक्षण है स्वभाव। आत्मा का स्वभाव है विकारों से ऊपर उठना अर्थात् कर्म कषायों से निरावृत्त होना। प्रत्येक संसारी आत्मा कर्मों के आवरणों से आच्छादित है। इनको हटाने के लिए दो उपाय या साधन बताये गये हैं-एक संवर और दूसरा निर्जरा। संवर के माध्यम से नवीन कर्मों को रोका जाता है और निर्जरा के माध्यम से पुराने-संचित कर्मों का नाश किया जाता है। इस प्रकार संवर-निर्जरा के द्वारा आत्मा को निर्मल व उज्ज्वल बनाया जाता है। संवर और निर्जरा के जितने भी साधन हैं, जैसे-संयम, तप, सुपात्र दान, ध्यान आदि सब धर्म के अंग हैं। धर्म के इस यथार्थ स्वरूप को या धर्म के मर्म को जब आत्मसात कर लिया जाता है तो धर्म को धर्म समझा जाता है। धर्म को अधर्म या अधर्म को धर्म नहीं माना जाता है। सम्यक्त्व प्रकाश में धर्म को धर्म और अधर्म को अधर्म समझा जाता है। किन्तु इसके अभाव में जीव धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म मानता है। उसका ऐसा मानना मिथ्यात्व है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ८६ * तेरहवाँ बोल : दस प्रकार का मिथ्यात्व - - - - - - - - - - - - - - - मिथ्यात्व का पाँचवाँ और छठा भेद है साधु को असाधु और असाधु को साधु समझना। साधु का लक्षण है जिनेन्द्र मार्ग पर चलने वाला साधक। ऐसा साधक व्रतों, समितियों व तीन गुप्तियों का पालक होता है। ऐसे साधुओं पर जो श्रद्धान रखता है, उन्हें नमन करता है वह सम्यक्त्वी होता है और इसके विपरीत लक्षणों से युक्त साधुओं पर जो श्रद्धान रखता है वह मिथ्यात्वी है। मिथ्यात्वी साधु को असाधु समझकर उसके साथ अशोभनीय व्यवहार करता है तथा असाधु को साधु मानकर उसे ही नमन व वन्दन करता है। मिथ्यात्व का सातवाँ और आठवाँ भेद है संसारमार्ग को मोक्षमार्ग समझना और मोक्षमार्ग को संसारमार्ग समझना। दो ही मार्ग हैं-एक संसार का मार्ग और दूसरा मोक्ष का मार्ग । पहला मार्ग भोग या विषय-वासनाओं का मार्ग है। इसमें जीव की समस्त चित्तवृत्तियाँ बहिर्मुखी होती हैं। संसार का मार्ग आवागमन का मार्ग है। कर्म-कषायों को प्रश्रय देने का मार्ग है जबकि मोक्षमार्ग आध्यात्मिक विकास का मार्ग है। इसके चार उपमार्ग हैं-एक ज्ञान, दूसरा दर्शन, तीसरा चारित्र और चौथा तप। इन चारों को मोक्षमार्ग न समझना और इससे भिन्न मार्ग को मोक्षमार्ग मानना मिथ्यात्व है। संसार का मार्ग कुमार्ग और मोक्ष का मार्ग सुमार्ग कहलाता है। इस प्रकार सुमार्ग को कुमार्ग और कुमार्ग को सुमार्ग समझना और मानना तथा उस पर चलना ये तीनों ही मिथ्यात्व हैं।। मिथ्यात्व का नवाँ और दसवाँ भेद है मुक्त को अमुक्त और अमुक्त को मुक्त समझना। मुक्त का अर्थ है कर्मों से रहित होना। प्रत्येक जीव संसार अवस्था में कर्मों से आबद्ध रहता है। ये कर्म मुख्यतः आठ हैं (१) ज्ञानावरणीय कर्म, (२) दर्शनावरणीय कर्म, (३) मोहनीय कर्म, (४) अन्तराय कर्म, (५) वेदनीय कर्म, (६) नाम कर्म, (७) गोत्र कर्म, (८) आयुष्य कर्म। संवर और निर्जरा द्वारा इन कर्मों से मुक्ति पाना मुक्त आत्मा का लक्षण है। इस प्रकार कर्मों से रहित आत्मा मुक्त और कर्म सहित आत्मा अमुक्त है। मुक्त Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ८७ * को अमुक्त और अमुक्त को मुक्त आत्मा समझना मिथ्यात्व है। इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि सिद्ध आत्माओं को बद्ध मानना और जो आत्माएँ सिद्ध नहीं हैं, जिन्होंने सिद्धत्व प्राप्त नहीं किया है, जो वीतरागी नहीं हैं उन्हें सिद्ध आत्माएँ मानना, उनकी पूजा-अर्चना करना, उनसे मनौती माँगना ये सब मिथ्यात्व है। __ जैनदर्शन का यह सर्वविदित सिद्धान्त है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मों का भोक्ता होता है और अपने ही कर्मों का कर्ता होता है। कोई परकीय शक्ति उसका न तो कुछ बिगाड़ सकती है और न बना सकती है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं परमात्मा बन सकता है। उसमें परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है। वह किसी अखण्ड सत्ता या शक्ति-विशेष का अंश नहीं होता है, वह अपने आप में पूर्ण व स्वतन्त्र होता है, ऐसी मान्यता पर श्रद्धान न कर परमात्मा से कुछ माँगना, मनौती मनाना आदि ये सब मिथ्यात्व का पोषण है। (आधार : स्थानांग १०) प्रश्नावली १. मिथ्यात्व किसे कहते हैं? समझाइए। २. मिथ्यात्व के कितने भेद हैं? इन भेदों का आधार क्या है? ३. मिथ्यात्व और सम्यक्त्व में क्या अन्तर है? ४. साधु का क्या लक्षण है? असाधु को साधु मानना मिथ्यात्व का कौन-सा भेद ५. मार्ग से क्या तात्पर्य है? मार्ग और कुमार्ग के अन्तर को स्पष्ट कीजिए। ६. आत्मा की मुक्ति होने में कौन-सी प्रधान बाधा है? उस बाधा के स्वरूप पर प्रकाश डालिए। ७. निम्न को बताइये (क) क्या परमात्मा से मनौती मनाना मिथ्यात्व है? (ख) कौन-सा धर्म धर्म है और कौन-सा अधर्म? (ग) जीव का प्रधान लक्षण क्या है? (घ) बन्ध का प्रमुख हेतु क्या है? Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवाँ बोल: नव तत्त्व के एक सौ पेन्द्रह भेद (नव तत्त्व के भेद-प्रभेद का विश्लेषण) (१) जीव तत्त्व के चौदह भेद, (२) अजीव तत्त्व के चौदह भेद, (३) पुण्य तत्त्व के नौ भेद, (४) पाप तत्त्व के अठारह भेद, (५) आस्रव के बीस भेद, (६) संवर के बीस भेद, (७) निर्जरा के बारह भेद, (८) बंध के चार भेद, (९) मोक्ष के चार भेद। तत्त्व (Element-एलीमेण्ट) का अर्थ है-पदार्थ का स्वरूप। जो पदार्थ सारभूत हो, जिसका वास्तविक अस्तित्व हो, वह तत्त्व कहलाता है। 'तत्त्व' शब्द में मूल शब्द है-तत् जिसका अर्थ है-वह। इस 'तत्' शब्द में 'त्व' प्रत्यय लगा हुआ है। 'त्व' का अर्थ है-'पना'। इस प्रकार पदार्थ का पदार्थपना ही उसका तत्त्व है, जैसे-जल का जलत्व, अग्नि का अग्नित्व, स्वर्ण का स्वर्णत्व, जीव का जीवत्व आदि। तत्त्व शब्द व्यापकता लिए हुए है। यह अपनी समस्त जाति में एक-सा ही रहता है, जैसे-स्वर्णत्व। यह सभी स्वर्ण जाति में एक-सा ही व्याप्त है भले ही स्वर्ण अलग-अलग हों। इसी प्रकार जीवत्व है। यह भी सभी जीवों में एक-सा ही व्याप्त है भले ही जीव अनेक हों। इसी प्रकार अजीव, आस्रव आदि तत्त्वों के विषय में भी जाना जा सकता है। जैनदर्शन में प्रत्येक पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए दो दृष्टियाँ बतायी गई हैं-एक द्रव्य, यानी सामान्य दृष्टि और दूसरी भाव (पर्याय), यानी विशिष्ट दृष्टि। प्रत्येक पदार्थ इन दोनों से समन्वित है। पदार्थ के यथार्थ स्वरूप की विधिवत् जानकारी के लिए जैनदर्शन का सामान्य-विशेष का सिद्धान्त सर्वव्यापी है। पाश्चात्य जगत् में इसे 'जनरल एण्ड स्पेशल थ्योरी' (G. S. Theory-जी. एस. थ्योरी) कहते हैं। यह सभी पदार्थों के जानने के लिए प्रयोग में लायी जाती है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ८९ * जैनदर्शन में तत्त्वों का विशिष्ट महत्त्व है । अन्य विषयों का ज्ञान हो अथवा न हो, तत्त्वों का ज्ञान व श्रद्धान होना परमावश्यक है। बिना तत्त्वों को जाने-समझे और उन पर श्रद्धान किए कोई भी जीव मुक्त नहीं हो सकता अर्थात् मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । तत्त्वों के नौ भेद हैं। संसार के जितने भी तत्त्व - पदार्थ हैं वे सब इन नौ तत्त्वों में ही अन्तर्निहित हैं । ये तत्त्व इस प्रकार हैं - (१) जीव, (२) अजीव, (३) पुण्य, (४) पाप, (५) आस्रव, (६) संवर, (७) निर्जरा, (८) बंध, (९) मोक्ष। इनमें जीव और अजीव ये ही दो तत्त्व प्रमुख हैं, शेष सात तो इनसे ही सम्बन्धित हैं और इन्हीं का ही विस्तार है। इनमें जीव चेतन है और अजीव अचेतन या जड़ है। पुण्य सुख की अनुभूति और पाप दुःख की अनुभूति कराता है। आस्रव शुभाशुभ कर्मों का आगमन द्वार है । संवर आस्रव का निरोध है । कर्मों का आत्मा से अलग होना निर्जरा है । बंध आत्मा और कर्म - पुद्गलों का एकमेव या सम्बद्ध हो जाना है और मोक्ष सम्पूर्ण कर्मों का क्षय है । इस प्रकार जीव और अजीव का मिलन संसार है । आस्रव और बन्ध संसार के कारण हैं। पुण्य और पाप संसार के सुख-दुःख का अनुभव कराते हैं। मोक्ष संसार से मुक्त होने की अवस्था है । संवर और निर्जरा मोक्ष के साधन हैं । इस प्रकार जीव और अजीव बंध ज्ञेय, यानी जानने योग्य तत्त्व हैं। पाप, आस्रव हेय, यानी छोड़ने योग्य तत्त्व हैं तथा पुण्य मोक्ष की दृष्टि से हेय किन्तु अशुभ से निवृत्ति के लिए उपादेय, यानी ग्रहण करने योग्य तत्त्व है। संवर, निर्जरा और मोक्ष ये तीनों तत्त्व उपादेय हैं। इस बोल में नव तत्त्वों के कुल एक सौ पन्द्रह भेद निरूपित हैं जिनका संक्षेप में वर्णन किया जा रहा है। (१) जीव तत्त्व ( Soul Element - सोल एलीमेण्ट ) इन्द्रियों के आधार पर जीवों को मुख्यतः पाँच भागों में बाँटा गया है। इनके भी जीवों के जन्म के समय मिलने वाली पौद्गलिक रचना, यानी पर्याप्ति की दृष्टि से भेद-प्रभेद कर जीव के कुल चौदह भेद किये गये हैं। पर्याप्ति की योग्यता समस्त जीवों में समान रूप से नहीं होती है । पर्याप्तियों के आहारादि छह भेद होते हैं। छह पर्याप्तियों में जिसकी जितनी पर्याप्ति होनी चाहिए और वे पूर्ण हों तो वे पर्याप्त जीव हैं और पूर्ण न हों तो वे अपर्याप्त जीव हैं। इसी प्रकार जिनके मन हो वे संज्ञी और जिनके मन न हो वे असंज्ञी जीव होते हैं । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ९० * चौदहवाँ बोल : नव तत्त्व के एक सौ पन्द्रह भेद सबसे पहले हम एकेन्द्रिय जीव को लेते हैं। एकेन्द्रिय जीव भी सूक्ष्म और स्थूल के आधार पर दो प्रकार के होते हैं-एक सूक्ष्म जीव जो आँखों से दिखाई नहीं देते हैं। सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। ये सूक्ष्म नाम कर्म के उदय वाले जीव हैं। दूसरे स्थूल जीव हैं, जिन्हें बादर एकेन्द्रिय जीव कहा जाता है। ये जीव समूह रूप में दिखाई पड़ते हैं। इनका अवगाहन लोक के एक देश में है। ये बादर नाम कर्म के उदय वाले जीव हैं। सूक्ष्म-स्थूल एकेन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त भेद से दो-दो प्रकार किये गये हैं जिन्हें निम्न चार्ट से समझ सकते हैं। यथा जीव तत्त्व . एकेन्द्रिय जीव द्वीन्द्रिय जीव त्रीन्द्रिय जीव चतुरिन्द्रिय जीव पंचेन्द्रिय जीव सूक्ष्म स्थूल पर्याप्त अपर्याप्त पर्याप्त अपर्याप्त पर्याप्त अपर्याप्त पर्याप्त अपर्याप्त संज्ञी (मन वाले) असंज्ञी (मन रहित) पर्याप्त अपर्याप्त पर्याप्त अपर्याप्त . पर्याप्त अपर्याप्त । (२) अजीव तत्त्व (Non-soul Element-नॉन-सोल एलीमेण्ट) अजीव तत्त्व के पाँच भेद और उत्तर चौदह भेद हैं। यथा(१) धर्मास्तिकाय (Fulcrum of motion-फलक्रम ऑफ मोशन), (२) अधर्मास्तिकाय (Fulcrum of rest-फलक्रम ऑफ रेस्ट), (३) आकाशास्तिकाय (Space element-स्पेश एलीमेण्ट), (४) काल (Time element-टाइम एलीमेण्ट), (५) पुद्गलास्तिकाय (Matter as substance element-मेटर एज ___सब्सटेन्स एलीमेण्ट)। इसमें एक शब्द जुड़ा है अस्तिकाय। इसका अर्थ है बहुप्रदेशीय अस्तित्व वाला तत्त्व। काल के साथ अस्तिकाय नहीं जुड़ा है। इससे यह प्रतीत होता है Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ९१ * - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - कि काल एक प्रदेशीय है। इसके अणु रत्नराशि के समान बिखरे, यानी अलग-अलग रहते हैं। काल का कोई भेद नहीं होता है न यह स्कन्ध रूप में और न देश-प्रदेश के रूप में विभक्त है। काल तो बस समय रूप है। ये समय असंख्य है और परस्पर असम्बद्ध है। शेष चारों अजीव तत्त्व स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु के आधार पर पुनः विभक्त किये गये हैं जिसमें स्कन्ध का अर्थ है अविभाज्य, जिसके खण्ड न हों। स्कन्ध अनन्त और विविध प्रकार के कहे गये हैं जैसे दो परमाणुओं का समूह द्विप्रदेशी स्कन्ध, तीन परमाणुओं का समूह त्रिप्रदेशी स्कन्ध, असंख्य परमाणुओं का समूह असंख्य प्रदेशी स्कन्ध। स्कन्ध के दो रूप हैं-एक स्वाभाविक स्कन्ध जिसमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय आते हैं। इनके विभाग नहीं होते हैं। दूसरे वैभाविक स्कन्ध। ये समुदित होते हैं और ये बिखर जाते हैं। देश का अर्थ है स्कन्ध का एक अंश, यानी स्कन्ध का एक कल्पित भाग। प्रदेश स्कन्ध का सर्व सूक्ष्म अंश होता है, यानी स्कन्ध का सूक्ष्म से सूक्ष्म विभाग प्रदेश कहलाता है। यह स्कन्ध का निरंश अंश है अर्थात् जिस अंश का दूसरा अंश न हो सके. वह प्रदेश है। परमाण एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श वाला होता है। दो स्पर्शों में एक स्पर्श तो शीत और उष्ण में से एक तथा दूसरा स्पर्श स्निग्ध और रूक्ष में से एक। प्रदेश और परमाणु एक ही हैं। बस, जब तक वह स्कन्ध से संलग्न है तब तक वह प्रदेश है और जब वह स्कन्ध से पृथक् हो जाता है तब वह परमाणु का रूप ले लेता है। प्रारम्भ के तीनों अस्तिकाय के स्कन्ध, देश व प्रदेश के रूप में तीन-तीन भेद किये गये हैं। केवल पुद्गलास्तिकाय, जिसमें वर्ण, गंध, रस व स्पर्श हैं, में परमाणु को और जोड़ दिया जाता है। प्रारम्भ के तीन मूलतः अखण्ड पदार्थ हैं, अनादि व अनन्त हैं। किन्हीं अवयवों से मिलकर नहीं बनते हैं। अतः इनके देश और प्रदेश मात्र बुद्धि परिकल्पित हैं, वास्तविक नहीं। इसलिए इन तीनों में परमाणु भेद नहीं माना गया है। दूसरी बात परमाणु वही प्रदेश होता है जो स्कन्ध से पृथक् हो जाता है और ये तीनों स्कन्ध से कभी पृथक् नहीं होते अतः परमाणु इनका भेद नहीं है। इस प्रकार अजीव तत्त्व के चौदह भेदों को निम्न तालिका से आसानी से समझा जा सकता है। यथा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ९२ : चौदहवाँ बोल : नव तत्त्व के एक सौ पन्द्रह भेद अजीव तत्त्व धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय स्कन्ध देश प्रदेश स्कन्ध देश प्रदेश स्कन्ध देश प्रदेश आकाशास्तिकाय काल पुद्गलास्तिकाय स्कन्ध देश प्रदेश परमाणु (३) पुण्य तत्त्व (Merit Element - मेरिट एलीमेण्ट ) शुभ कर्मों का उदय पुण्य है। शुभ कर्म जब फलित होते हैं तो वे पुण्य कहलाते हैं। पुण्य भोगते समय जीव को सुखानुभूति होती है किन्तु पुण्य को बाँधते समय जीव को कठिनाई होती है । आत्मा के विकास में पुण्य के निमित्त मिलने से यह पुण्य उपादेय है परन्तु साधना की उच्चतम अवस्था में यह पुण्य भी हेय है। इसके नौ भेद हैं- (१) अन्न पुण्य, (२) पान पुण्य, (३) लयन पुण्य, (४) शय्या पुण्य, (५) वस्त्र पुण्य, (६) मन पुण्य, (७) वचन पुण्य, (८) काय पुण्य, (९) नमस्कार पुण्य । पुण्य के ये नौ भेद वास्तव में भेद नहीं हैं अपितु पुण्य के कारण हैं । कारण भी उपादान नहीं है, निमित्त मात्र है जिनसे जीव पुण्य को बाँध सकता है। धार्मिक क्रिया के अभाव में पुण्य का उदय नहीं हो सकता। मन, वचन व काय से जीव जो शुभ प्रवृत्ति करता है वह उसकी धार्मिक क्रिया है। उससे आत्मा विशुद्ध बनती है लेकिन इसके साथ ही साथ शुभ कर्मों का संचय भी होता जाता है। शुभ कर्मों का संचय पुण्य बन्ध कहलाता है । जब यह शुभ कर्मों का संचय उदय में आता है और फल देता है तब वह पुण्य कहलाने लगता है। सामान्यतः शुभ योग की प्रवृत्ति को अर्थात् क्रिया को भी पुण्य मान लेते हैं। किन्तु क्रिया पुण्य का कारण तो हो सकती है, स्वयं पुण्य नहीं । पुण्य तो क्रियाजनित फल है और वह भी प्रासंगिक है। मुख्य फल तो आत्मा की उज्ज्वलता अर्थात् कर्म निर्जरा है। जैसे खेती का मुख्य फल धान है, पलाल नहीं, उसी प्रकार शुभ योग की प्रवृत्ति पुण्य के लिए नहीं आत्मा की उज्ज्वलता अर्थात् निर्जरा के लिए होती है । अनेक लोगों की धारणा है कि मिध्यात्वी धर्म नहीं कर सकता परन्तु पुण्य बाँधता है। इसका समाधान यह है आत्मा को Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ९३ * - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - उज्ज्वल बनाने वाली शुभ प्रवृत्ति का परिणाम धर्म है। मिथ्यात्वी शुभ क्रिया करता है उससे उसके कर्म अलग होते हैं। कर्म अलग होने से आत्मा उज्ज्वल बनती है उसकी यह शुभ क्रिया धर्म है। यदि ऐसा न माना जाये, अर्थात् मिथ्यात्वी की आत्मा को उज्ज्वल होती नहीं माना जाये तो फिर आत्मा उज्ज्वल हुए बिना मिथ्यात्वी, मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यक्त्वी कैसे बन सकता है ? इसी प्रकार लोग प्रायः धर्म और पुण्य को एक मान लेते हैं जबकि धर्म आत्मा का उज्ज्वल परिणाम है और पुण्य पौद्गलिक है, भौतिक सुख का कारण है। (४) पाप तत्त्व (Sin Element-सिन एलीमेण्ट) पुण्य का उल्टा पाप है, यानी अशुभ कर्मों का उदय पाप है। अशुभ योग से बँधने वाले कर्म पाप कहलाते हैं। पापकर्म आत्मा को आध्यात्मिक पतन की ओर ले जाते हैं। पाप जब उदय में आते हैं तब वे जीव को दुःख और पीड़ा पहुँचाते हैं। पापकर्म करते समय सुख तथा भोगते समय दुःख का अनुभव होता है। पाप नीच गति का कारण बनता है। इसके त्याग से ही जीव को उच्च गति मिलना सम्भव है। इसलिए पाप कभी भी उपादेय नहीं हो सकता, यह तो सर्वथा हेय ही है। पाप तत्त्व के अठारह भेद हैं। यद्यपि ये भेद नहीं हैं अपितु ये पाप बन्ध के कारण हैं। कारण में कार्य का उपचार मानकर ही ये भेद किए गये हैं (१) प्राणातिपात पाप (हिंसा), (२) मृषावाद पाप (झूठ), (३) अदत्तादान पाप (चोरी), (४) मैथुन पाप (व्यभिचार), (५) परिग्रह पाप (ममताभाव), (६) क्रोध पाप, (७) मान पाप (अहंकार), (८) माया पाप (छल प्रपंच), (९) लोभ पाप (लालच-तृष्णा), (१०) राग पाप (इष्ट वस्तु के साथ स्नेह), (११) द्वेष पाप (इष्ट वस्तु के साथ द्वेष), (१२) कलह पाप (क्लेश, झगड़ा आदि), Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ९४ : चौदहवाँ बोल : नव तत्त्व के एक सौ पन्द्रह भेद (१३) अभ्याख्यान पाप (झूठा कलंक लगाना), (१४) पैशुन्य पाप ( दूसरे की चुगली करना), (१५) पर- परिवाद पाप (निंदा आदि), (१६) रति - अरति पाप (इष्ट पदार्थों पर प्रीति और अनिष्ट पदार्थों पर अप्रीति), (१७) माया - मृषा पाप ( कपट सहित मिथ्या बोलना ), (१८) मिथ्यादर्शनशल्य पाप (कुदेव, कुगुरु और कुधर्म पर श्रद्धान) । (५) आस्रव तत्त्व ( Karmic Element — कार्मिक एलीमेण्ट ) आस्रव कर्मों के आने के द्वार हैं। इन द्वारों के माध्यम से कर्म आत्म- प्रदेश में आते हैं। यह संसार का कारण है। इससे संसार की अभिवृद्धि होती है। अव्रत, इन्द्रिय, आस्रव, योग और अयतना के आधार पर आस्रव तत्त्व के बीस भेद किये गये हैं । अव्रत, यानी हिंसा, झूठ, कुशील, चोरी और परिग्रह इनका पालन करना ये पाँच अव्रत रूप आस्रव हैं । पाँचों इन्द्रियों की प्रवृत्तियों को बहिर्मुख रखना अर्थात् राग-द्वेष रूप रखना अर्थात् उन पर कोई संयम आदि न रखना इन्द्रियजन्य आस्रव है । क्योंकि ये कर्मबन्ध में निमित्त बनती हैं। तीसरा आधार है आस्रव। इसके पाँच भेद हैं- पहला मिथ्यात्व आस्रव है, जिसमें विपरीत श्रद्धान तथा तत्त्वों के प्रति अरुचि होती है । दूसरा अविरति आस्रव है। इसमें असंयम की प्रवृत्ति बढ़ती है। तीसरा प्रमाद आस्रव है। इसमें धर्म के प्रति अनुत्साह होता है । विषय, विकथा, आलस्य, निद्रा आदि के प्रति जीवों में रुचि होती है। चौथा कषायजन्य आस्रव है । इसमें क्रोध, मान, माया और लोभ की ओर जीव की प्रवृत्तियाँ रहती हैं। पाँचवाँ मन आदि का योग होता है। ये पाँचों आस्रव रूप हैं। मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं - एक शुभ और दूसरी अशुभ। दोनों ही कर्मबन्ध के कारण हैं अर्थात् आस्रव हैं। यद्यपि शुभ योग से निर्जरा होती है, आत्मा उज्ज्वल बनती है इस अपेक्षा से यह शुभ योग आस्रव नहीं है किन्तु यह शुभ बन्ध का कारण भी है इसलिए यह शुभ योग आस्रव भी है। आस्रव भेद का अन्तिम आधार है अयतना । अयतनापूर्वक, यानी अविवेकपूर्वक पदार्थों को रखना, उठाना भी आस्रव बन्ध का कारण है, जैसे- रजोहरण, भाण्डोपकरण, तृण, सुई आदि अन्य कोई भी पदार्थ अविवेकपूर्वक रखना या लेना । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्रव तत्त्व के भेदों का चार्ट इस प्रकार है आस्रव तत्त्व आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ९५ इन्द्रिय २. मृषावाद ३. अदत्तादान ४. मैथुन ५. परिग्रह अव्रत | १. प्राणातिपात १. श्रोत्रेन्द्रिय प्रवृत्ति २. चक्षुरिन्द्रिय प्रवृत्ति ३. घ्राणेन्द्रिय प्रवृत्ति ४. रसनेन्द्रिय प्रवृत्ति ५. स्पर्शनेन्द्रिय प्रवृत्ति आस्रव योग १. मिथ्यात्व आस्रव २. अविरति आस्रव ३. प्रमाद आस्रव ४. कषाय आस्रव ५. अशुभ योग आस्रव १. मनः प्रवृत्ति २. वचन प्रवृत्ति ३. काय प्रवृत्ति अयतना १. भाण्डोपकरणादि अयतना सेलेना और रखना २. सूचि, कुशाग्र मात्र, अयतना से लेना और रखना (६) संवर तत्त्व (Check of Influx of Karmic Element— चैक ऑफ इनफ्लक्स ऑफ कार्मिक एलीमेण्ट ) आस्रव तत्त्व का प्रतिपक्षी संवर तत्त्व है। एक-एक आस्रव का एक-एक संवर प्रतिपक्षी है । जैसे मिथ्यात्व आस्रव का प्रतिपक्षी सम्यक्त्व संवर है, अव्रत आस्रव का प्रतिपक्षी व्रत संवर है आदि-आदि । यदि आस्रव कर्मों के आने का द्वार है तो संवर कर्मों को रोकने का द्वार है। यानी संवर आस्रव का निरोध करता है। वास्तव में जिन कारणों से आस्रव को रोका जाता है, वे संवर कहलाते हैं। संवर का अर्थ है संयम । संयमपूर्वक जीवन ही संवर है। इससे आत्मा शुद्ध और निर्मल बनती है। अतः यह मोक्ष का कारण भी है और इसीलिए यह उपादेय भी है। संवर तत्त्व के भी बीस भेद बताए गये हैं । इन भेदों का आधार भी पाँच ही है जिनमें पहला आधार है व्रत, दूसरा आधार है इन्द्रियाँ, तीसरा आधार है संवर, चौथा आधार है योग और पाँचवाँ आधार है यतना । संवर तत्त्व के भेद निम्न चार्ट में इस प्रकार से अभिव्यक्त हैं। यथा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ९६ * चौदहवाँ बोल : नव तत्त्व के एक सौ पन्द्रह भेद संवर तत्त्व व्रत इन्द्रिय संवर योग यतना १. प्राणातिपात विरमण १. श्रोत्रेन्द्रिय निग्रह २. मृषावाद विरमण २. चक्षुरिन्द्रिय निग्रह ३. अदत्तादान विरमण ३. घ्राणेन्द्रिय निग्रह ४. अब्रह्मचर्य विरमण ४. रसनेन्द्रिय निग्रह ५. परिग्रह विरमण ५. स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह १. सम्यक्त्व संवर २. विरति संवर ३. अप्रमाद संवर ४. अकषाय संवर ५. शुभ योग संवर १. मनोनिग्रह २. वचन निग्रह ३. काय निग्रह १. भाण्डोपकरणादि यतना से लेना-रखना आदि २. सूचि, कुशाग्र मात्र, यतना से लेना-रखना (७) निर्जरा तत्त्व (Annihilation of Karmas Elementएनीहिलेशन ऑफ कर्माज एलीमेण्ट) . ज्ञान और तपादि के माध्यम से आत्मा पर लगे कर्मों का झड़ना या दूर हो जाना निर्जरा कहलाती है। निर्जरा से आत्मा को कर्ममल से परिशुद्ध किया जाता है। यह दो प्रकार से होती है-एक सकाम निर्जरा और दूसरी अकाम निर्जरा। पहली प्रकार की निर्जरा में विवेक और ज्ञान के साथ संवरपूर्वक कर्मों का क्षय किया जाता है और दूसरी प्रकार की निर्जरा में बिना विवेक-ज्ञान और बिना संयम के उदय में आये कर्मों को भोगते अकाम निर्जरा हैं। इन दोनों प्रकार की निर्जरा में पहली प्रकार की निर्जरा आत्म-शुद्धि का हेतु है। यानी पहली प्रकार की निर्जरा में आत्म-विशुद्धि का लक्ष्य सामने रहता है और दूसरे प्रकार की निर्जरा में इसका अभाव रहता है। निर्जरा में कर्मक्षय के लिए तप किया जाता है। यह तप निर्जरा का हेतु है, निर्जरा नहीं है किन्तु कारण में कार्य का उपचार करने से तप को निर्जरा कहा गया है। तप के दो भेद किये गये हैं-एक बाह्य तप जिसके पूर्वार्द्ध छह भेद हैं और दूसरा आभ्यन्तर तप इसके बाद के छह भेद हैं। बिना आभ्यन्तर तप के Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ९७ * - - - - - - - - - - - - - - - बाह्य तप तो कर्मबंधन करता है इसलिए आभ्यन्तर तप निर्जरां का साक्षात् हेतु है और बाह्य तप परम्परा से हेतु है। कर्मों से मुक्त होना निर्जरा है तो मोक्ष क्या है ? इस सन्दर्भ में कहा गया है कि कर्मों का एक देश से दूर हो जाना निर्जरा है और सर्वथा कर्मों से मुक्त होना मोक्ष है। अर्थात् कर्मबन्ध से देशमुक्ति निर्जरा है और सर्वमुक्ति मोक्ष है। .. ___चूँकि तप बारह प्रकार के होते हैं अतः निर्जरा के भी बारह भेद हो जाते हैं। यद्यपि स्वरूप की दृष्टि से निर्जरा एक ही प्रकार की है। ये बारह भेद-छह बाह्य और छह आभ्यन्तर इस प्रकार से विभक्त हैंबाह्य तप-निर्जरा (१) अनशन तप (उपवास आदि), (२) ऊनोदरी तप (भूख से कम खाना), (३) भिक्षाचरी तप (निर्दोष भिक्षा ग्रहण करना), (४) रस परित्याग तप (स्वादरहित भोजन), (५) काय-क्लेश तप (वीरासन आदि आसनों का प्रयोग), (६) प्रतिसंलीनता तप (एकान्त शय्यासन)। आभ्यन्तर तप-निर्जरा (७) प्रायश्चित्त तप (दोषों की आलोचनादि के द्वारा शुद्धि), (८) विनय तप (गुरु आदि की भक्ति), (९) वैयावृत्य तप (आचार्य आदि की सेवा), (१०) स्वाध्याय तप (शास्त्र वाचनादि), (११) ध्यान तप (मन की एकाग्रता), (१२) व्युत्सर्ग तप (शरीर के व्यापार आदि का त्याग)। (८) बन्ध तत्त्व (Bondage Element-बोण्डेज एलीमेण्ट) आत्मा का कर्म के साथ सम्बन्ध बन्ध कहलाता है। आत्मा और कर्म-पुद्गलों का यह सम्बन्ध या एकीभाव दूध और पानी या अग्नि और लोह पिण्ड की तरह होता है। कषाय और योग के द्वारा आत्म-प्रदेश में जब कम्पन होता है तब आत्मा के साथ कर्म का बन्ध होता है। जैसे कोई व्यक्ति शरीर पर Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ९८ : चौदहवाँ बोल : नव तत्त्व के एक सौ पन्द्रह भेद तेल लगाकर धूल में लेटता है तो धूल उसके शरीर से चिपक जाती है । इसी प्रकार कर्म- पुद्गल आत्मा से कषाय और योग के द्वारा पूर्ण रूप से चिपक जाते हैं। बन्ध के दो रूप हैं- एक शुभ बन्ध और दूसरा अशुभ बन्ध । बन्ध पुण्य-पाप की बध्यमान अवस्था है और पुण्य-पाप शुभ - अशुभ कर्म की उदीयमान अवस्था है। इसे इस प्रकार से समझ सकते हैं कि जब तक कर्म के पुद्गल आत्मा के साथ बँधे हुए हैं, सत्तारूप में विद्यमान हैं तब तक आत्मा को कोई सुख-दुःख नहीं होता किन्तु जब शुभ कर्म या अशुभ कर्म उदय में आते हैं तब आत्मा को सुख या दुःख मिलता है । कर्मों की यही उदयावस्था क्रमशः पुण्य और पाप है । इसलिए जब तक बन्ध है और जब इन बँधे हुए कर्मों का शुभाशुभ उदय होता है तब शुभ उदय को पुण्य और अशुभ उदय को पाप कहते हैं। प्रत्येक कर्म जब बँधता है तो उसकी चार अवस्थाएँ होती हैं। ये ही चार अवस्थाएँ बंध के चार भेद हैं। यथा (१) प्रकृति बन्ध, (२) स्थितिबन्ध, (३) अनुभाव बन्ध, (४) प्रदेश बन्ध । सराग दशा में जीवों को चारों प्रकार का बन्ध होता है किन्तु वीतराग दशा में जब तक देह रहती है तब तक प्रकृति और प्रदेश का भी बन्ध होता है और जब आत्मा मुक्त हो जाती है या चौदहवें गुणस्थान में पहुँच जाती है तो वह निर्बन्ध हो जाती है । (९) मोक्ष तत्त्व (Salvation Element - साल्वेशन एलीमेण्ट ) नव तत्त्वों में मोक्ष तत्त्व अन्तिम तत्त्व है । संवर और निर्जरा के द्वारा जब सम्पूर्ण कर्मों का पूर्णरूपेण क्षय हो जाता है और आत्मा अपने विशुद्धतम रूप में प्रकट हो जाती है। यानी आत्म - गुणों का पूर्ण विकास हो जाता है वह मोक्ष है । कहीं-कहीं मोक्ष के लिए मुक्ति और निर्वाण शब्द का भी प्रयोग होता है । मोक्ष आत्मा की पूर्ण और अखण्ड अवस्था है । अतः मोक्ष के भेद-प्रभेद नहीं हो सकते किन्तु मोक्ष-प्राप्ति के साधन अवश्य विविध हो सकते हैं । प्रस्तुत बोल में मोक्ष तत्त्व के जो चार भेद बताये गये हैं, वे भेद नहीं, मोक्ष - प्राप्ति के साधन हैं। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ९९ एक बार आत्मा जब मोक्ष दशा में पहुँच जाती है तो फिर वह पुनः बद्ध नहीं होती। वह संसार में पुनः न तो जन्म लेती है और न पुनः मरण को प्राप्त होती है । जैसे दग्ध बीज को कितना ही जल दिया जाये या कितनी ही उर्वरक भूमि में बोया जाये, पर वह बीज कभी भी अंकुरित नहीं हो सकता। वैसे ही आत्मा जब बन्ध और बन्ध के कारणों से मुक्त हो चुकी हो तो फिर वह कभी संसार में नहीं आती है । मोक्ष के विषय में कहा गया है कि भव्य जीव ही मोक्ष जाते हैं और अभव्य जीव मोक्ष नहीं जाते हैं क्योंकि भव्य और अभव्य जीवों में क्रमशः मोक्ष जाने की योग्यता और अयोग्यता होती है । मोक्ष प्राप्ति के चार साधन या उपाय इस प्रकार हैं - (१) सम्यक् ज्ञान, (२) सम्यक् दर्शन, (३) सम्यक् चारित्र, (४) सम्यक् तप । मिथ्यात्व से रहित विवेकपूर्वक अर्थात् सम्यक्त्व के साथ पदार्थों का ज्ञान श्रद्धान और उसे व्यवहार में लाना तथा तप के साथ विशुद्ध परिणामों का होना- इन चार साधनों से कोई भी भव्य जीव मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार नव तत्त्वों के एक सौ पन्द्रह भेदों का विवेचन संक्षेप में समझाया गया है। ( आधार : विभिन्न आगम: स्थानांग, समवायांग - भगवती, प्रज्ञापना आदि) प्रश्नावली १. तत्त्व किसे कहते हैं? सोदाहरण समझाइये | २. तत्त्वों के महत्त्व को दर्शाते हुए इनके भेदों का उल्लेख कीजिए । ३. कौन-से तत्त्व ज्ञेय हैं और कौन-से हेय तथा उपादेय हैं और क्यों ? ४. जीव तत्त्वों के बारे में आप क्या जानते हैं? संक्षेप में इनके भेदों का वर्णन कीजिये । ५. अजीव तत्त्वों के भेदों को स्पष्ट कीजिए । ६. पाप और पुण्य से आप क्या समझते हैं? ७. “संवर आस्रव तत्त्व का प्रतिपक्षी है।" इस कथन के मन्तव्य को समझाइए । ८. निर्जरा और मोक्ष में अन्तर स्पष्ट करते हुए इनके स्वरूप पर प्रकाश डालिए। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ बोल : आत्मा आठ ( आत्मा के अस्तित्व के साधक-बाधक प्रमाण और आत्मा के स्वरूप का वर्णन ) (१) द्रव्य आत्मा, (२) कषाय आत्मा, (३) योग आत्मा, (४) उपयोग आत्मा, (५) ज्ञान आत्मा, (६) दर्शन आत्मा, (७) चारित्र आत्मा, (८) वीर्य आत्मा । आत्मा के अस्तित्व को जहाँ सभी आत्मवादी दर्शनों ने स्वीकारा है, वहीं वैज्ञानिकों ने इसके अस्तित्व को पूर्ण रूप से अस्वीकार भी नहीं किया है। आधुनिक विज्ञान अब विश्व को जड़यन्त्र नहीं मानता है। उसमें चेतना को महत्त्व दिया गया है। इस सन्दर्भ में अलबर्ट आइन्स्टीन कहते हैं- " मैं जानता हूँ कि सारी प्रकृति में चेतना काम कर रही है।" इनके इस कथन का समर्थन सर ए. एस. एडिंग्टन, सर जेम्स जीन्स, जे. वी. एस. हेल्डन, आर्थर एवं कॉम्पटन तथा सर ऑलीवर लॉज आदि वैज्ञानिकों ने भी किया है। यह चेतना आत्मा का ही एक लक्षण है । यद्यपि सभी आत्मवादी दर्शनों ने आत्मा के स्वरूप पर चर्चा की है, पर आत्मस्वरूप सम्बन्धी उनकी यह चर्चा एकान्तिक है क्योंकि इनमें आत्मा की एक-एक विशेषता या लक्षण को लेकर आत्मा के स्वरूप को अभिव्यक्त किया गया है जबकि आत्मा अनेक लक्षणों से युक्त है। आत्मा में व्याप्त अनेक लक्षणों पर चर्चा कर जैनदर्शन ने आत्मा के स्वरूप का सर्वांगीण विवेचन किया है। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा एक शाश्वत तत्त्व है। यह भूत, वर्तमान व भविष्य तीनों कालों में सदा विद्यमान रहता है। इसका न तो जन्म होता है और न मरण । यह सदा ध्रुव है, अनादि है, अनन्त है, नित्यानित्य है । एक अपेक्षा से Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल *१०१ * - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - यह यदि अपरिवर्तनशील है तो दूसरी अपेक्षा से परिवर्तनशील है, यानी द्रव्य की अपेक्षा यह नित्य अर्थात् अपरिवर्तनशील है किन्तु पर्याय की अपेक्षा से यह अनित्य अर्थात परिवर्तनशील भी है। इनमें अनन्त परिणमन होता रहता है। जितने प्रकार का परिणमन होता है उतनी ही आत्माएँ हैं, यानी आत्मा की अवस्थाएँ हैं। चूँकि आत्मा परिणामी नित्य है, अतः उसकी अवस्थाएँ परिवर्तित होती रहती हैं। यह परिवर्तन अनन्त है। आत्मा शब्द उन-उन शब्दों का बोधक है। जैनदर्शन में आत्मा को उपयोगमयी, अमूर्तिक, कर्ता-भोक्ता, स्वदेह परिमाण वाला, संसारी, यानीं बद्ध, मुक्त तथा स्वाभाविक ऊर्ध्व गति वाला माना गया है। जैनदर्शन में आत्मा के अस्तित्व को विभिन्न प्रकार से सिद्ध किया गया है। आत्मा हमें दीखता नहीं है। बिना दिखाई दिए आत्मा के अस्तित्व को कैसे स्वीकारा जाए? इस सन्दर्भ में कहा गया है कि यदि कोई पदार्थ दिखाई नहीं दे तो उस पदार्थ का अभाव नहीं माना जा सकता। चूँकि आत्मा का एक लक्षण अमर्त्त है, यानी आत्मा का कोई रूप नहीं है, आकार नहीं है, वर्ण-गंध आदि नहीं है। अतः यह इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है। इन्द्रियाँ तो मूर्त पदार्थों का ही ज्ञान या दर्शन करा सकती हैं। जिन पदार्थों को हम आँखों से नहीं देख सकते तो क्या उन पदार्थों का अभाव माना जाए? नहीं, ऐसा नहीं होता। उन पदार्थों को सूक्ष्म से सूक्ष्म यन्त्रों से देखते हैं और जो पदार्थ यन्त्रों से भी नहीं दिखाई देते हैं तो भी उनका अभाव नहीं माना जा सकता। उन्हें हम आत्मीय ज्ञान के अधिक विकसित होने से देख सकते हैं। इन्द्रिय ज्ञान तो पदार्थों के बाहरी स्वरूप की जानकारी देता है और इन्द्रियों से परे जो ज्ञान होता है उसके द्वारा आत्मा के स्वरूप-स्वभाव को जाना जा सकता है। आत्मा का बोध हमें अनुमान से भी हो सकता है, जैसे-हवा। हवा को हम देख नहीं सकते हैं किन्तु स्पर्श के द्वारा हवा का अनुभव कर सकते हैं। ठीक उसी प्रकार हम आत्मा को देख नहीं सकते किन्तु अनुभव एवं ज्ञान-शक्ति से उसे जान सकते हैं। यदि इन्द्रिय ज्ञानरूपी दरवाजे या खिड़कियों को बन्द कर ध्यान और एकाग्रता के साथ आत्म-चिन्तन-मनन करें तो एक न एक दिन हमें आत्मा का अनुभव हो सकता है। __ आत्मा शुभ-अशुभ प्रत्येक कर्म का कर्ता और उसके फल का भोक्ता भी है। शरीर मर सकता है किन्तु आत्मा नहीं। वह पुराने शरीर को छोड़कर नए शरीर में सूक्ष्म शरीर, यानी कार्मण शरीर के द्वारा प्रवेश करता है जिसे Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *१०२ * पन्द्रहवाँ बोल : आत्मा आठ पुनर्जन्म कहा जाता है। यद्यपि आत्मा तो वही है किन्तु शरीर वही नहीं है। उसने नया शरीर धारण किया है। अतः इस अपेक्षा से कह दिया जाता है कि आत्मा पुनर्जन्म धारण करता है, यानी आत्मा प्रतिक्षण अपनी क्रिया करता रहता है। वह अपनी पूर्व अवस्थाओं को छोड़ता हुआ उत्तर अवस्थाओं को प्राप्त करता है, किन्तु अपने अस्तित्व को बचाए-बनाए रखता है। उसे नहीं त्यागता है। उसमें जो चैतन्य गुण है, वह सदा विद्यमान रहता है। चाहे वह पशु योनि में जाए और चाहे मनुष्य योनि में। यह आत्मा पर लगे कर्म-संस्कारों पर निर्भर करता है कि उसे कौन-सी योनि, पर्याय या देह मिलती है। . ___ जैनदर्शन के अनुसार आत्मा स्वदेह परिमाण वाली है, यानी देह का जो भी परिमाण मिलता है उसी अनुरूप वह उस देह में समा जाती है। आत्म-प्रदेशों का जो यह संकोच-विस्तार गुण है वह आत्मा को छोटा-बड़ा कैसा भी शरीर मिले वह उस शरीर में व्याप्त हो जाने देता है। जैसे एक दीपक है। इसका प्रकाश अनेक परिमाण का होता है। यदि यह दीपक खुले आकाश में रख दिया जाए तो उसका प्रकाश खुले आकाश में फैल जाएगा। यदि इसे कोठरी में रख दिया जाए तो प्रकाश कोठरी में समा जाएगा। यदि इसे एक घड़े के नीचे रख दें तो इसका प्रकाश घड़े में समा जाएगा और यदि इसे ढकनी के नीचे रख दें तो यह ढकनी में समा जाएगा। इसी प्रकार कार्मण शरीर के आवरण से आत्म-प्रदेशों का भी संकोच और विस्तार होता रहता है। इस प्रकार आत्मा का चैतन्य गुण आत्मा को अपनी पहचान देता है। कोई भी जीव ऐसा नहीं होगा जिसमें चैतन्य गुण न हो। चाहे वे जीव एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव हों, समनस्क हों या अमनस्क हों, सभी में न्यूनाधिक यह गुण सदा विद्यमान रहता है। आत्मा का यह चैतन्य गुण जानने या अनुभव करने की एक विशेष शक्ति है जो प्रत्येक आत्मा के अस्तित्व को दर्शाती है। जब तक यह पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो जाती है तब तक आत्मा संसारी अवस्था या बद्ध अवस्था में रहती है। पूर्ण विकसित हो जाने पर यह मुक्त भी हो जाती है। जितना-जितना कर्मों से यह अनावृत्त होती जाएगी, उतना-उतना वह ऊर्ध्वगमन होती जाएगी। ऊर्ध्वगमन आत्मा की स्वाभाविक गति है। इस प्रकार आत्मा चेतनायुक्त है। चेतना उसका गुण है, धर्म है और उपयोग आत्मा का लक्षण है। चेतना कभी भी एक समान नहीं रहती। उसमें सदा-सर्वदा रूपान्तरण होता रहता है। यह रूपान्तरण ही पर्याय-परिवर्तन कहलाता है क्योंकि जो भी द्रव्य होगा वह बिना गुण और पर्याय के नहीं रह सकता है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : १०३ गुण सदा साथ रहता है किन्तु कर्मानुसार पर्यायें बदलती रहती हैं । यही आत्मा के सन्दर्भ में है। आत्मा का जो चैतन्य गुण है वह तो सदा एक-सा बना रहता है पर उसकी जो पर्याय है वह प्रतिक्षण बदलती रहती है। इसलिए आत्मा तो मूल में एक ही द्रव्य या तत्त्व है पर, पर्याय - भेद की दृष्टि से उसके अनेक रूप दिखाई देते हैं। पर्याय से बँधी आत्मा जीव कहलाती है। इस दृष्टि से आत्मा को जीव भी कह सकते हैं। प्रस्तुत बोल में आत्मा के आठ रूपों का ही वर्णन हुआ है। ये इस प्रकार हैं (१) द्रव्य आत्मा, (२) कषाय आत्मा, (३) योग आत्मा, (४) उपयोग आत्मा, (५) ज्ञान आत्मा, (६) दर्शन आत्मा, (७) चारित्र आत्मा, (८) वीर्य आत्मा । (१) द्रव्य आत्मा द्रव्य आत्मा चेतनामय, असंख्य, अविभाज्य प्रदेशों या अवयवों का एक अखण्ड समूह है। द्रव्य आत्मा जीव के अर्थ में भी प्रयुक्त है । द्रव्य आत्मा में केवल विशुद्ध आत्म- द्रव्य की ही विवेचना है। पर्यायों की सत्ता मिले होने पर भी उन्हें गौण कर दिया गया है। एक प्रकार से द्रव्य आत्मा शुद्ध चेतना है अस्तु यह त्रैकालिक सत्य है जिसके कारण यह कभी अनात्म द्रव्य नहीं बनता। (२) कषाय आत्मा जीव या आत्मा की परिणति जब कषायों से रंजित होती है तब वह कषाय आत्मा कहलाती है अर्थात् कषायों से युक्त आत्मा कषाय आत्मा है। कषाय चार प्रकार की कही गई हैं-एक क्रोध, दूसरी मान, तीसरी माया और चौथी लोभ कषाय। उपशान्त मोह और क्षीण मोह वाली आत्माएँ कषाय आत्मा नहीं होती हैं । इनके अतिरिक्त शेष सभी संसारी आत्माएँ कषाय आत्माएँ हैं । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १०४ * पन्द्रहवाँ बोल : आत्मा आठ (३) योग आत्मा __ आत्मा जब योग से युक्त होती है तब योग आत्मा कहलाती है। जैनदर्शन में जीव की तीन प्रवृत्तियाँ मानी गई हैं-एक मन की प्रवृत्ति, दूसरी वचन की प्रवृत्ति और तीसरी काया की प्रवृत्ति। इन तीनों प्रवृत्तियों को या व्यापार को योग कहा गया है। आत्मा की जितनी भी प्रवृत्तियाँ हैं वे योग के द्वारा ही सम्पन्न होती हैं। अतः प्रवृत्तियुक्त आत्माओं को योग आत्मा कहा गया है। अयोगी केवली और सिद्धों में योग आत्मा नहीं होती है। इनके अतिरिक्त जितने भी संसारी जीव हैं, वे सब योग आत्माएँ हैं। (४) उपयोग आत्मा जीव की ज्ञान-दर्शनमय परिणति उपयोग आत्मा कहलाती है। उपयोग के विषय में कहा गया है कि जो परिणाम आत्मा के चैतन्य गुण का अनुसरण करते हैं, उपयोग कहलाते हैं और उपयोग से युक्त आत्मा को उपयोग आत्मा कहते हैं। यानी चेतना जब व्याप्त होती है तब वह उपयोग आत्मा है। चूँकि इसमें चेतना व्याप्त होती है और चेतना प्रत्येक जीव का स्वाभाविक और स्थायी गुण है। अतः उपयोग आत्मा प्रत्येक सिद्ध और संसारी जीवों में होती है। चूँकि उपयोग आत्मा का लक्षण है अतः कोई भी आत्मा उपयोग से रहित नहीं होती है। (५) ज्ञान आत्मा जीव की ज्ञानमय परिणति ज्ञान आत्मा कहलाती है। प्रत्येक जीव का ज्ञान निज गुण है और यह ज्ञान प्रत्येक आत्मा में न्यूनाधिक रूप से विद्यमान रहता है। अतः यह आत्मा सभी प्रकार के जीवों में होती है। ज्ञान दो प्रकार का होता है-एक सम्यक् ज्ञान और दूसरा मिथ्या ज्ञान। मिथ्या ज्ञान एक प्रकार से अज्ञान है क्योंकि इसमें मिथ्या दृष्टि होती है। मिथ्या दृष्टि के कारण मिथ्या ज्ञान को अज्ञान या कुज्ञान कहा गया है किन्तु ज्ञान का अर्थ जब हम सम्यक् ज्ञान से लेते हैं तब यह आत्मा केवल सम्यक् दृष्टि जीवों में होती है। (६) दर्शन आत्मा ___ दर्शन का अर्थ है पदार्थों का सामान्य बोध। इसमें चेतना शक्ति किसी पदार्थ-विशेष के प्रति विशेष रूप से उपयुक्त न होकर मात्र सामान्य रूप से उसे ग्रहण करती है। दर्शनयुक्त आत्मा दर्शन आत्मा कहलाती है। यह आत्मा सभी जीवों में होती है। सम्यक् दर्शन से अनुप्राणित आत्मा केवल सम्यक् दृष्टि Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल + १०५ * जीवों में ही होती है, इसी प्रकार मिथ्या दर्शन अर्थात् जीव आदि तत्त्वों के प्रति अयथार्थ श्रद्धान रखने वाली आत्मा मिथ्या दृष्टि जीवों में ही होती है। (७) चारित्र आत्मा . __ आत्मा की विशिष्ट संयम मूलक अवस्था चारित्र आत्मा कहलाती है। इसमें जीवों का परिणाम कर्मों का निरोध करने वाला होता है। चारित्र का अर्थ है अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति। अतः जो आत्माएँ विरति सम्पन्न होती हैं वे चारित्र आत्मा में परिगणित हैं। (८) वीर्य आत्मा वीर्य का अर्थ है जीव की शक्ति व सामर्थ्य-विशेष। आत्मा की शक्ति वीर्य आत्मा के रूप में समझी जाती है अर्थात् वीर्ययुक्त आत्मा वीर्य आत्मा है। यह आत्मा संसारी और सिद्ध सभी जीवों में होती है। केवल इनमें अन्तर इतना ही है कि पहले प्रकार के जीवों में वीर्य क्रियारूप में रहता है और दूसरे प्रकार की आत्मा में अर्थात् सिद्ध जीवों में वीर्य लब्धिरूप में अर्थात् शक्तिरूप में विद्यमान रहता है। इस प्रकार इन आठों प्रकार की आत्माओं में द्रव्य आत्मा मूल है और शेष सातों आत्माओं में से कोई उसका लक्षण है, कोई गुण है तो कोई उसका दोष है अर्थात् कषाय कर्म-कृत दोष है, योग आत्मा की प्रवृत्ति है, उपयोग आत्मा का लक्षण है, ज्ञान आत्मा का गुण है, दर्शन आत्मा की रुचि या श्रद्धान है, चारित्र आत्मा की निवृत्ति रूप अवस्था है तथा वीर्य आत्मा की शक्ति है। ____ (आधार : भगवतीसूत्र १२/१०) प्रश्नावली १. आत्मा से आप क्या समझते हैं? इसके अस्तित्व को आप कैसे सिद्ध करेंगे? २. आत्मा के जो आठ भेद बताए गए हैं वे किस अपेक्षा से हैं? ३. जो आत्माएँ सभी जीवों में होती हैं उनके स्वरूप की चर्चा कीजिए। ४. आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में कैसे प्रवेश करती है? ५. विरति सम्पन्न जीवों में किस आत्मा का उल्लेख किया गया है? ६. ऐसे कौन-से जीव हैं जिनमें कषाय आत्मा और योग आत्मा का अभाव है? Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ बोल : दण्डक चौबीस (कर्मफल भोगने के स्थानों का वर्णन) (१) सात नारकों का दण्डक-एक (पहला), (२) भवनपति देवों के दण्डक-दस (दूसरे से ग्यारह तक), (३) तिर्यंच जीवों के दण्डक-नौ (बारह से बीस तक), (४) मनुष्य, व्यंतर देव, ज्योतिषी देव, वैमानिक देवों के एक-एक दण्डक-चार (इक्कीस से चौबीस तक)। दण्डक जैनदर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ है कर्मफल या दण्ड भोगने का स्थान। संसार का प्रत्येक प्राणी प्रवृत्तिमय है। यह.प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है-एक शुभ प्रवृत्ति और दूसरी अशुभ प्रवृत्ति। शुभाशुभ प्रवृत्ति के कारण वह शुभाशुभ कर्म करता है। शुभ प्रवृत्ति द्वारा वह शुभ कर्म करता है और अशुभ प्रवृत्ति से वह अशुभ कर्मों का संचय करता है। इस प्रकार प्रत्येक प्राणी अपने शुभाशुभ कर्मों का स्वयं कर्ता है और इन शुभाशुभ कृत कर्मों के फल का स्वयं भोक्ता भी है। वह अपने शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए चार प्रकार की गतियों में परिभ्रमण करता है। कर्मानुसार चार गतियों में परिभ्रमण करना ही एक प्रकार से उसके लिए दण्ड है। इस प्रकार संसारी प्राणी के कर्मफल भोगने की अवस्था या स्थान दण्डक कहलाता है। चार गतियाँ इस प्रकार हैं (१) नरक गति, (२) तिर्यंच गति, (३) मनुष्य गति, (४) देवगति। इनमें पहली दो गतियाँ अशुभ और बाद की दो गतियाँ शुभ मानी गई हैं। शुभ कर्मों से प्राणी मनुष्य गति और देवगति का दण्ड भोगता है तथा अशुभ कर्मों से उसे नरक और तिर्यंच गति का दण्ड मिलता है। जैनागम में चौबीस प्रकार के दण्डकों का उल्लेख हुआ है जिनमें पहला दण्डक नरक गति का है, दूसरा तिर्यंच गति का, तीसरा मनुष्य गति का और Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल *१०७* दण्डक, तिर्यंच गति के लिए नौ दण्डक, मनुष्य गति के लिए एक दण्डक तथा देवगति के लिए तेरह दण्डक निर्धारित हैं। नरक दण्डक सम्पूर्ण लोक तीन भागों में विभक्त है-एक अधो लोक, दूसरा मध्य या तिर्यक् लोक और तीसरा ऊर्ध्व लोक। अधो लोक या नीचे के लोक में सात प्रकार की भूमियाँ बताई गई हैं। ये भूमियाँ नरक कहलाती हैं और इनमें दण्ड भोगने वाला जीव नारक कहलाता है। सातों भूमियाँ क्रमशः एक-दूसरे से नीचे हैं और इन भूमियों के बीच का जो स्थान है वह क्रमशः घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश से व्याप्त है। यानी इन भूमियों का आधार घनोदधि (ठोस जल) है। यह घनोदधि घनवात (ठोस वायु) पर टिका है और घनवात तनुवात (तरल वायु) पर और तनुवात आकाश पर अवस्थित हैं और आकाश अपना आधार स्वयं ही है। इसे अन्य आधार की अपेक्षा नहीं है। घनवात आदि के लिए वैज्ञानिक पर्यावरण या वायुमण्डल शब्द का प्रयोग करते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार एक निश्चित सीमा तक भूमि या पृथ्वी के चारों ओर का वायुमण्डल सघन और फिर क्रमशः विरल होता गया है। उनका यह दृष्टिकोण घनोदधि, घनवात और तनुवात की अवस्थिति को ही प्रमाणित कर रहा है। इस प्रकार नरक भूमियाँ आकाश पर टिकी हुई हैं। सात नरक भूमियों के गोत्र व नाम इस प्रकार हैं गोत्र नाम (१) रत्नप्रभा (१) घम्मा (२) शर्कराप्रभा (२) वंशा (३) बालुकाप्रभा (३) शीला (४) पंकप्रभा (४) अञ्जना (५) धूमप्रभा (५) रिष्टा (६) तमःप्रभा (६) मघा (७) महातमःप्रभा . (७) माघवती इनमें पहला नरक रत्नप्रभा और सातवाँ नरक महातमःप्रभा है। इन भूमियों के ये नाम स्थान-विशेष के प्रभाव और वातावरण या पर्यावरण के कारण हैं। जैसे रत्नप्रभा भूमि काले वर्ण वाले भयंकर रत्नों से व्याप्त है, शर्करा भूमि तीक्ष्ण Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १०८ सोलहवाँ बोल : दण्डक चौबीस शूल से युक्त कंकड़- प्रधान है, बालुकाप्रभा उष्ण बालूयुक्त है, पंकप्रभा दुर्गन्धित पदार्थों की कीचड़ -प्रधान भूमि है, धूमप्रभा तीक्ष्ण दुर्गन्ध से युक्त धूम-प्रधान है, तमःप्रभा अंधकारमय है और महातमः प्रभा सघन अंधकारमय है । सातों नरक भूमियों के लिए केवल एक दण्डक ही निर्धारित है। नरक दण्डक में शीत और उष्णता का, भूख और प्यास का भयंकर दुःख है, वेदना है, पीड़ा है जिन्हें नारक हजारों वर्षों तक भोगता है। नारंकों का शरीर वैक्रिय होता है। ये लोग दुःखों से बचने के लिए अपने इस वैक्रिय शरीर को मूल शरीर से दुगुने आकार तक का बना लेते हैं फिर भी उनका कष्ट कम की अपेक्षा और अधिक बढ़ जाता है । नारक परस्पर एक-दूसरे को दुःख देते रहते हैं। वहाँ सुख लेशमात्र को भी नहीं है। प्रथम तीन नरक भूमियों में परम अधार्मिक देव रहते हैं। ये अत्यन्त क्रूर स्वभावी, निर्दयी और पापी हैं। ये एक प्रकार से असुरदेव हैं जो यहाँ के नारकों को कुत्तों, भैसों की तरह परस्पर मारपीट कराकर, लड़ाकर, उकसाकर स्वयं प्रसन्न होते हैं। इन्हें सताने में ही प्रसन्नता मिलती है। पहले से लेकर सातवें तक के नारकों में भाव या परिणाम क्रमशः उत्तरोत्तर अशुभ से अशुभ होते जाते हैं । इनका शरीर भी क्रमशः अधिक वीभत्स, घृणास्पद, दुर्गन्धयुक्त और डरावना होता चला जाता है। नारकों को अपनी आयु पूरी भोगनी पड़ती है। उनकी आयु बीच में टूटती नहीं है। यानी दुःखों से घबड़ाकर वे यदि मरना भी चाहें तो निश्चित समय की आयु भोगे बिना मर भी नहीं सकते हैं। यानी इनकी आयु अनपवर्त्य होती है। पहली नरक भूमि को छोड़कर शेष छह भूमियों में द्वीपों, समुद्रों, पर्वत - सरोवरों, गाँव-शहर, वृक्ष, लता, बादर वनस्पतियाँ, द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त तिर्यंचों, मनुष्यों और देवों का अभाव रहता है। तिर्यंच दण्डक तिर्यंच गति के लिए नौ दण्डक निर्धारित किए गए हैं जिनमें पाँच स्थावरों के क्रमशः एक-एक दण्डक, यानी कुल पाँच दण्डक, विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के लिए क्रमशः एक-एक दण्डक, यानी कुल तीन दण्डक तथा एक दण्डक तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए निर्धारित है। ये नौ दण्डक इस प्रकार से हैं (१) पृथ्वीकाय, (२) अप्काय, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) तैजस्काय, (४) वायुकाय, (५) वनस्पतिकाय, (६) द्वीन्द्रिय. (७) त्रीन्द्रिय. (८) चतुरिन्द्रिय, (९) तिर्यंच पंचेन्द्रिय । आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : १०९ तिर्यंच के सन्दर्भ में कहा गया है कि पशु-पक्षी, कीट, पतंग, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, निगोद, यानी संसार के सभी जीव केवल नारक, देव और मनुष्य को छोड़कर तिर्यंच कहलाते हैं । इनमें से कुछ जीव जलचर, कुछ थलचर और कुछ नभचर होते हैं। इन सबकी उत्कृष्ट और जघन्य आयु भी अलग-अलग हैं। तिर्यंच मध्य लोक के सभी असंख्यात द्वीप, समुद्रों में होते हैं किन्तु अढाई द्वीप से आगे के सभी समुद्रों में जल तथा स्थावर के अतिरिक्त अन्य कोई द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव नहीं होते हैं । अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र में पाए जाते हैं । तिर्यंच गति के जीवों को छेदन - भेदन, भूख-प्यास, गर्मी - सर्दी आदि भयंकर दुःख हैं । मनुष्य दण्डक मनुष्य पंचेन्द्रिय का केवल एक दण्डक माना गया है। मनुष्यों में भी आर्य और म्लेच्छ, संज्ञी और असंज्ञी आदि की अपेक्षा से अनेक भेद हैं। मनुष्य गति में इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग व गर्भादिक दुःख माने गए हैं किन्तु इस गति में मनुष्यों को संयम और चारित्र धारण कर संसार के बंधनों से मुक्त होने का अवसर भी मिलता है। इसलिए यह गति चारों गतियों में श्रेष्ठ मानी गई है। जैनदर्शन में ढाई द्वीपों में मनुष्य का निवास बताया गया है । ये अढाई द्वीप हैंएक जम्बू द्वीप, दूसरा धातकीखण्ड द्वीप और आधा पुष्करवर द्वीप । देव दण्डक देवगति के लिए तेरह दण्डक निर्धारित हैं । देवगति में देवों का निवास है । देवों का निवास ऊर्ध्व लोक में माना गया है। इनका शरीर दिव्य होता है। रक्त, माँस, मज्जा आदि धातुओं से बना नहीं होता है । देव सामान्यतः चर्म चक्षुओं से Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ११० सोलहवाँ बोल : दण्डक चौबीस नहीं दिखाई देते हैं। ये तीव्र गति वाले होते हैं। मनचाहा रूप धारण करने की इनमें शक्ति होती है। इनकी आँखों के पलक नहीं झपकते हैं। पैर जमीन से चार अंगुल ऊँचे रहते हैं तथा इनके शरीर की छाया भी नहीं पड़ती है। देव सर्वाधिक भोगते हैं। ये देव चार प्रकार के कहे गए हैं - सुख (१) भवनवासी, (२) व्यन्तर, (३) ज्योतिष्क, (४) वैमानिक । भवनवासी देव अदृश्य रूप से भवनों में रहने के कारण भवनपति कहलाते हैं। इनके भवन नीचे लोक में हैं किन्तु श्रेणीबद्ध नहीं हैं। इन देवों के नामों के पीछे 'कुमार' शब्द जुड़ा हुआ मिलता है जो मनोहारी, सुकुमारता तथा क्रीड़ाप्रियता का प्रतीक है। इन देवों की गति मृदु व लुभावनी होती है। इनके दस भेद हैं। इन देवों के लिए क्रमशः एक-एक दण्डक अर्थात् कुल दस दण्डक निर्धारित हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं - (१) असुरकुमार, (२) नागकुमार, (३) विद्युत्कुमार, (४) सुपर्णकुमार, (५) अग्निकुमार, (६) पवनकुमार, (७) स्तनितकुमार, (८) उदधिकुमार, (९) द्वीपकुमार, (१०) दिक्कुमार। पहले प्रकार के देवों (असुरकुमारों) का चिह्न चूड़ामणिरत्न है । इनके सिर पर मुकुट होता है। इनका शरीर सुन्दर, कृष्ण वर्ण और महाकाय होता है। दूसरे देवों का चिह्न सर्प है। इनका सिर व मुख प्रदेश सुन्दर तथा ये श्यामल वर्ण और ति गति वाले होते हैं। तीसरे प्रकार के देवों का चिह्न वज्र है । इनका शरीर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : १११ उज्ज्वल व प्रकाशशील होता है। ये शुक्ल वर्ण वाले होते हैं। चौथे प्रकार के देवों का चिह्न गरुड़ है। ये ग्रीवा और वक्ष स्थल से अत्यधिक सुन्दर होते हैं। इनका वर्ण उज्ज्वल व श्यामल होता है । पाँचवें प्रकार के देवों का चिह्न घट है । इनका वर्ण शुक्ल होता है। छठवें प्रकार के देवों का चिह्न अश्व है। ये स्थूल सिर वाले व गोल शरीर वाले होते हैं। सातवें प्रकार के देवों का चिह्न वर्धमान सँकोरा संपुट है । इनका शरीर चिकना, स्निग्ध व रंग काला होता है। आठवें देव का चिह्न मकर है। ये श्यामल होते हैं। इनका कटि - प्रदेश व जंघा अधिक सुन्दर होते हैं । नवें देवों का चिह्न सिंह है । ये वक्ष स्थल, स्कन्ध आदि में अधिक सुन्दर होते हैं । दसवें देव अर्थात् दिक्कुमार का चिह्न हाथी है। ये भी श्यामल होते हैं। ये जंघा के अग्र भाग से और पैर से अधिक सुन्दर होते हैं। 1 दूसरे प्रकार के देव हैं व्यन्तर देव । इनके लिए केवल एक दण्डक निर्धारित है। ये मध्य लोक में पर्वत, कन्दरा, वन, वृक्ष व विवरों में रहते हैं । ये बालक के समान चपल स्वभावी होते हैं। कुछ मनुष्यों के सहायक और कुछ दुःखदायक होते हैं । इनके आठ भेद हैं 1 (१) पिशाच, (२) भूत, (३) यक्ष, (४) राक्षस, (५) किन्नर, (६) किंपुरुष, (७) महोरग. (८) गंधर्व । इन सभी के स्वभाव, प्रकृति आदि के आधार पर अनेक भेद-प्रभेद हैं। प्रत्येक देव के अलग-अलग चिह्न हैं जो अधिकांशतः वृक्ष जाति के हैं । जैसेपिशाच का चिह्न कदम्ब वृक्ष की ध्वजा, भूत का सुलस की ध्वजा, यक्ष का वट वृक्ष की ध्वजा, राक्षस का खट्वांग की ध्वजा, किन्नर का चिह्न अशोक वृक्ष की ध्वजा, किंपुरुष का चम्पक वृक्ष की ध्वजा, महोरग का नाग वृक्ष की ध्वजा और गंधर्व का तुम्बुरु वृक्ष की ध्वजा है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ११२ * सोलहवाँ बोल : दण्डक चौबीस - - - - - - - - - - - - - तीसरे प्रकार के देव हैं ज्योतिष्क। इनके लिए एक ही दण्डक है। ये प्रकाशवान विमानों में रहते हैं। सूर्य, चन्द्र, तारे आदि इनके विमान हैं। ये इनके क्रीड़ा-स्थल हैं। इनकी पहचान के लिए इनके चिह्न मुकुट में होते हैं। जैसे-सूर्य के मुकुट में सूर्यमण्डल का चिह्न आदि। इनके शरीर की प्रभा-ज्योति के स्थान दीप्त होने के कारण ये ज्योतिष्क देव कहलाते हैं। ये दो प्रकार के हैं-एक मनुष्य लोक में रहने वाले, जो भ्रमणशील हैं और मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा करते रहते हैं और दूसरे मनुष्य लोक के बाहर वाले, जो निश्चल हैं, गति नहीं करते हैं। इनकी लेश्याएँ और प्रकाश एक समान रहता है। इनके पाँच भेद हैं (१) चन्द्र, (२) सूर्य, (३) ग्रह, (४) नक्षत्र, (५) तारा। ये जो हमें सूर्य, चन्द्र, तारे आदि दिखाई देते हैं, ज्योतिष्क देव नहीं हैं अपितु ये उनके विमान हैं। __ चौथे प्रकार के वैमानिक देव हैं। इनके लिए भी एक दण्डक है। ये अतिशय पुण्यवान होते हैं। ये दो भागों में बँटे हुए हैं (१) कल्पोपन्न, . (२) कल्पातीत। पहले प्रकार में छोटे-बड़े, स्वामी-सेवक आदि की मर्यादा रहती है, दूसरे में नहीं। इसमें सभी देव समान हैं। सभी अहमिन्द्र हैं। पहले प्रकार के देव बारह प्रकार के तथा दूसरे प्रकार के देव चौदह प्रकार के होते हैं। पहले प्रकार के देवों में जितनी भी जातियाँ हैं उन सबमें स्वामी-सेवक का भेद रहता है। दोनों प्रकार के देवों में सात बातें उत्तरोत्तर अधिक होती हैं, यानी ऊपर के देव नीचे के देवों से निम्न सात बातों में अधिक होते हैं (१) स्थिति-आयुकाल, (२) प्रभाव, (३) सुख, (४) द्युति, Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ११३ * (५) लेश्याविशुद्धि, (६) इन्द्रिय विषय, (७) अवधिज्ञान विषय। इसके अतिरिक्त ऊपर के देवों में नीचे के देवों की अपेक्षा चार बातें कम होती हैं, यानी ऊपर के देव क्रमशः इनसे हीन होते जाते हैं (१) गति, (२) शरीर, (३) परिग्रह-मूर्छा भाव, (४) अभिमान, यानी विभूति का अहंकार। (आधार : स्थानांगसूत्र, स्थान १) प्रश्नावली १. दण्डक से क्या तात्पर्य है? जैनागम में कुल कितने दण्डक माने गए हैं? इन दण्डकों के विभाजन को भी स्पष्ट कीजिए। २. नरक दण्डक का वर्णन कीजिए। ३. तिर्यंच कौन-कौन होते हैं? तिर्यंच में दण्डक कितने माने गए हैं? ४. देवों के दण्डकों के नाम गिनाएँ। ५. कल्पोपन और कल्पातीत देवों में क्या अन्तर है? ६. भवनपति देवों और व्यन्तर देवों के चिह्नों को बताइए। ७. ज्योतिष्क देवों के दण्डक के बारे में आप क्या जानते हैं? Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रहवाँ बोल : लेश्या छह (शुभ-अशुभ लेश्याओं का स्वरूप) (१) कृष्ण लेश्या, (२) नील लेश्या, (३) कापोत लेश्या, (४) तेजोलेश्या, (५) पद्म लेश्या, (६) शुक्ल लेश्या। जैनदर्शन में लेश्या एक पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ है जीव के मन, वचन व काय का परिणमन (Thought paints-थॉट पेण्ट्स)। जीव के ये परिणमन कषायों से अनुरजित रहते हैं जिसके कारण प्रत्येक संसारी जीव अष्टकर्मों से बँधता है। इस प्रकार योग और कषाय रजित परिणाम लेश्या है। अर्थात् योग + कषाय = लेश्या। चूँकि इसमें योग की प्रधानता रहती है अतः योग प्रवृत्ति को भी कहीं-कहीं पर लेश्या कहा गया है। यह कथन इस अपेक्षा से है कि तेरहवें गुणस्थानवी जीवों में कषायों का लोप हो जाता है किन्तु मन, वचन व काय की प्रवृत्ति वहाँ अभी भी बनी रहती है अतः तेरहवें गुणस्थान में जो लेश्या होती है वह योग प्रवृत्तिपरक होती है। जीवों के परिणाम शुभ भी हो सकते हैं और अशुभ भी हो सकते हैं अतः लेश्या के भी दो रूप हो जाते हैं-एक शुभ परिणाम वाली शुभ लेश्या और दूसरी अशुभ परिणाम वाली अशुभ लेश्या। शुभ लेश्या धर्म लेश्या और अशुभ लेश्या अधर्म लेश्या है। ___ जैनागम में लेश्या के दो भेद किए गए हैं-एक भाव लेश्या और दूसरी द्रव्य लेश्या। योग और कषाय के निमित्त से जीवों की जो भाव परिणति या विचार या तरंग या मनोवृत्ति बनती है, वह भाव लेश्या है। यानी संक्लेश और योग से अनुगत आत्मा के मनोभाव विशेष भाव लेश्या है और लेश्या का जो पौद्गलिक रूप है वह द्रव्य लेश्या है। इस प्रकार भाव लेश्या यदि आत्मीय विचार हैं तो द्रव्य लेश्या उनके सहायक पुद्गल रूप हैं। इस प्रकार जैनदर्शन में लेश्या परिणाम की जहाँ भी चर्चा हुई है वहाँ केवल जीव के मनोभावों का Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ११५ * - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - ही चित्रांकन नहीं किया गया है अपितु मनोभावों से उत्पन्न कर्म-व्यवहार की भी चर्चा हुई है क्योंकि जैसे विचार या भाव मन में उठते हैं वैसे ही वर्ण आदि पुद्गल जीवों में आकर्षित होते हैं और तदनुरूप जीव कर्मबंधन में बंधता है। कषायों की तीव्रता और मन्दता के आधार पर जीवों में जो परिणमन होता है, वह असंख्य है अतः लेश्याएँ भी असंख्य हो सकती हैं किन्तु ये असंख्य परिणमन छह में अन्तर्मुक्त हो जाने से लेश्याएँ भी छह प्रकार की कही गई हैं। यथा (१) कृष्ण लेश्या, (२) नील लेश्या, (३) कापोत लेश्या, (४) तेजोलेश्या, (५) पद्म लेश्या, (६) शुक्ल लेश्या। इन छह लेश्याओं में कृष्ण लेश्या में कषाय सबसे तीव्रतम और शुक्ल लेश्या में कषाय सबसे मन्दतम स्थिति में होती है। पहली तीन लेश्याओं में कषायों की स्थिति क्रमशः तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र तथा बाद की तीन लेश्याओं में कषायों की स्थिति क्रमशः मन्द, मन्दतर और मन्दतम होती है। इन षड्लेश्याओं में जीव के मन और विचार क्रमशः निर्मल होते जाते हैं, यानी सबसे निकृष्ट विचार या मनोभाव कृष्ण लेश्या में और सबसे उत्कृष्ट व उत्तम विचार शुक्ल लेश्या में होते हैं। इसी आधार पर पहली तीन लेश्याएँ अधर्म तथा बाद की तीन लेश्याएँ धर्म लेश्याएँ कही गई हैं। अधर्म लेश्याओं वाला जीव दुर्गति में तथा धर्म लेश्याओं वाला जीव सद्गति में उत्पन्न होता है। इन षड्लेश्याओं का नामकरण भी द्रव्य लेश्याओं के आधार पर हुआ है, जैसेकृष्ण वर्ण की लेश्या कृष्ण लेश्या। इसी प्रकार अन्य-अन्य वर्ण की लेश्याएँ। __ जैनागम में इन लेश्याओं के शुभाशुभ परिणामों की तरतमता को समझाने के लिए एक बहुचर्चित दृष्टान्त का उल्लेख हुआ है जिसमें छह मित्रों की मनोदशा का वर्णन हुआ है। छह मित्र जामुन फल खाने के लिए निकल पड़ते हैं। मार्ग में उन्हें एक जामुन का वृक्ष दिखाई देता है। फलों से लदे जामुन वृक्ष को देखकर उनमें से एक मित्र कहता है कि “लो भई ! यह रहा जामुन का वृक्ष। इसे Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ११६ * सत्रहवाँ बोल : लेश्या छह काटकर नीचे गिरा दें जिससे नीचे बैठे-बैठे ही अच्छे फल खा सकें।” दूसरा कहता है- "पूरे वृक्ष को काटने से क्या लाभ है ? इसकी मोटी-मोटी शाखाएँ ही काट लें।" तीसरा कहता है- “ शाखाओं को काटने की भी कोई आवश्यकता नहीं है, टहनियों से ही काम चल जायेगा ।" चौथा कहता है- "नहीं भाई ! फलों गुच्छे ही तोड़ लो। वे ही काफी हैं।" पाँचवाँ कहता है- “गुच्छे को क्यों तोड़ते हो ? पके हुए फल ही तोड़ लें, यही ठीक रहेगा।” अन्त में छठा बोलता है - "सब व्यर्थ की बातें हैं जब हमें पके हुए फल ही खाने हैं तो नीचे गिरे हुए फलों को बीन - बीनकर क्यों नहीं खा लेते। वृक्ष, शाखाएँ, टहनियाँ, गुच्छे, फलों को काटने - तोड़ने की क्या आवश्यकता है ? हमें जितने फलों की आवश्यकता है, उतने तो नीचे ही गिरे हुए हैं। फिर व्यर्थ में इतने फल तोड़ने से क्या लाभ ?” अब आप देखिए । छह मित्रों का एक ही प्रयोजन है - जामुन फल खाना । किन्तु छहों के भावों- परिणामों में कितनी भिन्नता है ? पहले वाले के परिणाम कृष्ण लेश्या के हैं और क्रमशः छठे मित्र के परिणाम शुक्ल लेश्या के हैं। यानी पहले मित्र के भाव या परिणाम निकृष्टतम हैं फिर दूसरे, तीसरे इस तरहक्रमशः मित्रों के भाव - परिणाम उत्कृष्ट होते गए हैं । षड्लेश्याओं के वर्ण, स्वभाव आदि के बारे में क्रमशः विवेचन इस प्रकार से है -: (१) कृष्ण लेश्या इस लेश्या का वर्ण जलयुक्त मेघ, महिष-शृंग, द्रोण - काक, खंजन, अंजन और नेत्र तारा के समान कृष्ण होता है। ऐसे जीव का स्वभाव कडुवी तुम्बी - जैसा होता है। गंध दुर्गन्ध होती है और स्पर्श कर्कश होता है। ऐसे जीवों की मनोवृत्ति निकृष्टतम होती है। विचारों से वह अत्यन्त क्षुद्र, क्रूर, कठोर व नृशंस होता है। अहिंसादि व्रतों के पालने में उसे कोई रुचि नहीं होती है। वह इन व्रतों से घृणा करता है और पापपूर्ण प्रवृत्तियों में निमग्न रहता है। वह अतीव स्वार्थी, भोग-विलासी, अविवेकी, बदला लेने में विश्वास रखने वाला अधार्मिक होता है। (२) नील लेश्या इस लेश्या का वर्ण नील, अशोक वृक्ष, चास पक्षी की पंख और स्निग्ध वैडूर्यमणि के समान नील होता है। ऐसे जीव का स्वभाव मिर्च की तरह होता है। गंध दुर्गन्ध होती है और स्पर्श कर्कश होता है। पहले वाले लेश्या की तुलना Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल *११७* - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - में इसकी मनोवृत्ति कुछ शुभ होती है किन्तु ऐसा लेश्यायी जीव प्रमादी, मन्द बुद्धि, कामुक-लोलुप, मायावी, भयभीत, घमण्डी, ईर्ष्यालु, निर्लज्ज, हिंसक व क्षुद्र होता है। वह पौद्गलिक सुखों की प्राप्ति में ही लगा रहता है। (३) कापोत लेश्या . इसका वर्ण अलसी के पुष्प, कोयल के पंख और कबूतर की ग्रीवा के समान कत्थई होता है। ऐसे जीव का स्वभाव दाड़िम-जैसा होता है। गंध दुर्गन्ध और कर्कश स्पर्श होता है। ऐसे जीव मन, वचन व काय से वक्र होते हैं। मिथ्या दृष्टि होते हैं। अपने दोषों पर परदा डाले रखते हैं। शोक में डूबे रहते हैं। क्रोधी स्वभाव के होते हैं। पर-निन्दा व स्व-प्रशंसा में इनकी रुचि रहती है। अप्रिय और कठोर वाणी का व्यवहार करते हैं। अपने स्वार्थ के लिए पशुओं का संरक्षण भी करते हैं। . (४) तेजोलेश्या - इसका वर्ण हिंगुल, गेरू, नवोदित सूर्य, तोते की चोंच, लौ के समान रक्त वाला होता है। पके हुए आम की तरह का ऐसे जीवों का स्वभाव होता है। तेजोलेश्या वाला जीव धर्म में रुचि रखता है। मोह-ममता से दूर रहने का प्रयास करता है। ऐसा जीव पवित्र, विनयी, दयालु, करुणाशील, कर्त्तव्यपरायण, इन्द्रियजयी, पापकर्मों से डरने वाला, आत्म-साधना की ओर सदा प्रवृत्त रहने वाला होता है। यह दूसरों के प्रति उदारमना होता है। अपने सुख के साथ-साथ दूसरे के सुख की भी कामना करता है। ऐसा जीव लाभ-अलाभ में सदा प्रसन्न व सम रहता है। (५) पद्म लेश्या इसका वर्ण हरिताल, हल्दी के टुकड़े तथा सण और असन के पुष्प के समान पीला होता है। इक्षु रस का आस्वाद ऐसे जीवों का होता है। क्रोध न करना, मितभाषी होना, इन्द्रिय-विजय करना आदि इस लेश्या के परिणाम हैं। इस लेश्या वाले जीव की मनोवृत्ति धर्मध्यान व शुक्लध्यान में ही रहती है। ऐसा जीव उत्कृष्ट कोटि का संयमी साधक व सौम्य प्रकृति वाला होता है। देव व गुरु की भक्ति में लीन रहने वाला तथा क्षमा धर्म से युक्त रहता है। वह सदा प्रमुदित व प्रफुल्लित रहता है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ११८ सत्रहवाँ बोल : लेश्या छह (६) शुक्ल लेश्या इसका वर्ण शंख, अंकमणि कुन्द पुष्प, दुग्धधारा, चाँदी व मुक्ताहार के समान श्वेत-धवल होता है। ऐसे जीवों को मिश्री - जैसा आस्वाद अनुभव होता है। तेजो, पद्म व शुक्ल इन तीनों लेश्याओं वाले जीवों की गंध, सुगंध तथा स्पर्श नवनीत - जैसा कोमल या सुकुमार होता है। शुक्ल लेश्या वाला जीव राग-द्वेष से रहित, शोक और निंदा से परे, समदर्शी, आत्मा में लीन, अपने भीतर के परमात्मा को जगाने वाला निर्विकल्प ध्यानी होता है। इसकी मनोवृत्ति अत्यन्त विशुद्ध होती है। यह अशुभ प्रवृत्तियों से दूर अप्रमत्त रहता है। जब आत्मा परम विशुद्ध हो जाती है अर्थात् चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश कर जाती है तब वहाँ कोई किसी भी प्रकार की लेश्या नहीं होती है। इस प्रकार लेश्या - विचार के द्वारा कोई भी जीव अशुभ से शुभ और शुभ से प्रशस्त शुभ या शुद्ध होता हुआ अपनी आत्मा का कल्याण कर सकता है अर्थात् पहली तीन लेश्याओं का त्याग करते हुए बाद की तीन लेश्याओं को उपादेयी मानते हुए अन्त में इन षड्लेश्याओं से भी मुक्त होकर जीव अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है अर्थात् मोक्ष पद पर प्रतिष्ठित हो सकता है। किसमें कितनी लेश्या ? जैनागम में किन जीवों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? इस पर भी चिन्तन हुआ है। नरकगति के जीवों में तीन लेश्याएँ बतायी गई हैं। यथा (१) कृष्ण लेश्या, (२) नील लेश्या (३) कापोत लेश्या । पहले नरक से लेकर सातवें नरक तक के जीवों में क्रमशः अशुभ से अशुभतम लेश्याएँ, यानी कापोत से कृष्ण लेश्या होती चली गई हैं। चूँकि नारकों के संक्लेशी परिणाम पहले से सातवें नरक तक में बढ़ते चले गये हैं अतः उनकी लेश्याएँ भी अशुभतम होती गई हैं। जैसे पहले नरक में कापोत लेश्या है तो दूसरे में कापोत तो है ही, पर यह पहले की अपेक्षा अधिक संक्लेश वाली है। तीसरे में कापोत और नील लेश्या है तो चौथे में केवल नील लेश्या ही है । पाँचवें में नील और कृष्ण लेश्या है। छठे में कृष्ण लेश्या है तो सातवें नरक में भी कृष्ण लेश्या है किन्तु तीव्रतम संक्लेश वाली है। चारों प्रकार के Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ११९ * - - - - - - -- देवों में भाव लेश्या तो छहों होती हैं किन्तु द्रव्य लेश्या की अपेक्षा से भवन और व्यन्तर इन दो देवों में कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या-ये चारों लेश्याएँ मानी गई हैं। ज्योतिष्क देवों में केवल पीत लेश्या या तेजोलेश्या का ही उल्लेख है। नीचे के देवों की अपेक्षा ऊपर के देवों की लेश्याएँ संक्लेश की कमी के कारण उत्तरोत्तर विशुद्ध और विशुद्धतर होती गई हैं। पहले दो स्वर्गों के देवों में पीत-तेजोलेश्या होती है जबकि तीसरे से पाँचवें स्वर्ग के देवों में पद्म लेश्या और छठे से सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त के देवों में शुक्ल लेश्या का उल्लेख है। इसी प्रकार निर्ग्रन्थ श्रमण की लेश्याओं के बारे में भी चर्चा हुई है। निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के कहे गए हैं (१) पुलाक, (२) बकुश, (३) कुशील, (४) निर्ग्रन्थ, (५) स्नातक। इनमें पुलाक के तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्या, बकुश और प्रतिसेवन कुशील में सभी लेश्याएँ होती हैं। परिहार-विशुद्धि संयम वाले कषाय कुशील निर्ग्रन्थ और सयोगीकेवली-स्नातक को मात्र शुक्ल लेश्या होती है तथा अयोगीकेवली जिन लेश्यारहित होते हैं। कहने का आशय यह है कि जीव के ज्यों-ज्यों परिणाम विशुद्ध होते जायेंगे त्यों-त्यों उनकी लेश्याएँ विशुद्ध होती जायेंगी। ___ आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में रंगों के माध्यम से मानसिक रुचि का जो परिज्ञान कराया जाता है वह एक प्रकार से लेश्याओं पर आधारित है। लेश्याओं के सूक्ष्म विश्लेषण से हम अपने अन्तर्जगत् का स्पष्ट चित्र खींचकर बाहर सामने रखते हैं। रंग हमारे मन और शरीर को सर्वाधिक प्रभावित करते हैं अतः रंगों के माध्यम से हम अपने भावों को शुद्ध कर सकते हैं। इतना ही नहीं लेश्याओं को शुद्ध कर मन की चंचलता को एकाग्रता में बदल भी सकते हैं। लेश्या की प्रेक्षा, यानी चमकते हुए शुभ रंगों की प्रेक्षा-ध्यान करने पर आभामण्डल को शुद्ध-परिशुद्ध किया जा सकता है जिसके शुद्ध होने पर व्यक्ति के भावों, विचारों और व्यवहार में निर्मलता आने लगती है। जैसे-जैसे लेश्या Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १२० * सत्रहवाँ बोल : लेश्या छह ---------------------------------------------------------------------- की प्रेक्षा में हम सफल होते जाते हैं वैसे-वैसे कषाय मंद होते जाते हैं और व्यक्ति के व्यक्तित्व का रूपान्तरण होता जाता है। लेश्या की प्रेक्षा में चैतन्य केन्द्रों पर रंगों का ध्यान किया जाता है। रंगों में श्वेत, पीला और लाल चमकते रंगों का ध्यान किया जाता है जिससे व्यक्ति की अन्तर्वृत्तियाँ निर्मल हो सकें। लेश्याध्यान से व्यक्ति अपना इलाज स्वयं कर सकता है। इससे मानसिक दुर्बलताएँ दूर की जा सकती हैं। भाव और विचारों में गृहीत विकृतियों का शमन ही नहीं, इन्हें रोका भी जा सकता है। (आधार : उत्तराध्ययनसूत्र, प्रज्ञापना पद १७) प्रश्नावली १. लेश्याओं का लक्षण बताते हुए उदाहरण द्वारा उनके तारतम्य को समझाइए। २. षड्लेश्याओं से आप क्या समझते हैं? ३. पद्म लेश्या की परिभाषा बताते हुए उसके परिणामों का उल्लेख कीजिए। ४. द्रव्य और भाव लेश्या से क्या तात्पर्य है? ५. किन जीवों में कितनी लेश्याएँ होती हैं? ६. अशुभ और शुभ लेश्याओं के वर्ण, गंध, रस व स्पर्श बताइए। ७. लेश्या की प्रेक्षा से हमें क्या लाभ है? Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ बोल : दृष्टि तीन (सम्यक्त्व के लक्षण, दूषण और भूषण) (१) सम्यक् दृष्टि, (२) मिथ्या दृष्टि, (३) सम्यक् मिथ्या (मिश्र) दृष्टि। सामान्यतः दृष्टि का अर्थ है देखना। किन्तु जैनदर्शन में दृष्टि शब्द श्रद्धान (Belief-बिलीफ) के लिए प्रयुक्त है। यह श्रद्धान, विश्वास-रुचि तत्त्वों के प्रति होती है। संसार में जितने भी जीव हैं उनमें कोई न कोई दृष्टि अवश्य होती है। जीवों में तत्त्वों के प्रति जो श्रद्धान होता है, वह तीन प्रकार का होता है। इसी आधार पर दृष्टि के भी तीन प्रकार हो जाते हैं। यथा (१) सम्यक् दृष्टि, (२) मिथ्या दृष्टि, (३) सम्यक् मिथ्या (मिश्र) दृष्टि। जिस जीव का तात्त्विक श्रद्धान सम्यक्त्व (Right faith-राईट फेथ) पर आश्रित हो, वह सम्यक् दृष्टि जीव है (Right faith soul राईट फेथ सोल) और जिसका श्रद्धान मिथ्यात्व (Wrong faith-रौंग फेथ) पर टिका हो वह मिथ्या दृष्टि जीव है (False believer-फाल्स बिलीवर) और जिसका श्रद्धान सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्र रूप हो, वह सम्यक् मिथ्या दृष्टि जीव है। (Soul having right and wrong faith mixed-सोल हेविंग राईट एण्ड रौंग फेथ मिक्स्ड)। इस प्रकार सम्यक्त्वी की दृष्टि सम्यक् दृष्टि, मिथ्यात्वी की दृष्टि मिथ्या दृष्टि तथा सम्यक् मिथ्यात्वी की दृष्टि सम्यक् मिथ्या दृष्टि कहलाती है। तीनों दृष्टियों के उद्गम का मूल स्रोत है मोहनीय कर्म। मोहनीय कर्म का जब क्षय या उपशम या क्षयोपशम होता है तब आत्मा के परिणामों में शुद्धता आती है जिससे तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप के प्रति यथार्थ श्रद्धान जगने लगता है। जीवों की यह दृष्टि सम्यक् दृष्टि कहलाती है। इसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जीव में तत्त्वों के प्रति मिथ्यात्व बना रहता है, यानी वह अदेव में देव या देव में अदेव, अधर्म में धर्म या धर्म में अधर्म और अगुरु में गुरु या गुरु में अगुरु की Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १२२ ÷ अठारहवाँ बोल दृष्टि तीन :: कल्पना करने लगता है। ऐसा जीव मिथ्या दृष्टि कहलाता है। मिश्र मोहनीय कर्म के उदय से जीव में सत्य और असत्य मिश्रित स्थिति पैदा होने लगती है, यानी एकाध तत्त्वों के प्रति उसका श्रद्धान सन्देह या मिथ्यापरक होता है और शेष तत्त्वों के प्रति उसका श्रद्धान यथार्थमुखी रहता है। जीव की ऐसी दृष्टि सम्यक् मिथ्या दृष्टि कहलाती है, यानी इसमें जीव की रुचि मिश्र होती है अर्थात् न पूर्णरूपेण तत्त्वों के प्रति श्रद्धा और न पूर्णरूपेण अतत्त्व श्रद्धा ही होती है। . सम्यक् दृष्टि में सम्यक् शब्द प्रधान है। यह सम्यक् शब्द यथार्थता तथा मोक्ष अभिमुखता के लिए प्रयुक्त है। जीव में यथार्थ श्रद्धान सत्य और तथ्य पूर्ण होने के साथ-साथ जब मोक्षाभिमुख हो, यानी जीव की प्रवृत्ति मोक्षान्मुख हो तो वह जीव सम्यक्त्वी कहलाता है। उसका दर्शन सम्यक् दर्शन होता है। सम्यक् दर्शन में जो वस्तु जैसी है, जिस रूप में है उस पर वैसा ही श्रद्धान रखा जाता है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप में कोई - किसी भी प्रकार की शंका नहीं होती है। वस्तु के यथार्थ स्वरूप, सत्य या आत्म-प्रतीति में शंका या बाधा उत्पन्न करने वाला मिथ्यात्व होता है। मिथ्यात्व के समाप्त होते ही उसी क्षण आत्म-ज्योति जगमगाने लगती है। इसी स्थिति में जीव में सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है जिससे उसमें आनन्द की अनुभूति होने लगती है । सम्यक्त्वी जीव की वृत्ति और प्रवृत्ति को इस दृष्टान्त से समझा जा सकता है- धाय अर्थात् बालक या शिशु का लालन-पालन करने वाली स्त्री इतनी सावधानी और जागरूकता के साथ बालक का लालन-पालन करती है कि बाह्य रूप से उसके और बालक की माता के व्यवहार में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता है । लोग धाय को ही माता समझने लगते हैं। लेकिन वह धाय हृदय से अन्तरंग से बालक को कभी अपना पुत्र नहीं समझती अपितु उसे वह पराया पुत्र ही मानती है । उसी प्रकार सम्यक्त्वी जीव भी अपने कुटुम्ब का पालन-पोषण करता है, अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करता है किन्तु यह सब वह कर्त्तव्य भावना के साथ करता है। कभी भी वह कुटुम्ब को अपना नहीं मानता। उसकी दृष्टि में अपना कोई है तो वह है अपनी आत्मा, शेष सब पर - पदार्थ हैं। उसकी दृष्टि में भेदविज्ञान समाया रहता है जिसके कारण वह पर - पदार्थों और पर - भावों के प्रति अन्तरंग और बहिरंग दोनों से विरक्त रहता है क्योंकि वह जानता है कि ये पर-पदार्थ क्षणभंगुर हैं, नाशवान हैं, फिर इनमें क्यों आसक्ति रखी जाए, क्यों बंधन में बँधा जाए? उसका यह दृढ़ विश्वास उसमें भेदविज्ञान या सम्यक्त्व के जगने के कारण होता है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल ÷ १२३ सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए जैनागम में पाँच लब्धियों का होना बताया गया (१) क्षयोपशम लब्धि, (२) विशुद्धि लब्धि, (३) देशना लब्धि, (४) प्रायोग्य लब्धि, (५) करण लब्धि | जीवों में यह सम्यक्त्व दो प्रकार का होता है - एक नैसर्गिक रूप से जिसे निसर्गज सम्यक्त्व और दूसरा 'पर' के निमित्त से जिसे अधिगमज सम्यक्त्व कहते हैं। पहले प्रकार के सम्यक्त्व में जीव के स्वयं के आन्तरिक परिणाम निमित्त या सहयोगी बनते हैं। इसमें पर के उपदेश आदि की अपेक्षा नहीं रहती है । दूसरे प्रकार के सम्यक्त्व में 'पर' अर्थात् साधु-साध्वी शास्त्र - स्वाध्याय आदि के निमित्त या सहयोग की अपेक्षा रहती है। इन दोनों में यही मूलभूत अन्तर है कि पहले प्रकार के सम्यक्त्व में बाहरी निमित्त की आवश्यकता नहीं रहती है जबकि दूसरे में बाहरी निमित्त की अपेक्षा रहती है। इस तथ्य को इस प्रकार से समझ सकते हैं जिस प्रकार नदी में बहता हुआ नुकीला पत्थर रगड़ खाते-खाते स्वयं गोल हो जाता है, उसी प्रकार अनादि मिथ्या दृष्टि जीव भी संसार के अनेक विधि कष्ट और संकट भोगते हुए स्वयं ही उसके परिणाम सम्यक्त्व - प्राप्ति के योग्य हो जाते हैं और बिना किसी उपदेश के ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है लेकिन इसमें एक बात ध्यान रहे कि जिस समय निसर्गज सम्यक्त्व की उपलब्धि हो उस समय भले ही धर्मोपदेश न मिलता हो किन्तु पहले कभी - किसी पूर्वजन्म में उसे यह धर्मोपदेश अवश्य मिला होगा। उस समय उसे यह संम्यक्त्व प्राप्त नहीं हो सका। अब किसी निमित्त से वह धर्मोपदेश उसमें स्वयं ही नैसर्गिक रूप से उभर आया । जैसे सोमिल के हृदय में श्मशान में ध्यानस्थ मुनि गजसुकुमाल के प्रति ९९ लाख भव पहले के वैर बंध के कारण क्रोध की ज्वाला धधक उठी थी । इन दो के अतिरिक्त सम्यक्त्व के दूसरे अनेक भेद हैं। यथा (१) व्यवहार और निश्चय सम्यक्त्व, (२) सराग और वीतराग सम्यक्त्व, Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १२४ * अठारहवाँ बोल : दृष्टि तीन - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -- (३) क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्व, (४) वेदक सम्यक्त्व, (५) सास्वादन सम्यक्त्व, (६) पौद्गलिक और अपौद्गलिक सम्यक्त्व, (७) द्रव्य और भाव सम्यक्त्व, (८) रुचि की अपेक्षा से निसर्गज आदि दस प्रकार का सम्यक्त्व, (९) कारक, रोचक और दीपक सम्यक्त्व। सम्यक्त्व के चाहे कितने भी भेद हों पर इनकी उत्पत्ति के मूल में मिथ्यात्व की तीन प्रकृतियाँ-(१) मिथ्यात्व प्रकृति, (२) मिश्र प्रकृति, (३) सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृति तथा अनन्तानुबंधी की चार-(४) क्रोध, (५) मान, (६) माया, (७) लोभ-प्रकृतियों अर्थात् सात प्रकृतियाँ, जिन्हें दर्शन सप्तक कहां जाता है, का क्षय, उपशम या क्षयोपशम है। सम्यक्त्व के दूषण . सम्यक्त्व या सम्यक् दर्शन के पच्चीस दोष कहे गए हैं जिनके रहते सम्यक्त्व अप्रकट रहता है। ये दोष हैं (१) तीन प्रकार की मूढ़ताएँ, (२) आठ प्रकार के मद, (३) छह अनायतन, (४) आठ शंकादि दोष। आठ अंग आठ शंकादि दोषों के विपरीत सम्यक्त्व के आठ अंग भी माने गए हैं। इन दोषों के निकल जाने से सम्यक्त्व में जो विशुद्धि आती है वह आठ अंगों या आठ गुणों के रूप में प्रकट होती है। ये आठ अंग इस प्रकार हैं(१) निःशंकता, (२) निष्कांक्षता, (३) निर्विचिकित्सा, (४) अमूढ़ता, Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १२५ * (५) उपगूहन, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य, (८) प्रभावना। इस प्रकार इन आठ अंगों के माध्यम से सम्यक्त्व को शक्तिशाली बनाया जा सकता है। सम्यक्त्व गुण-प्रधान होने से वह किसी जाति, समाज या व्यक्ति-विशेष के कारण प्राप्त नहीं होता है अपितु आत्म-शुद्धि से इसे प्राप्त किया जा सकता है। चूँकि सम्यक्त्व आत्मीय गुण है, वह इन्द्रियगोचर नहीं है। अतः उसे कैसे पहचाना जाए? तो इसके लिए यह है कि जिस प्रकार अग्नि का पता धुएँ के द्वारा चल जाता है उसी प्रकार जैनागम में पाँच गुणात्मक लक्षण बताए गए हैं . जिनके आधार पर सम्यक्त्व की पहचान हो सकती है। ये लक्षण इस प्रकार हैं. (१) प्रशम (कषायों की अल्पता), . (२) संवेग (मुमुक्षा), (३) निर्वेद (अनासक्ति), (४) अनुकम्पा (करुणा), (५) आस्तिक्य (सत्यनिष्ठा अथवा जिनवाणी पर आस्था)। सम्यक्त्वी के विषय में आचार्यों ने कहा है कि सम्यक्त्वी के पाँच भूषण होते हैं। ये इस प्रकार हैं(१) तीर्थंकर द्वारा स्थापित धर्म में स्वयं स्थिर रहना और दूसरों को स्थिर करने का प्रयत्न करना। (२) धर्म-शासन के बारे में फैली हुई भ्रान्तियों का निराकरण करना और उसके महत्त्व को प्रकाश में लाना। (३) तीर्थंकर की वाणी को समझने में और समझाने में निपुणता प्राप्त करना। । (४) धर्म-शासन की भक्ति करना और उसे सर्वाधिक महत्त्व देना। (५) श्रमण साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका इन चारों तीर्थों की सेवा-सुश्रूषा करना। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १२६ * अठारहवाँ बोल : दृष्टि तीन - - - - - - - - - - - - - - - सम्यक्त्व को स्थिर रखने के लिए छह बातों के बारे में ज्ञान अवश्य होना चाहिए। जैसे (१) आत्मा है, (२) आत्मा द्रव्य रूप से नित्य है, (३) आत्मा अपने कर्मों का कर्ता है, (४) आत्मा अपने कृत कर्मों के फल का भोक्ता है, (५) आत्मा कर्मफल से मुक्त हो सकता है, (६) आत्मा के मुक्त होने के साधन हैं। सम्यक् दृष्टि निर्ग्रन्थ-साधु के विषय में कहा गया है कि ये सर्वार्थसिद्ध पर्यन्त उत्पन्न हो सकते हैं। चौदह पूर्वधर संयमी मुनि पाँचवें देवलोक से नीचे के स्वर्गों में जन्म नहीं लेते, वे ब्रह्मलोक से सर्वार्थसिद्ध तक में ही पैदा होते हैं। जैनलिंग को धारण करने वाले किन्तु अन्तरंग से मिथ्या दृष्टि साधु मरकर नव ग्रैवेयक तक में जन्म ले सकते हैं, इससे ऊपर नहीं। अन्यलिंगी मिथ्या दृष्टि साधु अधिक से अधिक अच्युत स्वर्ग तक जन्म ले सकते हैं। सम्यक्त्वी को धर्मध्यान का अधिकारी माना गया है क्योंकि सम्यक्त्वी ही मुक्ति की ओर सदा अग्रसर रहता है। जिन मिथ्या दृष्टि जीवों में कषाय की अल्पता तथा तप-जप की प्रधानता रहती है। जिस मिथ्यात्वी में सत्य, दया, दान व करुणा आदि अनेक गुण हों; वे गुण पुण्य के, स्वर्ग-प्राप्ति के तथा भौतिक सुख-साधनों के कारण तो बन सकते हैं किन्तु मुक्ति के अर्थात् आत्मिक सुख के कारण नहीं बनते हैं। मिथ्यात्व और मिथ्या दृष्टि के अन्तर को स्पष्ट करते हुए जैनाचार्यों ने कहा है कि मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उदय भाव है और मिथ्या दृष्टि मोहनीय कर्म का क्षयोपशम भाव है। मिथ्यात्व का अर्थ है-वस्तु का यथार्थ श्रद्धान न होना या वस्तु का अयथार्थ श्रद्धान होना और मिथ्या दृष्टि का अर्थ है मिथ्यात्वी में पायी जाने वाली दृष्टि की विशुद्धि। __शास्त्रों में मिथ्यात्व के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए इसके पच्चीस भेद किए गए हैं। मिथ्यात्वी सम्यक्त्वी के परिणामों से बिलकुल विपरीत होते हैं। वे सदा भ्रम में रहते हैं। मिथ्यात्वी मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-एक अभिगृहीत मिथ्यात्वी और दूसरे अनभिगृहीत मिथ्यात्वी। पहले प्रकार के मिथ्यात्वी प्रबल Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : १२७ कषाय के कारण असत्य का पोषण करने वाले और दुराग्रही होते हैं । दूसरे प्रकार के मिथ्यात्वी वे हैं जिन्हें सत्य-तत्त्व परीक्षा का अवसर नहीं मिला है जिनमें असत्य का कोई पक्षपात नहीं है । ( आधार : स्थानांग, स्थान ३) प्रश्नावली १. दृष्टि से क्या तात्पर्य है ? इसके कितने भेद हैं? २. सम्यक दृष्टि में जो सम्यक्त्व है उस पर प्रकाश डालिए । ३. सम्यक्त्वी जीव की वृत्ति और प्रवृत्ति को सोदाहरण समझाइए । ४. सम्यक्त्व आत्मा का गुण है । वह इन्द्रियों से दिखाई नहीं देता है फिर इसकी पहचान कैसे की जा सकती है? ५. मिथ्यात्व और मिथ्या दृष्टि में क्या अन्तर है ? ६. सम्यक दृष्टि निर्ग्रन्थ साधु के विषय में आप क्या जानते हैं? ७. सम्यक्त्व के पाँच भूषणों का उल्लेख कीजिए । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ बोल :ध्यान चार (ध्यान का स्वरूप और शुभ ध्यान की साधना) (१) आर्त्तध्यान, (२) रौद्रध्यान, (३) धर्मध्यान, (४) शुक्लध्यान। प्रत्येक संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में मन का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह आत्मा के उत्कर्ष और अपकर्ष का प्रधान कारण माना गया है। सामान्यतः मन की दो अवस्थाएँ हैं (१) चंचल अवस्था, (२) स्थिर अवस्था। ध्यान का सम्बन्ध मन की स्थिर अवस्था से है। ध्यान का अर्थ है मन को किसी एक विषय पर एकाग्र या स्थिर करना। ध्यान में मन की एकाग्रता तीनों योग से की जाती है अर्थात् ध्यान में मन, वचन व काय की समस्त वृत्तियों का निरोध किया जाता है। ध्यान के क्षेत्र में तीन बातें प्रमुख हैं-एक ध्येय, दूसरी ध्यान और तीसरी ध्याता। ये तीनों 'त्रिपुटी' के नाम से जानी जाती हैं। ध्यान करने वाला ध्याता कहलाता है। जिसका ध्यान या चिन्तन-मनन किया जाता है, वह ध्येय है। ध्याता जिस साधना से ध्येय को प्राप्त करने का प्रयास करता है वह साधना ध्यान है। मनुष्य का ध्येय अपरिमित है फिर भी उसकी दो सीमाएँ हैं-एक आत्मोन्मुख और दूसरी अनात्मोन्मुख। जब ध्येय आत्मोन्मुख होता है, तब ध्यान मोक्ष का कारण बनता है और जब ध्येय अनात्मोन्मुख होता है, तब ध्यान संसार का कारण बनता है। संसार का संवर्धन करने वाला ध्यान अशुभ है, त्याज्य है, हेय है; जबकि मोक्ष की ओर ले जाने वाला ध्यान शुभ है, ग्राह्य है, उपादेय है। इस दृष्टि से ध्यान के दो रूप हो जाते हैं-एक शुभ ध्यान और दूसरा अशुभ ध्यान। अशुभ ध्यान दो प्रकार के कहे गए हैं-एक आर्तध्यान और दूसरा रौद्रध्यान। शुभ ध्यान भी दो प्रकार का है-एक धर्मध्यान और दूसरा शुक्लध्यान। इस प्रकार ध्यान के कुल चार भेद हैं Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १२९ * (१) आर्त्तध्यान, (२) रौद्रध्यान, (३) धर्मध्यान, (४) शुक्लध्यान। इन चारों में पहले दो ध्यान तो सभी संसारी जीवों के होता है। ये दोनों ध्यान संसार को बढ़ाने वाले हैं अतः ये दोनों ध्यान-तप के रूप में स्वीकृत नहीं हैं। धर्म और शुक्लध्यान ही ध्यान-तप के रूप में गृहीत हैं। क्योंकि ये दोनों मोक्षमार्ग का कारण बनते हैं। मोक्ष के सन्दर्भ में कहा गया है कि मोक्ष उत्तम संहनन वालों को ही प्राप्त होता है। अतः उत्तम संहनन वाले ही शुक्लध्यान के अधिकारी माने गए हैं। वर्तमान युग में उत्तम संहनन न होने के कारण साधक धर्मध्यान ही कर सकते हैं क्योंकि मोक्ष की साधना अत्यन्त कठिन साधना है जिसके लिए सुदृढ़ शरीर और सुदृढ़ मन दोनों का ही होना आवश्यक है। इसलिए शुक्लध्यान, जो केवलज्ञान तथा मोक्ष का प्रत्यक्ष एवं साक्षात् हेतु है, के लिए उत्तम संहनन का होना आवश्यक है। शक्लध्यान के लिए अन्तर्मुहूर्त का काल होता है। उत्तम संहनन वाले साधक चित्त की एकाग्रता और योगों का निरोध मुहूर्त काल तक करने की शक्ति और सामर्थ्य रखते हैं। अन्य संहनन वाले जीवों में इतने काल तक चित्त को एकाग्र करने की क्षमता नहीं होती है। उनका ध्यान तो बहुत अल्प समय का होता है। इसलिए उत्तम संहनन वाले साधकों को ही शुक्लध्यान का अधिकारी माना गया है। .. सामान्यतः यह देखा जाता है कि लोग अन्तर्मुहूर्त से भी अधिक समय, यानी कई-कई दिनों या महीनों तक ध्यान करते हैं। वास्तव में यह ध्यान नहीं, ध्यान का प्रवाह है जो अनेक वस्तुओं, विषयों, ध्येयों पर घूमता रहता है। अधिकांश लोग श्वास के सूक्ष्मीकरण और शरीर के शिथिलीकरण तथा एकासन से स्थिर रहने की ही अवस्था को ही ध्यान तथा समाधि मान लेते हैं। जबकि यथार्थतः यह ध्यान नहीं है। ध्यान का प्रधान लक्षण है"एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्।" अर्थात् एकाग्रचित्त-चिन्तन-निरोधरूप ध्यान है जो उत्तम संहनन वाले साधकों को ही मुहूर्त तक रह सकता है। (१) आर्तध्यान ___ संसारी प्राणी चिन्ता, पीड़ा, शोक, कष्ट, दुःख आदि में ही सदा प्रवृत्त रहते हैं और अपने मन को इन्हीं में एकाग्र किए रहते हैं। उनका यह ध्यान Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १३० * उन्नीसवाँ बोल : ध्यान चार - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - --- आर्त्तध्यान कहलाता है। आर्तध्यान छठवें अर्थात् प्रमत्त संयत गुणस्थान तक होता है, यानी सम्यक् दर्शन की प्राप्ति से पूर्व के सभी जीवों को आर्तध्यान रहता है इसके साथ ही अविरत, देशविरत और प्रमत्त संयत में भी आर्तध्यान हो सकता है। यह तिर्यंच गति का कारण है। आर्तध्यान के चार भेद हैं (१) अनिष्ट संयोग आर्तध्यान, (२) इष्ट वियोग आर्तध्यान, (३) वेदना आर्तध्यान, (४) निदान आर्तध्यान। (२) रौद्रध्यान जिस ध्यान में रुद्रता हो, क्रूरता-कठोरता हो, वह ध्यान रौद्रध्यान कहलाता है। रौद्रध्यानी जीव को न पाप से डर लगता है और न उसे परलोक की चिन्ता ही रहती है। ऐसा व्यक्ति घोर स्वार्थी, पतित, क्रूर, पापों में, परिग्रह में ही लीन रहता है। उसके आत्म-परिणामों की हिंसादि पापों में लवलीनता, यानी अनुबंधता रहती है। यह चार प्रकार का बताया गया है (१) हिंसानुबंधी, (२) मृषानुबंधी, (३) चौर्यानुबंधी, (४) संरक्षणानुबंधी। पहले में जीवों को सताने में, वध करने में, मारने-पीटने में, बंधन में डालने में आदि का विचार रहता है। दूसरे में झूठ बोलने में, दूसरों को ठगने या धोखा देने में मिथ्या वचनों वाग्जाल में उलझाए रखने में और वैसा ही विचार बनाए रखने में मनुष्य की प्रवृत्ति होती है। तीसरे प्रकार में चोरी, लूट-खसोट आदि के सम्बन्ध में विचार चलता रहता है। चौथे प्रकार में धान्य-धान्यादि परिग्रह की सुरक्षादि के लिए आकुल-व्याकुल व चिन्ता आदि करते रहना होता है। रौद्रध्यान केवल पाँचवें देशविरत गुणस्थान वाले तक के जीवों को ही होता है। इसमें भी देशविरत गुणस्थान वाले जीवों और अविरत सम्यक्त्वी को अर्थात् चौथे और पाँचवें गुणस्थान वाले जीवों को यह ध्यान कभी-कभी ही सम्भव है। इसका कारण यह है कि रौद्रध्यान नरकायु का कारण है। इसलिए ऐसे जीवों Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल * १३१ * - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - को यदि रौद्रध्यान होता भी है तो अधिक तीव्र नहीं होता और न ही अधिक समय तक ठहरता है। ऐसे जीव अपने परिणामों को शीघ्र ही स्थिर कर लेते हैं। पहले से तीसरे गुणस्थान तक के जीवों को तो रौद्रध्यान होता ही है। (३) धर्मध्यान जिस ध्यान में श्रुत व चारित्ररूप धर्म का चिन्तन होता हो, वह ध्यान धर्मध्यान कहलाता है। इसमें संसार की असारता का चिन्तम किया जाता है। यह धर्मध्यान चार प्रकार का होता है (१) आज्ञाविचय धर्मध्यान, (२) अपायविचय धर्मध्यान, (३) विपाकविचय धर्मध्यान, (४) संस्थानविचय धर्मध्यान। आज्ञाविचय धर्मध्यान में वीतराग या सर्वज्ञ के उपदेशों का चिन्तवन चलता है। साधक अपनी समस्त चित्तवृत्तियों को सब ओर से हटाकर निरन्तर इस विषय पर ही चिन्तन-अनुचिन्तन करता रहता है। अपायविचय धर्मध्यान में दोषों के स्वरूप और उससे मुक्ति कैसे सम्भव है आदि विषयों पर चिन्तन चलता रहता है। विपाकविचय धर्मध्यान में कर्मों की अनुभाव शक्ति का विचार, किस कर्म का कैसा शुभ या अशुभ विपाक होता है, उन कर्मों की फलदायिनी शक्ति क्या है आदि ऐसे ही विषयों में मन को एकाग्र किया जाता है। संस्थानविचय धर्मध्यान में साधक लोकस्वरूप का विचार करने में अपने मन को एकाग्र करता है, यानी उसका चिन्तन लोक के आकार, उसकी रचना आदि विषय से सम्बन्धित होता है। धर्मध्यान, अप्रमत्त संयत सातवें गुणस्थान वाले साधुओं तक होता है किन्तु ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान अर्थात् उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय वालों के भी यह सम्भव हो सकता है। पहले मिथ्या दृष्टि जीवों से लेकर तीसरे मिश्र दृष्टि गुणस्थान वाले जीवों में धर्मध्यान का सर्वथा अभाव रहता है। धर्मध्यान का अधिकारी तो केवल सम्यक्त्वी ही है। धर्मध्यान के चार लक्षण हैं। यथा(१) आज्ञा रुचि, (२) सूत्र रुचि, Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १३२ उन्नीसवाँ बोल : ध्यान चार (३) निसर्ग रुचि, (४) उपदेश (अवगाढ़) रुचि । धर्मध्यान के लिए चार आलम्बन हैं जिसके आधार पर धर्मध्यान स्थिर रह सकता है ---------➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖ (१) वाचना - गुरु मुख से शास्त्र का पाठ लेना, (२) पृच्छना - सीखे हुए तत्त्व ज्ञान के विषय में प्रश्न करना, (३) परिवर्तना - पुनः - पुनः स्मरण करना, (४) धर्मकथा - धर्मचर्चा या धर्मोपदेश करना । धर्मध्यान की दृढ़ता के लिए चार प्रकार की अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का भी उल्लेख हुआ है ( १ ) एकत्वानुप्रेक्षा - जीव के एकाकीपन के विषय में चिन्तन, (२) अनित्यानुप्रेक्षा - शरीर पुद्गल आदि की अनित्यता के सम्बन्ध में चिन्तन, (३) अशरणानुप्रेक्षा - संसार धर्म के सिवाय कोई शरणभूत नहीं है, इस विषय की विचारणा, (४) संसारानुप्रेक्षा - संसार स्वरूप की विचारणा । धर्मध्यानी अपनी समस्त चित्तवृत्तियों को मोड़कर इन भावनाओं, आलम्बनों व लक्षणों के स्वरूप पर एकाग्र कर लेता है। वह निरन्तर इन्हीं विषयों का ही ध्यान करता हुआ अपने आत्म-परिणामों को विशुद्ध करने का प्रयत्न करता है। (४) शुक्लध्यान जो ध्यान आत्मा में लगे कर्मफल को तीव्रता के साथ दूर करता है वह शुक्लध्यान है । इसके द्वारा निर्मल आत्म-स्वरूप की प्रतीति होने लगती है । इसके चार भेद हैं (१) पृथक्त्व वितर्क सविचार, (२) एकत्व वितर्क सविचार, (३) सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति, (४) व्युपरतक्रियाऽनिवृत्ति । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १३३ * पहले प्रकार के ध्यान में तीन शब्द हैं-एक पृथक्त्व, दूसरा वितर्क और तीसरा विचार। पृथक्त्व का अर्थ है-भिन्नता, वितर्क का अर्थ है-श्रुत ज्ञान और विचार का अर्थ है-एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर, अर्थ से शब्द पर, शब्द से अर्थ पर तथा एक योग से दूसरे योग पर चिन्तन करना। इस प्रकार इसमें पूर्वानुसारी श्रुत का अवलम्बन लेकर तथा किसी एक द्रव्य को ध्यान का विषय बनाकर, यानी चेतन या अचेतन पदार्थ में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप भंगों को तथा मूर्त्तत्व अमूर्त्तत्व पर्यायों पर अनेक नयों की अपेक्षा से भेद-प्रधान चिन्तन भिन्न-भिन्न रूप से किया जाता है। इसमें चिंतन का परिवर्तन होता रहता है। इसमें वितर्क और विचार दोनों ही रहते हैं। दूसरे प्रकार के शुक्लध्यान में वितर्क, यानी श्रुत का आलम्बन तो होता है किन्तु विचार, यानी चित्तवृत्ति में परिवर्तन नहीं होता। किसी भी एक पर्याय पर चित्तवृत्ति निष्कम्प दीपशिखा के समान स्थिर हो जाती है। एक ही ध्येय पर चित्तवृत्ति के स्थिर रहने के कारण इसे एकत्व वितर्क शुक्लध्यान कहा जाता है। इसमें चित्त की वृत्ति अभेद-प्रधान होती है। मन के निश्चल एवं पूर्ण शान्त हो जाने के कारण अरिहन्त दशा प्रकट होने लगती है। तीसरे प्रकार में जब केवली भगवान सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन लेकर शेष योगों का निरोध कर देते हैं तब केवल श्वासोच्छ्वास की क्रिया ही शेष रहती है। उस समय जो आत्म-परिणति होती है उसे सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपाति के नाम से जाना जाता है। अप्रतिपाति इसलिए कि वहाँ से पुनः पतन नहीं होता है। यह ध्यान अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर ही होता है। चौथे प्रकार में सर्वज्ञ केवली श्वासोच्छ्वास का भी निरोध कर अयोगी बन जाते हैं। तब उनके आत्म-परिणाम निष्कम्प हो जाते हैं। शैलेशी दशा में वे आ जाते हैं। इस अवस्था में समस्त कर्म क्षय हो जाते हैं और आत्मा परमात्मा बन सिद्धत्व को प्राप्त होता है। शुक्लध्यान के तीसरे व चौथे पाए (भेद) में वितर्क या श्रुत के आलम्बन की कोई आवश्यकता नहीं रहती, केवल पहले और दूसरे में श्रुत का आलम्बन आवश्यक रहता है। गुणस्थानों की दृष्टि से पहले दो बादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय गुणस्थान वालों के होते हैं। बाद के दो शुक्लध्यान केवली भगवान के होते हैं। योगों की दृष्टि से पहले में मन, वचन व काय तीनों योगों का अवलम्बन होता है, दूसरे में तीनों योगों में से किसी एक योग का, तीसरे में काययोग का अवलम्बन होता है किन्तु चौथे में किसी भी योग का अवलम्बन नहीं होता है क्योंकि यह अयोगीकेवली को होता है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १३४ उन्नीसवाँ बोल : ध्यान चार शुक्लध्यानी जीव के चार लक्षण होते हैं (१) अव्यय, यानी उपसर्गों में आत्म-स्वभाव से विचलित न होना, (२) असम्मोह, यानी सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों में भी भ्रांत चित्त न होना तथा देवादिकृत माया- इन्द्रजाल आदि से भी सम्मोहित न होना, (३) विवेक, आत्मा और शरीर आदि का दृढ़ भेदविज्ञान, हेय, ज्ञेय, उपादेय का वास्तविक और विवेकपूर्ण निश्चय ज्ञान का होना, (४) व्युत्सर्ग, यानी निःसंग या असंग होना । शुक्लध्यान के लिए चार आलम्बन हैं - (१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) मुक्ति । शुक्लध्यान की स्थिरता के लिए चार प्रकार की अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का उल्लेख है- (9) अनन्तवर्तित अनुप्रेक्षा, (२) विपरिणामानुप्रेक्षा, (३) अशुभानुप्रेक्षा, (४) अपायानुप्रेक्षा । ( आधार : स्थानांग, स्थान ४, समवायांग ४) प्रश्नावली १. ध्यान के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए ध्यान के लिए कौन-सी बातें प्रमुख हैं? बताइए | २. शुभ और अशुभ ध्यान से क्या तात्पर्य है? ये कितने प्रकार के कहे गए हैं? ३. किस कारण से वर्तमान युग में धर्मध्यान तो व्यक्ति कर सकता है किन्तु शुक्लध्यान नहीं ? ४. ध्यान और ध्यान - प्रवाह में क्या अन्तर है ? स्पष्ट कीजिए । ५. ध्यान का उत्कृष्ट काल क्या है? ६. गुणस्थानों की दृष्टि से चारों प्रकार के ध्यान की स्थितियों का वर्णन कीजिए। ७. धर्मध्यान और शुक्लध्यान के भेदों का नामोल्लेख कीजिए । ८. विपाकविचय और पृथक्त्व वितर्क सविचार किस ध्यान के भेद हैं? Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ बोल : षड्द्रव्य और उनके भेद ( विश्व के घटक रूप छह द्रव्यों का विवेचन ) (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, (३) आकाशास्तिकाय, (४) काल द्रव्य, (५) जीवास्तिकाय, (६) पुद्गलास्तिकाय । . जैनदर्शन में 'द्रव्य' एक पारिभाषिक शब्द है । द्रव्य की अनेक परिभाषाएँ जैनशास्त्रों में व्यवहृत हैं। इन समस्त परिभाषाओं का जो सार है, वह यह है कि गुणों का आश्रय या गुणों का पुञ्ज द्रव्य कहलाता है। गुण क्या है ? शक्ति - विशेष को गुण कहते हैं। गुण शाश्वत होते हैं। इनका अस्तित्व सदा बना रहता है किन्तु इनमें परिणमन अवश्य होता है। गुणों के परिणमन को पर्याय कहा जाता है जैसे आत्मा की ज्ञान - शक्ति विशेष ज्ञानगुण है और इस ज्ञानगुण के परिणमन से मतिज्ञान आदि रूप पर्यायें बनती हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में गुण और पर्याय होते हैं। बिना इन दोनों के द्रव्य का कोई अस्तित्व नहीं है अर्थात् द्रव्य गुण - पर्यायवत् होता है। द्रव्य में गुण सदैव व सहभावी रूप में रहते हैं जैसे आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुण और पर्याय क्रमभावी रूप में। कोई भी एक पर्याय द्रव्य में सदा एक-सी नहीं रहती है। उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य होता रहता है, जैसे- आत्मा की क्रोधादि कषाय रूप परिणति या पर्याय चिरस्थायी नहीं है। पुद्गल के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श; ये पुद्गल के गुण हैं जो पुद्गलों में सदा सहभावी रूप में बने रहते हैं किन्तु घट, पट आदि पर्यायें बदलती रहती हैं, ये क्रमभावी हैं। इसी प्रकार हम मनुष्य पर्याय को समझ सकते हैं। मनुष्य-पर्याय में जो मनुष्य है, यानी मनुष्य की जो आत्मा है और उसमें जो गुण हैं वे तो सदा बने ही रहते हैं । वे कभी नष्ट नहीं होते हैं किन्तु इसमें शिशु अवस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि अनेक पर्याय बदलती रहती हैं। ये पर्याय अवान्तर पर्याय 1 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १३६ * बीसवाँ बोल ः षड्द्रव्य और उनके भेद कहलाती हैं, यानी एक पर्याय के अन्तर्गत दूसरी पर्याय । मनुष्य - पर्याय में शिशु आदि की पर्याय अवान्तर पर्याय है । गुण और पर्याय में जो मूलभूत अन्तर है वह यह है गुण, द्रव्य में सहभावी रूप में और पर्याय क्रमभावी रूप में रहते हैं। दूसरा गुणों की न कभी उत्पत्ति होती है और न विनाश, वे तो सदा एक-से रहते हैं जबकि पर्यायों की उत्पत्ति भी होती है और विनाश भी। तीसरा एक-एक गुण में अनन्त पर्यायों का होना भी सम्भव है। यानी एक द्रव्य में अनन्त गुण हो सकते हैं और एक गुण में अनन्त पर्यायें भी हो सकती हैं। गुण- पर्याय के आधार पर द्रव्य उत्पन्न भी होता है और नष्ट भी होता है साथ ही इसका अस्तित्व भी सदा बना रहता है, यानी द्रव्य की सत्ता भी है और परिवर्तन भी है। इस प्रकार जैनदर्शन में गुण- पर्याय वाले द्रव्य का स्वरूप सत्, यानी सत्ता (Existence — एक्सिस्टेन्स) को माना गया है। 'सत्' का लक्षण है - उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त जो है वह सत् है । इन तीनों में ध्रौव्य द्रव्य के गुण से सम्बद्ध है और उत्पाद व व्यय द्रव्य की पर्यायों से सम्बन्धित हैं। जैसे - स्वर्ण एक द्रव्य है। कंगन उसकी एक अवस्था है या पर्याय है। स्वर्णकार उसको बदलकर माला या अन्य कोई चीज बना देता है। जो चीज वह बनाता है उसमें स्वर्ण द्रव्य तो पूर्ववत् ध्रौव्य बना रहता है। इसमें कंगन पर्याय नष्ट होकर माला पर्याय आदि में बदल जाता है। अतः स्वर्ण द्रव्य का सत् लक्षण उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य तीनों से युक्त है। इसी प्रकार जीव द्रव्य के सम्बन्ध में समझ सकते हैं। जीव है वह कभी मनुष्य होता है तो कभी पशु, पक्षी, देव। इस प्रकार उसकी पर्यायें-अवस्थाएँ बदलती रहती हैं और इस परिवर्तन में जीव (Soul - सोल) सदा स्थिर रहता है। इस प्रकार द्रव्य तीन लक्षणों से सदा युक्त रहता है-एक सत् स्वभाव, दूसरा उत्पाद, व्यय, धौव्ययुक्त और तीसरा गुण व पर्यायवश । ये त्रिविध लक्षण प्रत्येक द्रव्य में प्रतिक्षण घटित होते रहते हैं । इस दृष्टि से लोक में जितने भी द्रव्य हैं, उतने ही द्रव्य सदा अवस्थित रहते हैं। प्रत्येक द्रव्य की यह विशेषता है कि वह कभी भी एक-दूसरे में बदलता नहीं है। लोक में सारे द्रव्य स्वतंत्र अस्तित्व वाले होते हैं और ये स्वतंत्र परिणमन करते हैं अर्थात् ये न एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं और न ही एक-दूसरे में परिवर्तित होते हैं। विज्ञान जगत् में भी यह बात स्वीकृत है जिसकी पुष्टि डॉ. हेनशा के मत से होती है । यथा - "These elements are all separate in our mind. We cannot imagine that one of them could depend Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : १३७ on another or converted into another. — दी एलीमेण्ट्स आर ऑल सेपरेट इन अवर माइण्ड । वी केन नॉट इमेजिन दैट वन ऑफ देम कुड डिपेण्ड ऑन एनदर और कनवर्टिड इनटू एनदर ।" जैनदर्शन में द्रव्यों के इन लक्षणों के आधार पर 'परिणामी नित्यत्ववाद' की भी कल्पना की गई है। इसकी तुलना रासायनिक विज्ञान के द्रव्याक्षरत्ववाद से की जा सकती है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक लेवोसियर ने इसकी स्थापना करते हुए कहा कि "इस अनन्त विश्व में द्रव्य का परिणाम सदा समान रहता है । उसमें किसी भी प्रकार की कमी या बढ़ोतरी नहीं होती है, न किसी वर्तमान द्रव्य का पूर्ण नाश होता है और न किसी नए द्रव्य की पूर्ण उत्पत्ति होती है। यह नाश और उत्पत्ति तो द्रव्य का रूपान्तर है । जैसे कोयला जलकर राख बन जाता है, पर वह नष्ट नहीं होता। वायुमण्डल में ऑक्सीजन अंश के साथ मिलकर कार्बोनिक एसिड गैस के रूप में बदल जाती है, वैसे ही शक्कर या नमक आदि पानी में घुलकर नष्ट नहीं होते अपितु ठोस रूप से बदलकर द्रव्य रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। प्रकाश, तापमान, चुम्बकीय आकर्षण आदि का ह्रास नहीं होता अपितु वे एक-दूसरे में परिवर्तित हो जाते हैं आदि-आदि। इस प्रकार द्रव्यों का त्रिविध लक्षण इनमें प्रतिक्षण घटित होता रहता है, यानी किसी भी द्रव्य का नाश या उत्पाद होना जिसे समझा जाता है वह उसका रूपान्तर में परिणमन मात्र है।" गुण की अपेक्षा से द्रव्य नित्य है, ध्रौव्य है और पर्याय की अपेक्षा से परिणमनशील है, अनित्य है, जिसका उत्पाद और व्यय दोनों हैं। इस प्रकार द्रव्य अपने मूल स्वभाव या स्वरूप को कभी नहीं त्यागता है । यद्यपि इसकी अवस्थाएँ बदलती रहती हैं फिर भी इसका स्वरूप वही रहता है। लोक में अनन्त द्रव्य हैं। इन्हें छह भागों में विभक्त किये जाने से ये 'षड्द्रव्य' कहलाते हैं। यथा (१) धर्म द्रव्य, (२) अधर्म द्रव्य, (३) आकाश द्रव्य, (४) काल द्रव्य, (५) जीव द्रव्य, (६) पुद्गल द्रव्य । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १३८* बीसवाँ बोल : षड्द्रव्य और उनके भेद इन षड्द्रव्यों में केवल काल द्रव्य को छोड़कर शेष पाँचों द्रव्य अस्तिकाय रूप हैं। अस्तिकाय का अर्थ है प्रदेशों का समूह, यानी पाँचों द्रव्य प्रदेश समूहात्मक होने से अस्तिकाय कहलाते हैं। केवल काल ही एक ऐसा द्रव्य है जिसके प्रदेश समूह नहीं होते हैं अतः यह केवल काल द्रव्य कहलाता है। इन द्रव्यों में मूलतः दो द्रव्य हैं-एक जीव द्रव्य और दूसरा अजीव द्रव्य। अजीव द्रव्य के पाँच भेद हैं-(१) धर्म, (२) अधर्म, (३) आकाश, (४) काल, (५) पुद्गल। ये पाँचों द्रव्य और छठा जीव द्रव्य इस प्रकार छहों द्रव्य मिलकर लोक की स्थापना करते हैं। (१) धर्मास्तिकाय (Fulcrum of Motion-फलक्रम ऑफ मोशन) जो धर्म अमूर्तिक, अखण्ड, अदृश्य, लोक में सर्वत्र व्याप्त तथा जीव और पुद्गल के गमन में उदासीन व मूल सहायक हों, वे धर्म द्रव्य (Fulcrum of motion-फलक्रम ऑफ मोशन) हैं। गतिशक्ति जीव और पुद्गल की स्वयं की है परन्तु धर्म उसमें केवल सहकारी कारण बनता है। बिना इसके ये स्वभावतः गतिशील होते हुए भी गति नहीं कर सकते हैं। यह द्रव्य इनके गमनागमन के लिए प्रेरित नहीं करता है, अपितु सहायता करता है। जैसे-जल, मछली को चलने के लिए प्रेरित नहीं करता है केवल चलने में सहायक होता है, मछली तो स्वयं गतिशील है। वैसे ही इस द्रव्य के बिना जीव और पुद्गल की स्थिति बनी रहती है। अतः धर्मास्तिकाय न तो स्वयं चलती है और न किसी को चलाती है। यह तो एक प्रकार से गति का माध्यम (Medium of motion—मीडियम ऑफ मोशन) है। विज्ञान में इसकी तुलना प्रकाशकीय माध्यम (Luminous ether ल्यूमिनस ईथर) से की जा सकती है। वैज्ञानिक ईथर की सत्ता को स्वीकारते हैं। यह ईथर ही एक प्रकार से जैनदर्शन का धर्मास्तिकाय है। ईथर के अभाव में न तरंगें चल सकती हैं, न ध्वनि के परमाणु गमन कर सकते हैं और न विद्युत् तरंगें, न लेसर किरणें आदि गति (Movement-मूवमेण्ट) कर सकती हैं। इतना ही नहीं पशु-पक्षी, मानव आदि सभी क्रियाएँ रुक जायेंगी। सारा लोक जड़वत् स्थिर रह जायेगा। यही बात धर्मास्तिकाय के साथ है। अतः यह एक महत्त्वपूर्ण द्रव्य है। १. "The Nature of Physical World.” –डॉ. ए. एस. एडिंग्टन, पृष्ठ ३१ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल * १३९ * धर्मास्तिकाय के पाँच भेद हैं(१) द्रव्य से एक, (२) क्षेत्र से लोक प्रमाण, (३) काल से आदि-अन्तरहित, (४) भाव से वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शरहित, अरूपी, अजीव, शाश्वत, लोकव्यापी, (५) गुण से हलचल गुण। (२) अधर्मास्तिकाय (Fulcrum of Rest-फलक्रम ऑफ रेस्ट) - यह द्रव्य धर्म द्रव्य के विपरीत स्वभाव वाला द्रव्य है। इसके अन्य सभी लक्षण धर्म द्रव्य के समान हैं केवल गुणों में भिन्नता है। गुण की दृष्टि से धर्म द्रव्य जहाँ गति में आश्रयभूत है वहीं यह अधर्म द्रव्य स्थिति में आश्रयभूत है। यानी यह जीव-पुद्गल के ठहरने में सहायक है। यह भी प्रेरणात्मक नहीं है। इसको स्थिरता का माध्यम (Medium of rest-मीडियम ऑफ रेस्ट) भी कह सकते हैं। इसके अभाव में एक बार गति में आया हुआ पदार्थ कभी रुकेगा नहीं, सर्वत्र चलता रहेगा। इसी के द्वारा वैज्ञानिकों का गुरुत्वाकर्षण (Forces of gravitation-फोर्सेस ऑफ ग्रेविटेशन) व विद्युत् चुम्बकीय शक्तियाँ (Electromagnetism एलेक्ट्रोमेगनेटिज्म) काम करती हैं। इसी द्रव्य के कारण सौरमण्डल में समस्त ग्रह अवस्थित हैं। अणु में इलेक्ट्रॉन प्रोटोन से अलग नहीं होता और परमाणु का स्वरूप शाश्वत बना रहता है। यह द्रव्य अन्य पदार्थों को स्थिर रखता है, टुकड़े-टुकड़े होकर बिखरने से रोकता है। इसके भी पाँच भेद हैं (१) द्रव्य से एक, (२) क्षेत्र से लोक प्रमाण, (३) काल से आदि-अन्तरहित, (४) भाव से वर्ण, गंध, रस, स्पर्शरहित, अरूपी, अजीव, शाश्वत, लोकव्यापी, . (५) गुण से स्थिर गुण। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १४० * बीसवाँ बोल : षड्द्रव्य और उनके भेद (३) आकाशास्तिकाय (space-स्पेस) यह द्रव्य सभी द्रव्यों को अवकाश, यानी स्थान-आश्रय देता है। सभी द्रव्यों का आधार आकाश है और आकाश स्वयं अपना आधार है। आकाश को छोड़कर समस्त द्रव्य आधेय हैं। जिस प्रकार दूध में पताशा समा जाता है उसी प्रकार आकाश में सारे द्रव्य समाहित हैं। इसके पाँच भेद हैं- . (१) द्रव्य से एक, (२) क्षेत्र से लोकालोक प्रमाण, (३) काल से आदि-अन्तरहित, (४) भाव से वर्ण, गंध, रस, स्पर्शरहित, अरूपी, अजीव, शाश्वत, सर्वव्यापी, (५) गुण से अवकाशवान गुण। आकाश को जब अमूर्त्तिक माना गया है तो उसका आसमानी रंग हमें क्यों दिखाई देता है। इसका समाधान यह है कि यह रंग जो हमें दिखाई देता है वह आकाश का नहीं है। आकाश तो जैसा यहाँ है वैसा ही सर्वत्र है। यह रंग जो दिखाई दे रहा है वह दूर स्थित रजकणों का है। रजकण हमारे आसपास भी घूमते रहते हैं फिर भी सामीप्य के कारण दिखाई नहीं देते। दूरी व सघनता के कारण वही रजकण आसमानी वर्ण में दिखाई देने लगते हैं। जैसे-ऊँचे से बादल एक सघन पिण्ड के रूप में दिखाई देते हैं, पर निकट आने पर वे ऐसा प्रतीत नहीं होते। दूर से आकाश जमीन को स्पर्श करता हुआ दीखता है पर सामीप्य आने पर ऐसा नहीं है। _जैनदर्शन में आकाश के दो भेद किए गए हैं-एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश। लोकाकाश में सभी द्रव्यों का अवगाहन है परन्तु अलोकाकाश में केवल आकाश द्रव्य ही है। वहाँ धर्म, काल आदि कोई द्रव्य नहीं है। यानी आकाश में जहाँ तक धर्म-अधर्म अस्तिकाय की अवस्थिति है, वहाँ तक लोकाकाश है और उससे आगे अलोकाकाश। लोकाकाश परिमित है जबकि अलोकाकाश अपरिमित है, अनन्त है। इस बात की पुष्टि वैज्ञानिक जगत् में भी हुई है। लोक-अलोक के विषय में वैज्ञानिक अल्वर्ट आइन्स्टीन, डी. सीटर, पोइनकेर आदि की मान्यताएँ भिन्न-भिन्न हैं। आइन्स्टीन लोक को परिमित, Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १४१ * - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - सान्त मानता है जबकि डी. सीटर आदि इसको अपरिमित और अन्तरहित मानते हैं। इन दोनों की मान्यताओं को यदि लोक और अलोक की दृष्टि से देखा जाए तो जैनदर्शन में वर्णित आकाश के स्वरूप में पर्याप्त समानता है। आइन्स्टीन का लोक जैनदर्शन का लोकाकाश और डी. सीटर का लोक जैनदर्शन का अलोकाकाश है। (४) काल द्रव्य सभी द्रव्यों के परिणमन में यह उदासीन सहायक कारण है। इसके द्वारा पुराने पदार्थ नए और नए पुराने होते हैं अर्थात् प्रतिक्षण पदार्थों की जो पर्याय बदल रही है उसका निमित्त या सहकारीकरण काल है। काल के सूक्ष्मतम अन्त्य अणु कालाणु हैं जो रत्न राशिवत् परस्पर स्वतंत्र हैं, अतः यह अस्तिकाय नहीं है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा से काल के पाँच भेद हैं (१) द्रव्य से एक, (२) क्षेत्र से अढाई द्वीप प्रमाण, (३) काल से आदि-अन्तरहित, (४) भाव से वर्ण, गंध, रस, स्पर्शरहित, अरूपी, शाश्वत, अढाई द्वीपवर्ती, (५) गुण से वर्तनागुण, नए को पुराना और पुराने को नया करने वाला। जैनागम में काल के दो रूप बताए गए हैं-एक निश्चय काल और दूसरा व्यवहार काल। वर्तना लक्षण को निश्चय काल कहते हैं। मुहूर्त, रात-दिन, घड़ी, मिनट, घण्टादि समय से जाना जाने वाला काल व्यवहार काल है। यह केवल मनुष्यलोक में ही व्याप्त है। इसका आधार सूर्य और चन्द्रमा की गति है। काल के इस विभाजन की पुष्टि वैज्ञानिक ऐडिंग्टन ने भी की है। काल के विभाग द्वारा ही आयुष्य आदि की गणना की जाती है। गणना की दृष्टि से काल के तीन भेद हैं-एक संख्येय काल, दूसरा असंख्येय काल और तीसरा अनन्त काल। जिस काल की गणना ज्ञात संख्या द्वारा की जा सकती है वह संख्येय काल, जिस काल की गणना अज्ञात संख्या से की जा सकती है वह असंख्येय काल है, जैसे-पल्योपम, सागरोपम आदि तथा जिस काल की गणना ही नहीं हो सकती वह अनन्त काल है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १४२ : बीसवाँ बोल : षड्द्रव्य और उनके भेद काल का परम सूक्ष्म भाग 'समय' कहलाता है । समय नापने की विधि में भी विज्ञान जगत् और जैनदर्शन में अद्भुत साम्य है। दोनों ही गति - क्रियारूप स्पंदन के माध्यम से समय का परिमाण निश्चित करते हैं । ' आधुनिक विज्ञान जैनदर्शन के काल सम्बन्धी इस तथ्य को स्वीकारता है जिसमें कहा गया है कि काल पदार्थों के परिणमन, क्रियाशीलता व घटनाओं के निर्माण में भाग लेता है। वैज्ञानिक आइन्स्टीन, जिन्सवर्गसन ने सिद्ध किया है कि विश्व में काल द्रव्य की सत्ता के बल पर ही क्षण-क्षण में परिवर्तन हो रहा है। काल एक क्रियात्मक सत्ता (Dynamic reality — डायनेमिक रियेलिटी) है। वैज्ञानिक ऐडिंग्टन तो यहाँ तक कहते हैं कि "काल पदार्थ से भी अधिक वास्तविक भौतिक है।" आइन्स्टीन और लॉरेन्स समीकरणों से यह सिद्ध करते हैं कि “गति के तारतम्य से पदार्थ की आयु में संकोच - विस्तार होता है ।" वे आगे कहते हैं कि "देश और काल मिलकर एक है और वे चार डायमेन्शन्स में अपना काम करते हैं । विश्व के चतुरायाम संधरण में दिक्काल की स्वाभाविक अतिव्याप्ति से गुजरने के प्रयत्न लाघव का फल ही मध्याकर्षण होता है। देश और काल परस्पर स्वतंत्र सत्ताएँ हैं ।”२ (५) जीवास्तिकाय प्राणशक्ति जिसमें हो, वह जीव है अर्थात् प्राण धारण करने वाला द्रव्य, पदार्थ, जीव है। प्राण का लक्षण है चेतना, उपयोग, यानी जानना एवं संवेदनशील होना। ये लक्षण सभी जीवों में घटित होते हैं चाहे वे संसारी जीव हों, चाहे मुक्त जीव हों । प्राण दो प्रकार के कहे गए हैं - एक भाव प्राण और दूसरा द्रव्य प्राण | द्रव्य प्राण दस प्रकार के कहे गये हैं । भाव प्राण ज्ञान, दर्शन आदि हैं। संसारी जीवों में दोनों प्रकार के प्राण होते हैं किन्तु मुक्त जीवों में केवल भाव प्राण होते हैं। इस प्रकार मुक्त आत्माओं का भी प्राण धारण करने वाले जीवों में समावेश हो जाता है । विज्ञान ने जीव के जो लक्षण निर्धारित किए हैं, वे सभी लक्षण केवल संसारी जीवों पर ही लागू होते हैं, सिद्ध या मुक्त जीवों पर नहीं । १. नवनीत, मई १९६२, पृष्ठ ७० २. ज्ञानोदय, विज्ञान अंक, पृष्ठ ५९ तथा ११४ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : १४३ जैनदर्शन में जीवों का वर्गीकरण अनेक दृष्टि से हुआ है, जैसे- गति की दृष्टि से, इन्द्रियों की दृष्टि से, काया की दृष्टि से आदि -आदि । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव व गुण की अपेक्षा से भी अन्य द्रव्यों की भाँति जीवद्रव्य के भी पाँच भेद हैं - (१) द्रव्य से जीव अनन्त हैं, (२) क्षेत्र से लोक प्रमाण हैं, (३) काल से आदि - अन्तरहित हैं, (४) भाव से वर्ण, गंध, रस, स्पर्शरहित, अरूपी, जीव, शाश्वत व लोकवर्ती, (५) गुण से चेतना या उपयोग गुण। (६) पुद्गलास्तिकाय (Matter — पेटर ) पुद्गल वह द्रव्य है जिसमें पूर्ण व गलन, यानी एकत्रित व पृथक् होने की क्रियाएँ होती हैं। जिसके कारण पदार्थों की पर्यायों में या अवस्थाओं में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। मिलने व अलग होने का स्वभाव इसमें सदा बना रहता है। यह वर्ण, गंध, रस व स्पर्श से युक्त होता है। यह एक परमाणु से लेकर स्कन्ध तक हो सकता है। यानी परमाणु अलग-अलग हो जाते हैं और ये सब मिलकर पुनः स्कन्ध रूप में परिणत हो जाते हैं । यह अविभाज्य पिण्ड नहीं है, अपितु विभाज्य है । द्रव्य, क्षेत्रादि की अपेक्षा से इसके पाँच भेद हैं (१) द्रव्य से अनन्त, (२) क्षेत्र से लोक प्रमाण, (३) काल से आदि - अन्तरहित, * (४) भाव से वर्ण, गंध, रस, स्पर्श सहित, रूपी, अजीव, शाश्वत व लोकवर्ती, (५) गुण से पूरण- गलन गुण । पुद्गल द्रव्य अनेक प्रकार के होते हैं । यथा - अणु, द्वयणुक, त्रयणुक, संख्येय, असंख्येय, अनन्त, अनन्तानन्त प्रदेश । इन सबमें दो ही मूल हैं - एक अणु और दूसरा स्कन्ध । अणु भेद, यानी पृथक्-पृथक् होने से उत्पन्न होता है जबकि स्कन्ध संघात से, भेद से और संघात - भेद दोनों से उत्पन्न होता है। आँखों से दिखाई देने वाला स्कन्ध भेद और संघात दोनों से ही निर्मित है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १४४ * बीसवाँ बोल : षड्द्रव्य और उनके भेद - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - पुद्गल के चार गुण प्रमुख हैं-(१) स्पर्श, (२) रस, (३) गंध, (४) वर्ण। इन चारों के बीस भेद हैं जिनमें स्पर्श के आठ, रस के पाँच, गंध के दो तथा वर्ण के पाँच भेद हैं। इनके भी उत्तर-भेद असंख्यात हैं। पुद्गल की अनेक पर्याय हैं जिनमें दस प्रमुख हैं। यथा-(१) शब्द, (२) बंध, (३) सूक्ष्मता, (४) स्थूलता, (५) संस्थान (आकृति), (६) भेद, (७) तम, (८) छाया, (९) आतप (उष्ण प्रकाश), (१०) उद्योत (शीतल प्रकाश)। इनके भी अनेक भेद-प्रभेद हैं। वास्तव में स्थूलता व सूक्ष्मता पुद्गल द्रव्य की पर्याय हैं। जब पुद्गल स्कन्ध सूक्ष्म पर्याय रूप परिणमन करते हैं तो दिखाई नहीं देते हैं और जब वे स्थूल पर्याय रूप परिणमन करते हैं तो दिखाई देने लगते हैं। जैसे-हाइड्रोजन एक गैस है, ऑक्सीजन भी एक गैस है। ये दोनों दिखाई नहीं देती हैं किन्तु जब हाइड्रोजन के दो अणु और ऑक्सीजन का एक अणु मिलते हैं या परस्पर क्रिया करते हैं तो पानी बनता है और वह हमें दिखाई देता है। यथा-H2 (हाइड्रोजन) + 0 (ऑक्सीजन) = H2O (पानी)। यानी हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के रूप में पुद्गल सूक्ष्म पर्याय रूप परिणमन कर रहे थे तब हमें दृष्टिगोचर नहीं थे किन्तु अब जल के रूप में स्थूल पर्याय रूप परिणमन कर रहे हैं तो दृष्टिगोचर हैं। जैनदर्शन शब्द, आतप, उद्योत और विद्युत् को पुद्गल की पर्याय मानता है, विज्ञान उन्हें ऊर्जा (Energy-एनर्जी) के रूप में स्वीकारता है। पहले विज्ञान पदार्थ या द्रव्य और ऊर्जा को अलग-अलग मानता था, अब आइन्स्टीन ने इन दोनों को एक ही समान सिद्ध कर दिया है। इसके अनुसार पदार्थ अपने स्थूल रूप को नष्ट करके सूक्ष्म रूप ऊर्जा में परिणत हो जाता है। आधुनिक विज्ञान ने सौ से अधिक तत्त्वों की जो खोज की है वे सब जैन दृष्टि में पुद्गल की पर्याय हैं। इन तत्त्वों के बारे में विज्ञान भी यही कहता है कि वे किसी भी रासायनिक क्रिया से अपने स्वरूप और धर्म का परित्याग नहीं करते। जैसेसोना, चाँदी, लोहा, गंधक, पारा आदि ये तत्त्व हैं। इनको यदि गर्म या ठंडा किया जाए तो ये तरल या वाष्पीय बन जायेंगे, पर इनमें से कोई दूसरा पदार्थ नहीं निकल सकता। जैसे-सोना सोना ही रहेग, चाँदी चाँदी ही रहेगी। इन तत्त्वों के मेल से जो नया पदार्थ बनेगा, वह मिश्र ही होगा। इस तरह विज्ञान में पदार्थ व शक्ति में भेद न रहकर केवल स्थूलत्व व सूक्ष्मत्व का ही भेद रह गया है। एक ही भौतिक तत्त्व पुद्गल की 'शक्ति' सूक्ष्म रूप है और ठोस, द्रव्य और वायु स्थूल रूप। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १४५ * पुद्गल की अनेक विशेषताएँ हैं जिनका समर्थन वैज्ञानिकों ने भी किया है। ये कतिपय-प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं (१) गतिशीलता, (२) अप्रतिघातित्व, (३) परिणामी-नित्यत्व, (४) सघनता व सूक्ष्मता। (आधार : उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन २८) प्रश्नावली १. द्रव्य किसे कहते हैं? इसके लक्षणों को सोदाहरण समझाइए। २. "लोक में जितने भी द्रव्य हैं उतने ही द्रव्य सदा अवस्थित हैं और स्वतंत्र परिणमन करते हैं।" इस कथन के आशय को स्पष्ट कीजिए। ३. परिणामी नित्यत्ववाद और द्रव्याक्षरत्ववाद से आप क्या समझते हैं? । ४. षड्द्रव्यों के नामों का उल्लेख करते हुए अन्य द्रव्यों की भाँति काल द्रव्य को अस्तिकाय क्यों नहीं माना गया है? विज्ञान का ईथर और गुरुत्वाकर्षण किन द्रव्यों से सम्बन्धित है? उन द्रव्यों के स्वरूप पर प्रकाश डालिए। ६. लोकाकाश और अलोकाकाश से क्या तात्पर्य है? ७. आकाश अमूर्त है तो उसका आसमानी रंग क्यों दिखाई देता है? ८. आधुनिक विज्ञान जैनदर्शन के काल सम्बन्धी जिन तत्त्वों को स्वीकारता है उन्हें संक्षेप में समझाइए। ९. पुद्गलों के गुण व पर्यायों का नामोल्लेख कीजिए। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ बोल : राशि दो (जीव और अजीव का वर्णन) (१) जीव राशि, (२) अजीव राशि। प्रस्तुत बोल में राशि का वर्णन किया गया है। राशि का आशय है-समूह, समुदाय, वर्ग आदि। सम्पूर्ण लोक राशियों से भरा पड़ा है। बिना राशियों के लोक का कोई अस्तित्व नहीं है। जब तक राशियाँ हैं, तब तक लोक है। जहाँ राशियाँ नहीं, वहाँ लोक भी नहीं। ये राशियाँ दो प्रकार की हैं-एक जीव राशि और दूसरी अजीव राशि। लोक में जितने भी पदार्थ हैं वे इन दोनों में ही अन्तत हैं। जीव राशि चेतन पदार्थों का समूह है जबकि अजीव राशि अचेतनं या जड़ पदार्थों का समूह है। लोक में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो चेतन और अचेतन (जड़) पदार्थों में न समा सके। लोक में जितने भी चेतनायुक्त पदार्थ हैं या प्राणवान जीव हैं चाहे वे संसारी हों या सिद्ध-मुक्त जीव हों, वे सब जीव राशि में ही समाहित हैं। इसी प्रकार धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य आदि समस्त जड़ पदार्थ या तत्त्वादि अजीव राशि में परिगणित हैं। यानी जैनदर्शन के षड्द्रव्य और नव तत्त्व इन्हीं दो राशियों में गर्भित हैं। ये इनसे पृथक् नहीं हैं। लोक के स्वरूप, उसकी स्थिति आदि का जब हम चिन्तन करते हैं तब इन राशियों की संख्या में विस्तार हो जाता है फिर ये राशियाँ दो नहीं, छह हो जाती हैं जिन्हें षड्द्रव्य भी कहा जाता है किन्तु आत्मा के अस्तित्व, इसके मुक्त और बद्ध होने आदि के बारे में हमारी जिज्ञासा जब बढ़ने लगती है तब इन राशियों की संख्या दो से नौ तक पहुँच जाती है। इससे एक बात स्पष्ट है कि जीव और अजीव इन दो राशियों को समझे बिना न तो हम लोक को समझ सकते हैं और न लोक में होने वाले क्रिया-कलाप या कार्य-संचालन को ही जान सकते हैं। इस दृष्टि से इन दोनों राशियों की महत्ता सर्वोपरि है। छह राशियाँ इस प्रकार हैं (१) धर्मास्तिकाय, (२) अधर्मास्तिकाय, Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १४७* - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - (३) आकाशास्तिकाय, (४) काल द्रव्य, (५) पुद्गलास्तिकाय, (६) जीवास्तिकाय। इनमें पहली पाँच राशियाँ अजीव राशि कहलाती हैं और शेष एक द्रव्य, यानी जीवास्तिकाय को जीव राशि कहते हैं। इन षड्द्रव्यों के स्वरूपादि के बारे में सम्पूर्ण जानकारी होते ही हमारे मानस-पटल पर सम्पूर्ण लोक या विश्व का संस्थान उभरने लगता है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय एक-दूसरे के प्रतिपक्षी हैं। धर्मास्तिकाय गतिशीलता और सक्रियता में सहायक है। विश्व में जो भी कुछ हलचल, कम्पन-प्रकम्पन तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म स्पंदन आदि होते हैं उन सबमें धर्मास्तिकाय की ही भूमिका रहती है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय है। इसका उपकार ठहरने या स्थिरता या निष्क्रियता में है। यद्यपि यह सक्रियता और निष्क्रियता पदार्थों की स्व-शक्ति का परिणाम है। किन्तु इन दोनों के सहयोग बिना ये असम्भव है। तीसरा द्रव्य आकाशास्तिकाय है। यह सभी द्रव्यों या पदार्थों का आश्रयदाता है। सम्पूर्ण लोक आकाश पर ही टिका हुआ है और आकाश स्व-प्रतिष्ठित है। चौथा द्रव्य है काल। लोक के मुख्य भाग में अढ़ाई द्वीप समस्त क्रिया-कलापों का विधिवत् संचालन काल द्रव्य से ही सम्भव है। पाँचवाँ द्रव्य है पुद्गल। पुद्गल के अभाव में जीवों का निर्वहन असम्भव है क्योंकि श्वास-प्रश्वास से लेकर सभी जैविक क्रियाओं में पौद्गलिक वस्तुएँ ही काम में आती हैं। शरीर अपने आप में पुद्गल है। मन, वचन व काय की समस्त प्रवृत्तियों के संचालन में पुद्गल ही सहायक बनते हैं। छठा द्रव्य है जीवास्तिकाय। जीव चेतनाशील होने के कारण इन षड्द्रव्यों का उपयोग करता है। इस प्रकार षड्द्रव्यों के परिज्ञान से लोक या विश्व को जाना जा सकता है क्योंकि षड्द्रव्यों का समूह ही लोक है। इनका वर्णन बीसवें बोल में किया जा चुका है। लोक स्वरूप के ज्ञान में अजीव राशि के अन्तर्गत पदार्थ या द्रव्यों का जितना सम्बन्ध है उतना कदाचित् सम्बन्ध जीव की विभिन्न दशाओं का नहीं है। आत्म-साधना या आत्म-विकास में जीवों की अवस्थाओं का विशेष महत्त्व है। जीव के आध्यात्मिक विकास में नव तत्त्वों की भूमिका अनिर्वचनीय है। ये नव तत्त्व इस प्रकार हैं Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ : इक्कीसवाँ बोल : राशि दो (१) जीव तत्त्व, (२) अजीव तत्त्व, (३) पुण्य तत्त्व, (४) पाप तत्त्व, (५) बन्ध तत्त्व, (६) आस्रव तत्त्व, (७) संवर तत्त्व, (८) निर्जरा तत्त्व, (९) मोक्ष तत्त्व | ----‒‒‒‒‒‒‒‒‒‒ इनमें जीव और अजीव ही प्रमुख हैं। पुण्य, पाप और बंध के द्वारा आत्मा बँधती है। पुण्य से सुख और पाप से दुःख मिलते हैं। आस्रव कर्मद्वार है, संवर कर्मों को रोकता है, निर्जरा बँधे हुए कर्मों को नष्ट करती है। समस्त कर्मों से मुक्त होने पर आत्मा निर्विकार, कर्ममलरहित परम शुद्धावस्था में पहुँच जाती है। इस प्रकार चार तत्त्व - पुण्य, पाप, बंध और आस्रव - मोक्ष में बाधक हैं और संवर और निर्जरा मोक्ष के साधक हैं। इन नव तत्त्वों में पुण्य, पाप, बंध, अजीव ये चार तत्त्व अजीव राशि में और संवर, निर्जरा, मोक्ष और जीव ये तत्त्व जीव राशि में रखे गए हैं। षड्द्रव्यों में और नव तत्त्वों में जो विशेषता है वह यह है कि षड्द्रव्यों में जीव राशि का कोई विभाग नहीं है जबकि नव तत्त्वों में जीव राशि के पाँच विभाग हैं। इसी प्रकार षड्द्रव्यों में पाँच द्रव्य अजीव के कहे गए हैं और नव तत्त्वों में केवल चार तत्त्व ही अजीव के हैं। इस बात को हम निम्न समीकरण से समझ सकते हैं। यथा षड्द्रव्य : = एक जीव राशि + पाँच अजीव राशि नव तत्त्व = पाँच जीव राशि + चार अजीव राशि इससे यही सिद्ध होता है कि सम्पूर्ण लोक में दो ही राशियाँ व्याप्त हैं- एक जीव राशि और दूसरी अजीव राशि | विभिन्न दृष्टियों से जैनागम में जीव राशि के कुल ५६३ भेद और अजीव राशि के ५६० भेद किए गए हैं। जीव राशि जीव में, साधु में, श्रावक में, सर्वसंसारी जीवों में, लोक में, षड्द्रव्यों में तथा अजीव राशि अजीव में पायी जाती है। ( आधार: समवायांग, सूत्र २) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल + १४९ * प्रश्नावली १. राशि से क्या तात्पर्य है? मूल रूप से ये राशियाँ कितने प्रकार की कही गई २. “सम्पूर्ण लोक राशियों से भरा पड़ा है।" इस कथन को स्पष्ट कीजिए। ३. षड्द्रव्यों के परिप्रेक्ष्य में जीव और अजीव राशि को समझाइए। ४. नव तत्त्वों के आधार पर जीव-अजीव राशि के बारे में बताइए। ५. जीव और अजीव राशि के कुल कितने भेद हैं? ये राशियाँ कहाँ पर पायी जाती Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ बोल : श्रावक के बारह व्रत ( श्रावक के बारह व्रतों का स्वरूप और उनकी उपयोगिता) पाँच अणुव्रत (१) अहिंसा अणुव्रत, (२) सत्य अणुव्रत, (३) अस्तेय अणुव्रत, (४) ब्रह्मचर्य अणुव्रत, (५) अपरिग्रह अणुव्रत । तीन गुणव्रत (१) दिशा परिमाण व्रत, (२) भोगोपभोग परिमाण व्रत, (३) अनर्थदण्ड विरमण व्रत । चार शिक्षाणुव्रत (१) सामायिक व्रत, (२) देशावकाशिक व्रत, (३) पौषध व्रत, (४) अतिथि संविभाग व्रत । संसार में दो ही मार्ग हैं - एक आध्यात्मिक मार्ग और दूसरा राग या संसार का मार्ग । आध्यात्मिकता की ओर ले जाने वाला मार्ग अध्यात्म का मार्ग है, यानी मोक्ष का मार्ग है और संसार की ओर ले जाने वाला मार्ग संसार का मार्ग है, यानी विषय-वासनाओं को, भौतिक, सांसारिक लिप्साओं, प्रलोभनों, स्वार्थ और भय आदि को बढ़ाने वाला मार्ग संसार का मार्ग है। मोक्षमार्ग पर चलने वाला गृहस्थ श्रावक कहलाता है जिनमें पुरुषवर्ग श्रावक हैं और स्त्रीवर्ग श्राविका । श्रावक-श्राविका श्रद्धापूर्वक श्रमणधर्म का श्रवण करते हैं और यथाशक्ति उस पर आचरण भी करते हैं। उनका चित्त विरक्त रहता है। वे Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १५१ * विवेकवान अर्थात् सम्यक्त्वी होते हैं। शास्त्रीय शब्दावली में वे पंचम गुणस्थानवर्ती होते हैं। ऐसे श्रावक-श्राविकाएँ या उपासक-उपासिकाएँ यावज्जीवन अपने आचरण को सुदृढ़ बनाए रखने के लिए अपनी समस्त प्रवृत्तियों को आत्मोन्मुखी रखते हैं, यानी उनकी वृत्तियाँ निवृत्तिपरक होती हैं। निवृत्ति के लिए वे व्रतों का पालन करते हैं। व्रतों के माध्यम से ही वे मर्यादापूर्वक निष्ठा के साथ संकल्पबद्ध होकर श्रमणधर्म पर स्वेच्छा से चल सकते हैं अर्थात् कर्मों की निर्जरा करते हुए अपनी आत्मा को परिशुद्ध कर स्वयं परमात्मा बन सकते हैं। जैनधर्म में व्रत के दो रूप हैं। यथा-(१) अणुव्रत, (२). महाव्रत। अंशतः या एकदेशीय व्रत अणुव्रत और सर्वदेशीय या सर्वतः व्रत महाव्रत कहलाता है। श्रावक अणुव्रत का पालन करता है और साधु या साधक महाव्रत को साधता है। श्रावक-श्राविका के लिए यह व्यावहारिक नहीं है कि वह गृहस्थ में रहकर महाव्रतों का पालन कर सके। अतः श्रावक-श्राविका अपने सामर्थ्य और शक्ति के अनुसार अंश रूप में अर्थात् अणु रूप में अपने जीवन को व्रतमय बना सकते हैं। अणुव्रत से आत्मा की संसार या सांसारिक सुख-भोग आदि की अनादिकालीन मूर्छा टूटती तो है परन्तु इसमें संसार का रागभाव अंश रूप में बना ही रहता है। चूंकि इसमें रागभाव अंश रूप में बना रहता है तो व्रती के त्याग रूप परिणाम कैसे हो सकते हैं ? इसलिए ऐसा व्रत जिसमें रागभाव पूर्णरूपेण समाप्त नहीं हुआ हो किन्तु कम अवश्य हुआ हो, महाव्रत नहीं, अणुव्रत कहलाता है। जैसे-धूल से आच्छादित एक दर्पण है, वायु के संयोग से इस पर कुछ अंश में यदि धूल हट जाए तो उतने ही अंश में दर्पण की उज्ज्वलता परिलक्षित हो उठेगी। इसी प्रकार आत्मा में अनन्तकाल से आच्छादित मोह-मूर्छा जितने अंश में हटती या टूटती है उतने ही अंश में वह विरतिपूर्वक व्रत. ग्रहण कर लेता है, ऐसा व्रत अणुव्रत कहलाता है और अणुव्रतों के पालने वाले को श्रावक कहते हैं। अणुव्रती श्रावक सामान्यतः तीन योग अर्थात् मन, वचन, काय से और दो करण अर्थात् कृत व कारित से व्रत को ग्रहण करता है, यानी. हिंसादि सावध प्रवृत्ति का त्याग करता है। ___ इस बोल में श्रावक के बारह व्रतों का उल्लेख हुआ है। ये बारह व्रत इस प्रकार हैं (१) पाँच अणुव्रत, Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १५२ : बाईसवाँ बोल : श्रावक के बारह व्रत (२) तीन गुणव्रत, (३) चार शिक्षाव्रत । -----‒‒‒‒‒ पाँच अणुव्रत इसके पाँच भेद हैं। संसार के समस्त पाप इन पाँचों में ही समा जाते हैं । इनसे मुक्ति के लिए एक सम्यक्त्वी गृहस्थ या श्रावक पाँच अणुव्रतों को अंगीकार करता है। ये पाँच अणुव्रत 'पंचाणुव्रत' कहलाते हैं। यथा (१) अहिंसाणुव्रत, (२) सत्याणुव्रत, (३) अस्तेयाणुव्रत, (४) ब्रह्मचर्याणुव्रत, (५) अपरिग्रहाणुव्रत । (१) अहिंसाणुव्रत अहिंसाणुव्रत को स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत भी कहते हैं। इसमें अहिंसाव्रत का पालन स्थूल रूप में किया जाता है। इसमें श्रावकों की अहिंसा देशविरति होती है | श्रावक पाँच स्थावर जीवों की हिंसा का परित्याग नहीं कर सकता वह तो केवल त्रस जीवों की और उनमें भी निरपराध जीवों की हिंसा का त्याग कर सकता है, यानी संकल्पी हिंसा का वह पूर्ण रूप से त्याग करता है | श्रावक ऐसी कोई भी प्रवृत्ति नहीं कर सकता जिसमें स्थूल हिंसा की सम्भावना हो । उसकी अहिंसा तीन योग व दो करणपूर्वक होती है। अहिंसाणुव्रती श्रावक में "मेत्ती मे सव्वभूएस वेरं मज्झ न केणइ ।” अर्थात् सब प्राणियों के साथ मेरी मित्रता रहे। किसी के साथ द्वेष या वैर भावना न हो, • ऐसे सद्विचार सदा सजग रहते हैं । इससे परस्पर वैमनस्य व विरोध का अन्त होता है। दया, करुणा व सद्भावना समाज में व्याप्त रहती है। अतः अहिंसाणुव्रत का धर्म के साथ-साथ सामाजिक और राष्ट्रीय महत्त्व भी है। अहिंसाणुव्रत का शुद्ध रूप से पालन करने के लिए जैनशास्त्रों में पाँच दोषों से बचने के लिए श्रावकों को बताया है (१) किसी जीव को मारना, पीटना, त्रास देना, (२) किसी को अंग-अंग करना, अपंग बनाना, विरूप करना, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १५३ * - - - - - - ----------------------------------------------------- (३) किसी को बंधन में डालना, यथा-चिड़िया, कबूतर, तोता, मैना आदि को पिंजड़े में बंद करना, कुत्ते को रस्सी से बाँधे रखना, साँप को पिटारे में बंद करना आदि, (४) घोड़े, बैल, भैंसा, खच्चर, ऊँट आदि जानवरों पर सामान्य से अधिक बोझ लादना, नौकरों से अधिक काम लेना आदि, (५) अपने आश्रित जीवों को समय पर भोजन-पानी न देना। (२) सत्याणुव्रत दूसरा अणुव्रत है सत्याणुव्रत। इसे स्थूल मृषावाद विरमण व्रत भी कहते हैं। श्रावक के जीवन में सूक्ष्म असत्य का त्याग असम्भव है। किन्तु वह स्थूल सत्य के व्रत को अंगीकार कर सकता है। इसके लिए उसे प्रमादरहित जीवन जीना होता है जिससे किसी निर्दोष की हत्या न हो सके। इस व्रत को पालने वाला श्रावक कभी भी वह बात नहीं कहता जो सत्य न हो, यानी वह असत का व्यवहार नहीं करता है। जो बात है उसे उसी रूप में कहता है। सत्य वचन के साथ-साथ वह हित, मित का भी ध्यान रखता है। अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए या दूसरों को हानि या नुकसान पहुंचाने की भावना से सत्य को विकृत रूप में प्रस्तुत नहीं करता है। वह हर दृष्टि से स्थूल असत्य से बचने का सतत प्रयास करता है। श्रावक अहिंसाणव्रत की तरह इस व्रत का पालन भी तीन योगों व दो करणों से करता है। इस व्रत की भी बड़ी महत्ता है। इस व्रत के पालन करने वाले में विश्वास की भावना बढ़ती है। सारे सांसारिक कार्य विश्वास पर ही चलते हैं। बिना विश्वास के कोई भी कार्य, व्यवसाय, कारोबार, लेन-देन आदि नहीं हो सकते। इसलिए व्यवहार में भी सत्यव्रत अपेक्षित है। सत्याणुव्रत के पालने के लिए निम्न पाँच दोषों से श्रावक को बचना चाहिए (१) दूसरे पर मिथ्या दोषारोपण करना, (२) किसी की गुप्त बात प्रकट करना, (३) पत्नी आदि के साथ विश्वासघात करना, (४) दूसरे को गलत सलाह या राय देना, (५) जालसाजी करना, झूठे दस्तावेज आदि लिखना। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १५४ * बाईसवाँ बोल : श्रावक के बारह व्रत (३) अस्तेयाणुव्रत तीसरा अणुव्रत है अस्तेयाणुव्रत । इसे स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत भी कहते हैं | श्रावक के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह सम्पूर्ण प्रकार से चोरी का परित्याग करे | वह केवल स्थूल रूप से ही इस व्रत को अंगीकार कर सकता है। वह यह संकल्प ले सकता है कि सचित्त - अचित्त कैसी भी वस्तु हो, उसके अधिकार में हो या दूसरे के अधिकार क्षेत्र में हो वह अनध्यवसायपूर्वक उस वस्तु को बिना मालिक के पूछे ग्रहण नहीं करेगा, ऐसा अस्तेय अणुव्रत कहलाता है । जो वस्तु अपनी नहीं है उस वस्तु का उपभोग न करना एक प्रकार से अस्तेय अणुव्रत है। यानी इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि कोई भी श्रावक डाका, राहजनी से ताला तोड़कर, लूट-खसोटकर या अन्य हिंसात्मक तरीकों से बड़ी चोरी करने का त्याग करता है उसका यह त्याग अस्तेय अणुव्रत कहलाता है। जिस चोरी से राजदण्ड मिलता हो, अपयश - अपमान मिलता हो, निंदा होती हो, वह कार्य घृणित है और ऐसी चुराई हुई वस्तु का ग्रहण करना हितकारी नहीं है। ऐसा करने से श्रावक अस्तेयव्रत को भंग करता है । यह भी अन्य अणुव्रतों की तरह तीन योग व दो करणपूर्वक होता है। स्थूल चोरी का परित्याग करने वाले का जीवन व्यावहारिक दृष्टि से और भी अधिक विश्वस्त तथा प्रामाणिक बन जाता है। चोरी एक प्रकार का व्यसन है । सामाजिक उन्नति और स्थायी शान्ति के लिए इस व्यसन का त्याग अपेक्षित है अतः अस्तेयाणुव्रत राष्ट्रीय व सामाजिक स्तर पर अत्यन्त उपयोगी है। प्रत्येक श्रावक को इस व्रत की सुरक्षा के लिए निम्न पाँच दोषों से बचना चाहिए ------------ (१) चोरी का माल खरीदना, (२) चोर को चोरी करने में सहयोग देना, (३) राज्य - राष्ट्र के विरुद्ध कार्य करना, जैसे- उचित कर आदि न देना, (४) न्यूनाधिक नाप-तोल करना, (५) मिलावट करके अशुद्ध पदार्थ बेचना । (४) ब्रह्मचर्याणुव्रत चौथा अणुव्रत ब्रह्मचर्य अणुव्रत । वेश्यागमन व पर-स्त्रीगमन इन दो व्यसनों का त्याग तथा अपनी स्त्री के साथ मर्यादापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन ब्रह्मचर्य अणुव्रत कहलाता है । इसी प्रकार स्त्री का पर-पुरुष के साथ सम्बन्ध Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १५५ * ------------- -------- ------------ ------------------------------------------- को लेकर समझ सकते हैं। इस व्रत को स्वदार सन्तोष व्रत भी कहते हैं। यह व्रत भी तीन योगों व एक अथवा दो करणपूर्वक होता है। इस अणुव्रत का पालन धार्मिक, सामाजिक व नैतिक आदि दृष्टियों से श्रेयस्कर है। ब्रह्मचर्य से आत्म-विश्वास व आत्म-बल बढ़ता है। श्रावक न्यायमार्ग पर सदा आरूढ़ रहता है। अतः इस व्रत की गरिमा सर्वविदित है। इस अणुव्रत की सुदृढ़ता के लिए प्रत्येक श्रावक को निम्न पाँच बातों से सर्वथा बचना चाहिए। यथा (१) किसी रखैल आदि के साथ कुसम्बन्ध स्थापित करना, (२) कुमारी या वेश्या आदि के साथ गमन करना, (३) अप्राकृतिक रूप से मैथुन सेवन करना, (४) अपना दूसरा विवाह करना तथा दूसरों के विवाह सम्बन्ध स्थापित करते फिरना, (५) कामभोग की तीव्र अभिलाषा रखना। (५) अपरिग्रहाणुव्रत पाँचवाँ अणुव्रत है अपरिग्रह अणुव्रत। इस व्रत को स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत तथा इच्छा परिमाण व्रत भी कहते हैं। यह भी तीन योग व दो करणपूर्वक होता है। परिग्रह पाप का मूल कहा गया है। क्योंकि इसके द्वारा ही अन्य पाप पनपते हैं। किन्तु श्रावक जीवन में सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग असम्भव है। अतः परिमाणानुसार परिग्रह रखते हुए मर्यादापूर्वक जीवन बिताना अपरिग्रह अणुव्रत कहलाता है। जैनागम में परिग्रह के नौ भेद किए गए हैं। यथा(१) क्षेत्र, (२) वास्तु, (३) हिरण्य, (४) सुवर्ण, (५) धन, (६) धान्य, (७) द्विपद, (८) चतुष्पद, (९) कुप्य या गोप्य। अपरिग्रह-अणुव्रती श्रावक इन नौ प्रकार के परिग्रहों में परिमाणपूर्वक एवं आवश्यकता के आधार पर मर्यादापूर्वक इनका ग्रहण व संग्रह करता है। क्योंकि उसे घर-संसार में रहकर जीवन व्यतीत करना होता है। अपरिग्रही अणुव्रती पदार्थों का आवश्यकता से अधिक कभी भी संचय नहीं करता है। इस अणुव्रत के पालने से श्रावक के जीवन में तृष्णा, लालसा कम होती है जिससे वह परम शक्ति व सन्तोष का अनुभव करता है। यह अणुव्रत सार्वजनिक हिताय के अनुकूल है। इस व्रत से समाज में समानता बढ़ती है। इस अणुव्रत की रक्षा के लिए प्रत्येक अणुव्रती श्रावक को निम्न बातों से दूर रहना चाहिए Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *१५६ * बाईसवाँ बोल : श्रावक के बारह व्रत (१) मकानों, दुकानों तथा खेतों की मर्यादा को किसी भी बहाने से बढ़ाना, (२) स्वर्ण, चाँदी आदि के परिमाण को भंग करना, (३) द्विपद, यानी नौकर आदि, चतुष्पद, यानी गाय, घोड़ा आदि के परिमाण का उल्लंघन करना, (४) मुद्रा, जवाहरात आदि की मर्यादा को भंग करना, (५) दैनिक व्यवहार में आने वाले वस्त्र, पात्र, आसन आदि पदार्थों के लिए परिमाण का उल्लंघन करना। तीन गुणव्रत अहिंसादि पंचाणुव्रतों को पुष्ट करने वाले और उनमें अभिवृद्धि तथा रक्षा करने वाले व्रत उत्तर व्रत कहलाते हैं। इनके दो भेद हैं-एक गुणव्रत और दूसरा शिक्षाव्रत। श्रावक इन व्रतों को यावत् जीवन ग्रहण करता है। गुणव्रत तीन प्रकार के कहे गए हैं (१) दिशा परिमाण व्रत, (२) भोगोपभोग परिमाण व्रत, (३) अनर्थदण्ड विरमण व्रत। (१) दिशा परिमाण व्रत दिशाएँ दस प्रकार की होती हैं। यानी चार दिशा, चार विदिशा, एक ऊर्ध्व दिशा और एक अधो दिशा। इस प्रकार इस गुणव्रत के द्वारा इन सभी दिशाओं का परिमाण निर्धारित कर अपने व्यापार आदि सावध कार्य के लिए गमनागमन करता है, यानी आने-जाने की सीमा निर्धारित करता है। इस व्रत में क्षेत्र की मर्यादा रखी जाती है। जैसे-अमुक दिशा में इतनी दूरी से अधिक गमनागमन नहीं करूँगा। वर्तमान काल में इस व्रत का महत्त्व अत्यधिक है। सभी राष्ट्र अपनी राजनीतिक और आर्थिक सीमाएँ निश्चित कर लें तो बहुत से संघर्ष स्वतः समाप्त हो सकते हैं। इस व्रत से समाज में शोषण व आक्रमण-जैसी प्रवृत्तियों का नाश हो सकता है। (२) भोगोपभोग परिमाण व्रत भोग का अर्थ है एक बार भोग के काम में आने वाली खाद्यादि वस्तुएँ, जैसे-जल, अन्नादि और उपभोग का अर्थ है बार-बार भोग के काम में आने Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : १५७ वाली वसनादि वस्तुएँ, जैसे- वस्त्र, मकान, शय्या आदि। इन वस्तुओं का परिमाण या मर्यादा रखना भोगोपभोग परिमाण व्रत कहलाता है। इसमें श्रावक व्यर्थ की वस्तुओं का संचय नहीं करता है। ऐसा करने में उसे कोई कष्ट या अभाव का अनुभव नहीं होता है। श्रावक कर्मादान का भी त्याग करता है । कर्मादान उन व्यवसायों को कहा जाता है जिनमें अत्यधिक आरम्भ और हिंसा होती है। आत्म-परिणामों में क्रूरता भी अधिक रहती है । कर्मादान की संख्या पन्द्रह बतायी गई है। यथा - ( 9 ) अंगार कर्म, (२) वन कर्म, (३) शकट कर्म, (४) भाट कर्म, (५) स्फोट कर्म, (६) दन्त वाणिज्य, (७) लाक्षा वाणिज्य, (८) रस वाणिज्य, (९) केश वाणिज्य, (१०) विष वाणिज्य, (११) यन्त्र पीलन कार्य, (१२) दावाग्नि दायन कर्म, (१३) सरोहृद तड़ाग शोषणता कर्म, (१४) निर्लांच्छन कर्म, (१५) असतीजन पोषणता कर्म । इनके अतिरिक्त मत्स्यपालन, मुर्गीपालन आदि भी कर्मादान में समाविष्ट हैं। भोगोपभोग की छब्बीस प्रकार के पदार्थों की सूची उवासगदशासूत्र, अध्ययन १ में दी गई है। इनके अतिरिक्त स्कूटर, कार, टी. वी., टेप, ट्रांजिस्टर आदि वस्तुएँ भी इसमें समाविष्ट हैं। इस व्रत के माध्यम से जहाँ भोगोपभोग की वस्तुओं का परिमाण निर्धारित किया गया है वहाँ हिंसाजन्य अहितकर व्यवसायों के भी त्याग की बात कही गई है, ताकि श्रावक अहिंसक ढंग से अपनी आजीविका का उपार्जन कर सके। यह व्रत श्रावक के आत्म-कल्याण में तो सहायक है ही साथ ही देश की उन्नति और आत्म-निर्भरता में भी बड़ा उपयोगी है। (३) अनर्थदण्ड विरमण व्रत तीसरे प्रकार का गुणव्रत है अनर्थदण्ड विरमण व्रत । बिना प्रयोजन के हिंसा आदि पापों का त्याग अनर्थदण्ड विरमण गुणव्रत है। श्रावक प्रयोजनवश हिंसादि करता है, जैसे- अग्निकाय, जलकाय आदि स्थावर जीवों की हिंसा, भोजन आदि बनाने में हिंसा, बगीचे में भ्रमण करते समय फूल-पत्ते को तोड़ लेना, हरी घास को तोड़ लेना आदि किन्तु इस गुणव्रत के द्वारा वह बिना प्रयोजन के हिंसादि पापों से अपने को दूर रख सकता है। वह न तो किसी के प्रति अपने मन में अशुभ विचार लाता है और न ही हिंसक उपकरणादि, जैसेचाकू, छुरी आदि किसी को देता है । वह हिंसात्मक कार्यों को करने के लिए उपाय भी नहीं बताता है। वह अपनी सारी प्रवृत्ति सावधानीपूर्वक करता है जिससे अधिक से अधिक पापों से बचा जा सके। यह गुणव्रत आत्म-कल्याण के साथ-साथ नागरिक दृष्टि से भी उपयोगी और उपादेयी है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १५८* बाईसवाँ बोल : श्रावक के बारह व्रत - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - चार शिक्षाव्रत ___ इसमें श्रावक धर्माराधना करता है। वह धर्म के साथ अपनी जीवनचर्या को स्थिर रखता है। श्रावक बार-बार व्रतों का अभ्यास करता रहता है जिससे उसकी समस्त प्रवृत्तियाँ निवृत्तिपरक हो जाएँ और श्रावक जीवन योग्य साधना की ओर धीरे-धीरे अग्रसर हो सके। अणुव्रत और गुणव्रत जीवन में एक ही बार ग्रहण किए जाते हैं किन्तु शिक्षाव्रत बार-बार ग्रहण किए जाते हैं क्योंकि ये व्रत समयबद्ध होते हैं अर्थात् कुछ समय के लिए ही होते हैं। शिक्षाव्रत चार प्रकार के कहे गए हैं। यथा- . (१) सामायिक व्रत, (२) देशावकाशिक व्रत, (३) पौषध व्रत, (४) अतिथि संविभाग व्रत। (१) सामायिक व्रत सामायिक शिक्षाव्रत को पालने वाला श्रावक नियमित दो समय की सामायिक करता है। सामायिक में वह कम से कम एक मुहूर्त अर्थात् अड़तालीस मिनट का धर्मध्यान करता है जिससे सांसारिक कार्यों या सावध कर्मों से उसे मुक्ति मिल सके। सामायिक से श्रावक अपने भीतर समभाव जगाता है जिससे श्रावक अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में शांत रह सके। श्रावक की सामायिक दो करण और तीन योग से अल्पकाल के लिए की जाती है। साधक को सामायिक से आत्म-शान्ति मिलती है। (२) देशावकाशिक व्रत दिशा परिमाण व्रत में ग्रहण की हुई दिशाओं का परिमाण तथा अन्य व्रतों में ली हुई मर्यादाओं को और भी कम कर साथ ही आंशिक रूप से पौषध करना, दया पालना, संवर करना तथा चौदह प्रकार के नियमों, जैसे-सचित्त, द्रव्य, विगय, जूते-चप्पल आदि पान-सुपारी, फल-फूल, माला आदि पहनने-ओढ़ने के वस्त्र, रिक्शा आदि वाहन का प्रयोग शयन, विलेपन, स्नान, दिशा, ब्रह्मचर्य तथा भत्त आदि की मर्यादा को कम करना देशावकाशिक शिक्षाव्रत है। यह शिक्षाव्रत का दूसरा व्रत है। यह व्रत श्रावक अपनी शक्ति व Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : १५९ सामर्थ्य तथा परिस्थिति के अनुसार एक घड़ी से लेकर एक दिन तक या इससे भी अधिक समय के लिए कर सकता है। देशावकाशिक व्रत श्रावक को भोग्य पदार्थों की असारता पर प्रकाश डालते हुए उसे आत्म-संयम की ओर प्रवृत्त करता है । यदि श्रावक भोग्य पदार्थों का एक साथ इतनी लम्बी अवधि के लिए त्याग नहीं कर सकता है तो अल्प समय के लिए धीरे-धीरे इन पदार्थों से विरक्त रहने का अभ्यास करे। यह व्रत श्रावक में आत्म-कल्याण के साथ-साथ आत्म- बल व मनोबल भी बढ़ाता है तथा स्वास्थ्य की रक्षा भी करता है । (३) पौधष व्रत यह व्रत धर्म - साधना को पुष्ट करने वाला व्रत है। इसमें आहार, शरीर, शृंगार, व्यापार आदि सभी कार्यों से विमुख होकर एक दिन-रात, यानी अष्ट प्रहर तक उपाश्रय आदि शान्त स्थान में रहकर धर्मध्यान, आत्म- गुणों का चिंतवन तथा पंच परमेष्ठी का गुण - स्मरण आदि किया जाता है। पौषध उपवास में आहार, शरीर, अब्रह्मचर्य तथा सावद्य क्रियाओं का त्याग किया जाता है इस व्रत के चार रूप हैं। यथा 1 (१) आहार पौषध, (२) शरीर पौषध, (३) ब्रह्मचर्य पौषध, (४) अव्यापार पौषध । इस व्रत को श्रावक वर्ष में कम से कम एक बार तो अवश्य करता है जिससे उसको आत्मिक आनन्द मिलता है, स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। (४) अतिथि संविभाग व्रत घर-द्वार पर आए हुए अतिथि को अपने न्यायोपार्जित धन में से विधिपूर्वक आहार आदि देना अतिथि संविभाग व्रत है। अतिथि का यहाँ अभिप्राय सम्यक्त्वी साधु से है । प्रत्येक श्रावक-श्राविका का यह कर्त्तव्य है कि वह साधु को शुद्ध व निर्दोष दान की भावना रखे । श्रावक इस व्रत के माध्यम से अपने घर पर बनी हुई वस्तुओं को अंशदान में देता है। यह दान सुपात्रदान है। ऐसे दान से श्रावक में आत्म-संयम की प्रवृत्ति बढ़ती है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १६० * बाईसवाँ बोल : श्रावक के बारह व्रत इस प्रकार श्रावक के ये बारह व्रत का प्रत्येक श्रावक-श्राविका को पालन करना चाहिए जिससे उसमें मोह-माया का अंश कम हो और आत्म-साधना में प्रवृत्त होकर मानव जीवन, जो दुर्लभ माना गया है, उसको सार्थक करे। (आधार : उवासगदशा, अध्ययन १) प्रश्नावली १. व्रत से क्या तात्पर्य है? व्रत हमारे लिए किस प्रकार से उपयोगी हैं? २. अणुव्रत किसे कहते हैं? यह महाव्रत से किस प्रकार भिन्न है? सोदाहरण समझाइए। ३. श्रावक से आप क्या समझते हैं? श्रावक के व्रतों का नामोल्लेख कीजिए। ४. पंचाणुव्रत कौन-कौन-से हैं? संक्षेप में इनके स्वरूप को स्पष्ट कीजिए साथ ही इनके दोषों को गिनाइए। ५. अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत के अन्तर को स्पष्ट करते हुए शिक्षाव्रतों के स्वरूप पर प्रकाश डालिए। ६. गुणव्रत के भेदों को बताते हुए प्रत्येक का वर्णन कीजिए। ७. कर्मादान से आप क्या समझते हैं? यह किस व्रत में आया है? Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ बोल : साधु के पाँच महाव्रत (पंच महाव्रतों का स्वरूप) (१) अहिंसा महाव्रत, (२) सत्य महाव्रत, (३) अस्तेय महाव्रत, (४) ब्रह्मचर्य महाव्रत, (५) अपरिग्रह महाव्रत । श्रमण साधक या साधु की साधना और उसका समग्र जीवन महाव्रतों पर आधारित है। साधु आत्म-कल्याण के लिए मन, वचन व कर्म से सांसारिक भोग-विलासिता को त्यागकर तप, संयम, ध्यान में लीन रहता है । उसका ध्यान भी आर्त्त व रौद्र ं नहीं, धर्मध्यान व शुक्लध्यान होता है। वह तीनों योगों से व तीनों करणों (कृत, कारित व अनुमोदना) से अपने जीवन को पंच पापों से मुक्त रखने का सतत प्रयास करता है और इसके लिए वह महाव्रतों का आश्रय लेता है। यानी श्रमण साधु पापों को पूर्ण रूप से त्याग कर महाव्रतों को धारण करता है। वह न तो स्वयं कोई पाप करता है, न किसी अन्य से पाप करवाता है और न पाप करने वालों का अनुमोदन या समर्थन ही करता है। मन से, वचन से, काया से भी ऐसी कोई चेष्टा नहीं करता जिससे पाप का अनुमोदन या समर्थन होता हो। एक-एक पाप की विरति के लिए एक-एक व्रत निर्धारित है । जैसे- हिंसा पाप की विरति के लिए अहिंसा महाव्रत आदि -आदि । महाव्रत का अर्थ है सर्वदेशीय व्रत । यानी वह व्रत जिसमें पूर्णता हो, कहीं कोई स्थूल या सूक्ष्म छूट न हो । सर्वतः विरति हो । महाव्रतों का पूर्ण रूप से और जीवन पर्यन्त पालन किया जाता है। इनका पालन करना अत्यन्त कठिन है इसलिए इन महाव्रतों का पालन वही कर सकता है जिसका लक्ष्य आध्यात्मिक जीवन पर चलकर आत्म-स्वरूप को प्रकट करना हो और इसके लिए उसने स्वेच्छा से प्रतिज्ञा या संकल्प लिया हो अर्थात् श्रमण साधु ही महाव्रतों का पालन कर सकते हैं। महाव्रत पाँच प्रकार के कहे गए हैं। यथा(१) अहिंसा महाव्रत, Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *१६२ * तेईसवाँ बोल : साधु के पाँच महाव्रत -------------------------------------------------- (२) सत्य महाव्रत, (३) अस्तेय महाव्रत, (४) ब्रह्मचर्य महाव्रत, (५) अपरिग्रह महाव्रत। (१) अहिंसा महाव्रत प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जीव हिंसा का सर्वथा त्याग अहिंसा महाव्रत है। अहिंसक साधु स्थूल व सूक्ष्म हिंसा से बचने के लिए अपने लिए भोजन भी, जो जीवन के लिए मूलभूत आवश्यकता है, न तो स्वयं बनाता है और न दूसरों से बनवाता है। वह हिंसाजनित पदार्थों का उपयोग भी नहीं करता है। गृहस्थ स्वेच्छा से जब तक साधु को निरवद्य भावनाओं से शुद्ध भोजन नहीं देता, साधु उस भोजन को नहीं लेता है। श्रमण साधु के लिए दोनों प्रकार की हिंसा-स्थूल और सूक्ष्म सर्वथा त्याज्य हैं। साधु पाँच समितियों व तीन गुप्तियों अर्थात् अष्ट प्रवचन माता के साथ अपने जीवन का निर्वहन करते हैं। श्रमण साधु जीवों की हिंसा न होने पाए इसके लिए रजोहरण का उपयोग करते हैं। सो किसी मिट्टी को स्पर्श तक नहीं करते हैं जिसमें जीव हों। मिट्टी जब तक किसी विरोधी द्रव्य के संयोग से जीवरहित न हो गयी हो, तब तक वे मिट्टी को ग्रहण नहीं करते हैं। साधु कुएँ का जल, नदी, तालाब व वर्षा आदि का जल, जो जीव सहित होता है, कच्चा या सचित्त होता है, को भी ग्रहण नहीं करते हैं। वे सदा प्रासुक और छने हुए जल का ही उपयोग करते हैं। श्रमण साधु अग्नि को भी स्पर्श नहीं करते हैं क्योंकि इसमें अग्निकाय जीव होते हैं। इसी प्रकार हरी वनस्पतियाँ जिसमें सचित्तता हो उसका भी प्रयोग नहीं करते हैं, जब तक वनस्पतियाँ अग्नि या विरोधी द्रव्यों के संयोग से अचित्त या जीवरहित नहीं हो जातीं। __ जैनागम में अहिंसाव्रत के लिए कहा गया है कि श्रमण साधु पृथ्वी को न कुरेदे और न उसका भेदन करे। सचित्त मिट्टी, क्षार, हरिताल, हिंगुल आदि से लिप्त हाथ व चम्मच से भिक्षा न ले। सचित्त पृथ्वी और मिट्टी के रजकणों से सने हुए आसन पर न बैठे। मल, मूत्र, श्लेष्म आदि का उत्सर्ग भी अचित्त पृथ्वी पर करे। पृथ्वीकाय की किसी भी प्रकार की हिंसा न करे। __ श्रमण साधु किसी की भावनाओं को आहत नहीं करते हैं। दुष्ट से दुष्ट प्रकृति के मनुष्यों या हिंसक जीव-जन्तुओं के आक्रमण का न तो प्रतिरोध करते हैं और न प्रतिशोध लेते हैं, अपितु शान्तिपूर्वक सहिष्णु बने रहते हैं। वे Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १६३ * - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - सदा समभावी और समदृष्टि रहते हैं। क्योंकि साधु की दृष्टि में यह सूक्ष्म हिंसा है। जीव का घात हो अथवा न हो, शारीरिक कष्ट हो अथवा न हो यदि उन्हें कोई मानसिक पीड़ा या कष्ट होता है तो वे इसे भी हिंसा ही मानते हैं। ___ जैनागम में अहिंसा महाव्रत की परिपालना के लिए पाँच भावनाओं का उल्लेख हुआ है। इन भावनाओं के चिंतन-अनुचिंतन से श्रमण साधु में अहिंसा के संस्कार सुदृढ़ बनते हैं। ये भावनाएँ प्राणातिपात विरमण रूप में हैं। ये पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं (१) ईर्या समिति भावना, (२) मनः समिति भावना, (३) वचन समिति भावना, (४) ऐषणा समिति भावना, (५) आदान निक्षेपण समिति भावना। इस प्रकार साधु इस महाव्रत का जीवन पर्यन्त विवेकपूर्वक पालन करते हैं। (२) सत्य महाव्रत श्रमण साधु का यह दूसरा महाव्रत है। साधु कभी भी असत्य वचन नहीं बोलते हैं। वे झूठ महापाप का सर्वत्र परित्याग किए होते हैं। धर्म-रक्षा व प्राण-रक्षा के लिए भी वे असत्य नहीं बोल सकते। यानी साधु किसी भी स्थिति या परिस्थिति में सत्य महाव्रत का त्याग नहीं कर सकते। उनका सत्य वचन भी किसी के लिए कष्टकारी नहीं होता क्योंकि उनके वचनों में हित व मित समाया रहता है। साधु कभी भी अपशब्द, कठोर व कर्कश वचनों का प्रयोग नहीं करते हैं। वे विचार व विवेकपूर्ण संयमित, निर्दोष, सत्य भाषा का ही प्रयोग करते हैं। साधु किसी की गवाही या साक्ष्य भी नहीं देते हैं। क्योंकि इससे किसी एक को कष्ट हो सकता है। वे इस महाव्रत की रक्षा के लिए क्रोध, लोभ, भय व वाग्जाल आदि से सदा दूर रहते हैं। उनका अधिकांश समय आत्म-ध्यान में लीन रहता है। सत्य महाव्रत की सुदृढ़ता के लिए जैनागम में पाँच भावनाएँ बतायी गई हैं। जो श्रमण साधु इन भावनाओं का मनोयोगपूर्वक चिन्तन करता है, वह भव. सिन्धु से अवश्य पार हो सकता है। ये भावनाएँ इस प्रकार हैं (१) अनुवीचि भाषण (विचारपूर्वक बोलना), (२) क्रोध प्रत्याख्यान, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १६४ * तेईसवाँ बोल : साधु के पाँच महाव्रत (३) लोभ प्रत्याख्यान, (४) भय प्रत्याख्यान, (५) हास्य प्रत्याख्यान । (३) अस्तेय महाव्रत यह महाव्रत श्रमण साधु का तीसरा महाव्रत है। इसे अचौर्य महाव्रत भी कहते हैं। इसमें चोरी महापाप का सर्वथा परित्याग किया जाता है। मालिक की आज्ञा के बिना न तो छोटी से छोटी वस्तु, जैसे- जल, मिट्टी, तिनका आदि को ग्रहण करते हैं और न ही किसी मकान, भवन आदि में ठहरते हैं । वे किसी दीक्षार्थी को दीक्षा भी नहीं देते जब तक दीक्षार्थी के अभिभावकों व आश्रितों की अनुमति उन्हें न मिल जाए। वे न किसी का अर्थ हरण करते हैं और न अधिकार हरण करते हैं । स्वामी की आज्ञा के बिना न तो कोई चीज लेते हैं, न दूसरों को इस प्रकार अदत्त लेने की प्रेरणा देते हैं और न अदत्त ग्रहण का अनुमोदन ही करते हैं। यदि आज्ञा देने वाला न हो तो पृथ्वी के अधिपति शक्रेन्द्र की ही आज्ञा लेकर वस्तु को ग्रहण व उपयोग करते हैं। वास्तव में इस व्रत के पालने से साधु दिव्यता की ओर सदा अभिमुख रहता है। अस्तेय महाव्रत की भी पाँच भावनाएँ जैनागम में निरूपित हैं। इन भावनाओं के चिंतवन से साधु अस्तेय महाव्रत को पुष्टता के साथ पालन करता है। ये भावनाएँ इस प्रकार हैं (१) विविक्त वास समिति भावना (निर्दोष स्थान में रहने की भावना), (२) अनुज्ञात संस्तारक ग्रहण रूप अवग्रह समिति भावना, (३) शय्या संस्तारक परिकर्म वर्जना रूप शय्या समिति भावना, (४) अनुज्ञात भक्तादि भोजन लक्षणा साधारण पिण्डपात लाभ समिति भावना, (५) साधर्मिक विनयकरण समिति भावना । (४) ब्रह्मचर्य महाव्रत श्रमण साधु का यह चौथा महाव्रत है । साधु मैथुन - अब्रह्मचर्य का परित्याग कर ब्रह्मचर्य महाव्रत का सर्वथा पालन करते हैं । वे स्त्री जाति को मातृवत् समझते हैं। वे शील की नवबाड़ों का पूर्णता के साथ पालन करते हैं। साधु स्त्री जाति को स्पर्श नहीं करते हैं और न एकान्त में बात करते हैं। श्रमण साधु, Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १६५ + श्रमणी या साध्वी के साथ एक आसन पर नहीं बैठ सकते। गृहस्थ जीवन के भोगों, विषय-वासनाओं का न वे स्मरण करते हैं और न चिन्तन ही। ब्रह्मचर्य की साधना सशक्त बनी रहे इसलिए वे कामोद्दीपक, गरिष्ठ भोजन न कर सात्विक व शुद्ध भोजन करते हैं। वे इस सन्दर्भ में सतत जागरूक रहते हैं। उनकी प्रवृत्ति स्वाध्याय, धर्मध्यान व शुक्लध्यान की ओर सदा बनी रहती है जिससे वे पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य व्रत पालन कर सकें। ब्रह्मचर्य महाव्रत की सुरक्षा व सुदृढ़ता के लिए जैनागम में इसकी पाँच भावनाएँ बतायी गई हैं जिनका प्रतिदिन चिंतन-मनन करने से ब्रह्मचर्य महाव्रत से साधु कभी भी डिग नहीं सकता है। ये भावनाएँ इस प्रकार हैं (१) स्त्री पशु-नपुंसक संसक्त शय्या और आसन का वर्जन, (२) स्त्री कथा विवर्जन, (३) स्त्रियों की इन्द्रियों का अवलोकन न करना, (४) पूर्व रत एवं पूर्व क्रीड़ित का स्मरण न करना, (५) प्रणीत (स्निग्ध-सरस) आहार न करना। . (५) अपरिग्रह महाव्रत श्रमण साधु का यह पाँचवाँ महाव्रत है। इसमें साधु परिग्रह का सर्वथा त्याग करते हैं। वे किसी भी पदार्थ का संचय या संग्रह नहीं करते हैं। उनके जो आवश्यक धर्मोपकरण हैं, जैसे-वस्त्र, पात्र, पुस्तकें आदि उनमें भी मोह-ममता या मूर्छा भाव नहीं रखते हैं। साधु संयम निर्वहन के लिए इनको ग्रहण करते हैं। ये धर्मोपकरण परिग्रह में नहीं आते हैं अपितु ये ज्ञान और संयम में सहायक होते हैं। अपरिग्रह का अर्थ है पदार्थों के प्रति अनासक्त भाव। पदार्थ हों और उनमें ममत्व न हो, राग न हो किन्तु जीवन के लिए वे आवश्यक हों तो वे पदार्थ परिग्रह नहीं हैं। वास्तव में जो मूर्छा है, ममत्व है, वही परिग्रह है। श्रमण साधु न तो किसी लोभ से और न किसी रागादि से वस्त्र, पात्र ग्रहण करते हैं, न उन पर ममता रखते हैं और न उनका संचय ही करते हैं। अतः उनके ये धर्मोपकरण परिग्रह नहीं हैं। श्रमण साधु बुभुक्षु नहीं होते, प्रत्युत्तर वे मुमुक्षु होते हैं और जो मुमुक्षु होता है उसकी समस्त इच्छाएँ, लालसाएँ, वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं और वह पूर्ण रूप से अपरिग्रही बन जाता है। अपरिग्रह महाव्रत उसके जीवन में चरितार्थ होने लगता है। ऐसा साधक केवल श्रमण साधु ही होता है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १६६ * तेईसवाँ बोल : साधु के पाँच महाव्रत श्रमण साधु अन्तरंग से भी और बहिरंग से भी पूर्णतः अपरिग्रही होते हैं। इनमें पदार्थों के प्रति ही नहीं अपने शरीर के प्रति भी किंचित् मात्र भी ममताआसक्ति नहीं होती है। इस प्रकार श्रमण साधु पूर्ण रूप से असंग, अनासक्त और अकिंचन होते हैं तथा अपरिग्रह महाव्रत का सर्वथा पालन करते हैं। अन्य महाव्रतों की भावनाओं के सदृश अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाएँ जैनागम में व्यवहृत हैं। इन भावनाओं के चितवन से साधक का जीवन पूर्ण अनासक्त हो जाता है। वह जल में कमल की तरह संसार में रहकर भी निर्लिप्त रह सकता है। ये भावनाएँ इस प्रकार हैं (१) श्रोत्रेन्द्रिय संवर भावना, (२) चक्षुरिन्द्रिय संवर भावना, . (३) घ्राणेन्द्रिय संवर भावना, (४) रसनेन्द्रिय संवर भावना, (५) स्पर्शनेन्द्रिय संवर भावना। (आधार : स्थानांग ५; आचारांग, श्रु. २/१; प्रश्नव्याकरण, श्रु. २) प्रश्नावली १. महाव्रत से आप क्या समझते हैं? महाव्रती कौन हो सकता है? २. महाव्रत के कितने भेद हैं? ३. अहिंसा महाव्रत का पालन साधु कैसे करते हैं? संक्षेप में समझाइए। ४. साधु के दूसरे महाव्रत पर प्रकाश डालिए। ५. “साधु न किसी का अर्थ हरण करते हैं और न अधिकार हरण।" यह कथन किस महाव्रत से सम्बन्धित है? इस कथन पर महाव्रत के परिप्रेक्ष्य में प्रकाश डालिए। ६. ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन साधु किस प्रकार से करते हैं? ७. साधु के धर्मोपकरण-वस्त्र, पात्र और पुस्तकें आदि परिग्रह क्यों नहीं माने गए ८. पंच महाव्रतों की कौन-कौन-सी भावनाएँ कही गई हैं? प्रत्येक का नामोल्लेख कीजिए। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवाँ बोल :भंग उनचास (त्याग करने के विविध प्रकारों का वर्णन) त्याग की महिमा अनन्त है। लेकिन इसकी अनन्तता तभी सार्थ है जब हमें पदार्थों का बोध हो, उनके स्वरूपादि का परिज्ञान हो। क्योंकि बोध होने पर ही हम यह समझ सकते हैं कि अमुक पदार्थ हमारे लिए उपयोगी हैं, ग्राह्य हैं और अमुक त्याज्य और हेय हैं। जैनशास्त्रों में बोध को प्रज्ञा या परिज्ञा की संज्ञा दी गई है। प्रज्ञा के दो भेद हैं। यथा (१) ज्ञ-प्रज्ञा, (२) प्रत्याख्यान-प्रज्ञा। 'ज्ञ' का अर्थ है-जानना। ज्ञ-प्रज्ञा से पदार्थों के स्वरूपादि को जाना जाता है। कौन-सा पदार्थ हेय या उपादेय है? इसका ज्ञान प्राप्त किया जाता है। प्रत्याख्यान-प्रज्ञा से जो पदार्थ हेय या त्याज्य है उसका त्याग किया जाता है, यानी प्रत्याख्यान-प्रज्ञा से हेय पदार्थों का त्याग किया जाता है। साथ ही त्याग की जो पद्धति है उस पर भी चिन्तन किया जाता है। इस प्रकार ज्ञ-प्रज्ञा के अभाव में, सद्-असद् है उसका विवेक नहीं होता है और प्रत्याख्यान प्रज्ञा-त्याग के अभाव में कर्मों के आस्रव द्वारों को नहीं रोका जा सकता है। अस्तु प्रज्ञा के ये दोनों भेद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इस बोल में प्रत्याख्यान प्रज्ञा-त्याग के स्वरूप पर विचार किया गया है कि हेय पदार्थ को कैसे त्यागा जाए? जब हमें यह ज्ञात हो जाता है कि अमुक पदार्थ हेय और त्यागने योग्य है तो हम उसे त्याग देते हैं। लेकिन कैसे त्याग किया जाए इस पद्धति को जानना अत्यन्त आवश्यक रहता है। सामान्यतः हम यह जानते हैं कि पाप हेय है और हम पाप का परित्याग कर देते हैं. जैसेअमुक कार्य बुरा काम है, हेय है और हमने प्रतिज्ञा की कि हम अमुक कार्य को नहीं करेंगे और उस काम को छोड़ दिया, बस, त्याग हो गया। यथार्थतः यह त्याग नहीं है। ऐसा त्याग तो मिथ्या दृष्टि जीव भी करते रहते हैं। ऐसा त्याग स्थूल है। प्रत्याख्यान की कोटि में नहीं आता है। प्रत्याख्यान त्याग नौ कोटियों द्वारा पूर्ण होता है, तभी आस्रव द्वार रुक सकता है। प्रस्तुत बोल में ४९ भंग या भंगों का उल्लेख है। भंग का अर्थ है विकल्प। यानी प्रत्याख्यान त्याग के ४९ भंग हैं या विभाग रूप रचना-विशेष हैं या विकल्प हैं। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १६८ : चौबीसवाँ बोल : भंग उनचास नवकोटि प्रत्याख्यान में किसी भी प्रकार के अप्रत्याख्यान के अंश की छूट नहीं है। नवकोटि प्रत्याख्यान - त्याग पूर्ण भंग वाला होता है। शेष अपूर्ण भंग वाले होते हैं। उनमें किसी न किसी रूप में अप्रत्याख्यान के अंश की सत्ता या छूट रह जाती है। लोक में जितने भी पाप हैं, वे सब पाप पाँच में ही गर्भित हैं जिन्हें पंच पाप कहा जाता है। ये पाप हैं - (१) हिंसा, (२) झूठ, (३) चोरी, (४) कुशील, (५) परिग्रह । श्रमण साधु इन पापों का परित्याग नौ कोटि से करते हैं जबकि श्रावक प्रायः दो कोटि से लेकर आठ कोटि तक इन पापों का परित्याग करते हैं। नौ कोटि में मूल है योग और करण । ये योग और करण मिलकर ही विकल्प या भंग या भांगे बनते हैं। योग और करण ये दोनों जैनदर्शन के. पारिभाषिक शब्द हैं। करण के द्वारा कार्य किए जाते हैं । करण के तीन प्रकार हैं - (१) कृत, (२) कारित, (३) अनुमोदित जो कार्य स्वयं किए जाते हैं, वे कृत कहलाते हैं; जो कार्य दूसरों से कराये जाते हैं, वे कारित और जिन कार्यों की अनुमोदना या समर्थन किया जाता है, वे अनुमोदना कहलाते हैं। मन, वचन और काया ये योग के तीन प्रकार हैं। इन तीनों को प्रवृत्ति और कार्य से जोड़ना होता है, यानी जो भी कार्य किया जाए वह मन से, वचन से और काया से किया जाए; जो कार्य कराया जाए, मन से, वचन से व काया से किया जाए तथा जिस कार्य का अनुमोदन किया जाए वह भी मन से, वचन से व काया से किया जाए, ये सब मिलकर नवकोटि कहलाती है । पाप करने वाला भी पापी, पाप कराने वाला भी पापी और पाप का अनुमोदन करने वाला भी पापी - ये तीनों एक ही श्रेणी में आते हैं अर्थात् पापी हैं। इसी प्रकार मन से पाप करने वाला भी पापी और वचन से तथा काया से पाप करने वाला भी पापी होता है। करना, कराना और अनुमोदना करना, मन से, वचन से व काया से ये नौ विकल्प या भंग बन ते हैं। कोई भी पापकर्म या पुण्यकर्म इन्हीं नौ विकल्पों से आते हैं जिन्हें त्याग द्वारा रोका जाता है। शास्त्रीय भाषा में इनके निरोध को संवर कहा जाता है। इस बात को हम हिंसा पाप के सन्दर्भ में इस प्रकार समझ सकते हैं । संसारी जीव के मूलतः नौ भेद हैं। यथा- (१) पृथ्वी, (२) जल, (३) अग्नि, (४) वायु, (५) वनस्पति, (६) द्वीन्द्रिय, (७) त्रीन्द्रिय, (८) चतुरिन्द्रिय, (९) पंचेन्द्रिय । इन नौ प्रकार के संसारी जीवों की मन से, वचन से व काया से हिंसादि स्वयं करें, कराएँ और करने की अनुमोदना करें तो मन के २७, वचन के २७ और काया के २७ मिलाकर ८१ भंग हो जाते हैं। कोई भी जीव ८१ विकल्पों या भंगों से हिंसादि कर सकता है। इन्हीं ८१ भंगों से हिंसादि को रोक भी सकता है। इसी प्रकार अचौर्य महाव्रत के चौवन भंगों या विकल्पों का उल्लेख हुआ है । यथा-छह प्रकार Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १६९ * के पदार्थों-अल्प, बहु, अणु, स्थूल, सचित्त, अचित्त-की न स्वयं मन से चोरी करें, न मन से चोरी करवाएँ और न मन से चोरी करने वाले का अनुमोदन करें। मन के ये अठारह भंग या विकल्प हैं। इसी प्रकार वचन के अठारह और काया के अठारह भंग होते हैं। ये सब मिलकर कुल चौवन भंग होते हैं। अचौर्य महाव्रत की भाँति अपरिग्रह महाव्रत के भी चौवन विकल्प या भंग होते हैं। ऐसे ही अन्य महाव्रतों को अपनाने या पापों को त्यागने के विषय में सोचा जा सकता है। श्रावक के बारह व्रतों के ४९ विकल्प या भंगों को हम सविस्तार इस प्रकार से समझ सकते हैं। यथा(१) अंक ११, भंग ९-एक करण व एक योग से कथन १. करूँ नहीं मन से, २. करूँ नहीं वचन से, ३. करूँ नहीं काया से, • ४. कराऊँ नहीं मन से, ५. कराऊँ नहीं वचन से, ६. कराऊँ नहीं काया से, ७. अनुमोदूँ नहीं मन से, ८. अनुमोदूं नहीं वचन से, ९. अनुमोदूं नहीं काया से। - (२) अंक १२, भंग ९-एक करण व दो योग से कथन १. करूँ नहीं मन एवं वचन से, २. करूँ नहीं वचन एवं काया से, ३. करूँ नहीं मन एवं काया से, ४. कराऊँ नहीं मन एवं वचन से, ५. कराऊँ नहीं वचन एवं काया से, ६. कराऊँ नहीं मन एवं काया से, ७. अनुमोदूँ नहीं मन एवं वचन से, ८. अनुमोदूँ नहीं वचन एवं काया से, ९. अनुमोदूँ नहीं मन एवं काया से। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १७० * चौबीसवाँ बोल : भंग उनचास . (३) अंक १३, भंग ३-एक करण व तीन योग से कथन १. करूँ नहीं मन से, वचन से व काया से, . २. कराऊँ नहीं मन से, वचन से व काया से, ३. अनुमोदूँ नहीं मन से, वचन से व काया से। (४) अंक २१, भंग ९-दो करण व एक योग से कथन- १. करूँ नहीं, कराऊँ नहीं मन से, २. करूँ नहीं, कराऊँ नहीं वचन से, ३. करूँ नहीं, कराऊँ नहीं काया से, ४. करूँ नहीं, अनुमोदूं नहीं मन से, ५. करूँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं वचन से, ६. करूँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं काया से, ७. कराऊँ नहीं, अनुमोदूं नहीं मन से, ८. कराऊँ नहीं, अनुमोदूं नहीं वचन से, ९. कराऊँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं काया से। (५) अंक २२, भंग ९-दो करण व दो योग से कथन १. करूँ नहीं, कराऊँ नहीं मन व वचन से, २. करूँ नहीं, कराऊँ नहीं वचन व काया से, ३. करूँ नहीं, कराऊँ नहीं मन व काया से, ४. करूँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं मन व वचन से, ५. करूँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं वचन व काया से, ६. करूँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं मन व काया से, ७. कराऊँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं मन व वचन से, ८. कराऊँ नहीं, अनुमोदूं नहीं वचन व काया से, ९. कराऊँ नहीं, अनुमोदूं नहीं मन व काया से। (६) अंक २३, भंग ३-दो करण व तीन योग से कथन १. करूँ नहीं, कराऊँ नहीं मन, वचन व काया से, Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल + १७१ + २. करूँ नहीं, अनुमोदूं नहीं मन, वचन व काया से, . ३. कराऊँ नहीं, अनुमोदूं नहीं मन, वचन व काया से। (७) अंक ३१, भंग ३-तीन करण व एक योग से कथन १. करूँ नहीं, कराऊँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं मन से, २. करूँ नहीं, कराऊँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं वचन से, ३. करूँ नहीं, कराऊँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं काया से। (८) अंक ३२, भंग ३-तीन करण व दो योग से कथन १. करूँ नहीं, कराऊँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं मन व वचन से, २. करूँ नहीं, कराऊँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं वचन व काया से, - ३. करूँ नहीं, कराऊँ नहीं, अनुमोदूं नहीं मन व काया से। (९) अंक ३३, भंग १-तीन करण व तीन योग से कथन· करूँ नहीं, कराऊँ नहीं, अनुमोदूँ नहीं मन से, वचन से व काया से। इस प्रकार अंक ११ के ९ भंग, अंक १२ के ९ भंग, अंक १३ के ३ भंग, अंक २१ के ९ भंग, अंक २२ के ९ भंग, अंक २३ के ३ भंग, अंक ३१ के ३ भंग, अंक ३२ के ३ भंग और अंक ३३ के १ भंग कुल मिलाकर ४९ भंग होते हैं। अतः श्रावक के बारह व्रतों के कुल ४९ भंग होते हैं जिन्हें श्रावक प्रयोग कर किसी भी पाप का परित्याग कर कर्मों के आस्रव द्वार को बंद कर सकता है। ये ४९ मार्ग हैं। . (आधार : भगवतीसूत्र ८/५) प्रश्नावली १. प्रज्ञा से क्या तात्पर्य है? इसके कितने भेद हैं? २. भंग किसे कहते हैं? इसके कितने भेद हैं? ३. करण और योग से आप क्या समझते हैं? इसके कितने प्रकार हैं? ४. कितने भंगों में हिंसा रोकी जा सकती है? समझाइए। ५. अपरिग्रह और अचौर्य महाव्रत का पालन कितने भंगों से किया जा सकता है? ६. श्रावक के बारह व्रतों के ४९ भंगों को संक्षेप में समझाइए। ७. पाँच कोटि के त्याग किस प्रकार किए जाते हैं तथा इसमें कितने भंग हैं और कौन-कौन-से हैं? Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवाँ बोल : चारित्र पाँच ( पाँच प्रकार के चारित्र का स्वरूप) (१) सामायिक चारित्र, (२) छेदोपस्थापन चारित्र, (३) परिहार विशुद्धि चारित्र, (४) सूक्ष्म संपराय चारित्र, (५) यथाख्यात चारित्र । मनुष्य स्वभावतः कुछ न कुछ शुभ या अशुभ करता रहता है। उसकी यह प्रवृत्ति या क्रिया जब अशुभ से शुभ की ओर होती है तब वह चारित्र (Conduct — कण्डक्ट) का रूप लेती है । चारित्र का अर्थ है शुभ में प्रवृत्त होना और अशुभ से निवृत्त होना । शुभ में प्रवृत्त होने के लिए या अशुभ से निवृत्ति पाने के लिए वह अपने आत्म-स्वरूप में स्थित होता है। आत्म-स्वरूप में स्थित होने के लिए जितने भी उसके सञ्चित कर्म हैं उन्हें वह रिक्त करता है अर्थात् वह कर्मास्रव का निरोध करता है। अर्थात् उसकी समस्त प्रवृत्तियाँ कर्मक्षय के लिए होती हैं। कर्मक्षय हेतु की जाने वाली समस्त प्रवृत्तियाँ आत्मा को शुद्ध दशा में रखने का प्रयत्न करती हैं । इस प्रकार चारित्र में समस्त प्रवृत्तियाँ या क्रियाएँ बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी होती हैं, यानी संसार बढ़ाने वाली क्रियाओं से विमुख होकर मोक्ष प्राप्ति के लिए सतत प्रयत्नशील रहती हैं जिससे आत्मा के परिणामों में विशुद्धि या निर्मलता आती है। अन्ततः आत्म-परिणामों को विशुद्ध बनाना ही चारित्र है । इसे शास्त्रीय भाषा में इस प्रकार से कह सकते हैं कि आत्मा के विरति रूप परिणाम चारित्र है । यह परिणाम मोहनीय कर्म के क्षय से या उपशम से या क्षयोपशम से प्रकट होता है। चारित्र के दो रूप हैं - एक निश्चय चारित्र (Noumenal conduct — नॉमीनल कण्डक्ट) और दूसरा व्यवहार चारित्र (Behavioural or External conduct — बिहेवियरल और एक्सटर्नल कण्डक्ट) । जीव की अन्तरंग विरागता या साम्यता निश्चय चारित्र है और उसके लिए बाह्य क्रिया-कलाप, व्रत, समिति, गुप्त आदि का पालन व्यवहार चारित्र है । यह चारित्र आस्रव का निरोध करने वाले संवर के सत्तावन भेदों में परिगणित है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १७३ * जैनागम में आत्म-परिणामों की विशुद्धि के तरतम भाव की अपेक्षा चारित्र के पाँच भेद निरूपित हैं। यथा(१) सामायिक चारित्र (Equanimous conduct-एक्वानिमस कण्डक्ट), (२) छेदोपस्थापन चारित्र (New ascetic life न्यू एसेटिक लाईफ), (३) परिहार विशुद्धि चारित्र (A special kind of conduct-ए स्पेशल काइण्ड ऑफ कण्डक्ट), (४) सूक्ष्म संपराय चारित्र (Subtle passions—सटल पेशन्स), (५) यथाख्यात चारित्र (Conduct devoid of passion कण्डक्ट डिवौइड ऑफ पेशन)। (१) सामायिक चारित्र .. इसमें दो शब्द हैं-एक सामायिक और दूसरा चारित्र। जो चारित्र सामायिक से परिपूर्ण हो, वह सामायिक चारित्र है। सामायिक का अर्थ है समभाव में स्थित होना। समभाव में स्थिर रहने के लिए समस्त अशुद्ध प्रवृत्तियों अर्थात् सावधयोग अर्थात् पाप-क्रियाओं अथवा राग-द्वेष मूलक एवं विषय-कषाय बढ़ाने वाली क्रियाओं का त्याग किया जाता है। अतः समभाव की साधना सामायिक चारित्र कहलाती है। सामायिक चारित्र का पालन तीन करण (कृत, कारित व अनुमोदन) व तीन योगों (मन, वचन व काय) से होता है जिससे पापासव का सम्पूर्ण रूप से निरोध हो सके। शेष चार चारित्र सामायिक चारित्र के ही विशिष्ट रूप हैं किन्तु इन चारित्रों में आचार और गुण सम्बन्धी कुछ विशेषताएँ होने से इन चारों को भिन्न श्रेणी में रखा गया है। (२) छेदोपस्थापन चारित्र यह चारित्र का दूसरा भेद है। इसमें दो शब्द हैं-एक छेदोपस्थापन और दूसरा चारित्र। छेदोपस्थापन एक युग्म शब्द है। इसमें दो शब्द जुड़े हैं-एक छेद और दूसरा उपस्थापन। छेद का यहाँ अर्थ है पूर्व गृहीत चारित्र-पर्याय का छेदन। उपस्थापन से अभिप्राय विभागपूर्वक महाव्रतों की उपस्थापना या आरोपण करना। इस प्रकार जिस चारित्र में पूर्व गृहीत चारित्र-पर्याय का छेदन तथा महाव्रतों में उपस्थापन या आरोपण होता है, वह छेदोपस्थान चारित्र Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १७४ * पचीसवाँ बोल : चारित्र पाँच कहलाता है। चूँकि यह चारित्र पूर्व चारित्र का छेदन करके आता है, इसलिए इसे छेदोपस्थापन चारित्र कहते हैं। सामायिक चारित्र और इस चारित्र में जो मूल भेद है वह यह है कि सामायिक चारित्र में सावध योग का त्याग सामान्य रूप से होता है और इसमें सावध योग का त्याग छेद अर्थात् विभाग या भेदपूर्वक होता है। सामान्यतः छेदोपस्थापन चारित्र को बड़ी दीक्षा भी कहते हैं। दीक्षा लेते समय सामायिक चारित्र को अंगीकार किया जाता है अर्थात् सर्व सावध योग का त्याग किया जाता है। दीक्षा उपरान्त सात दिन या छह माह बाद साधक में पाँच महाव्रतों की विभागशः आरोपणा की जाती है। यह भी छेदोपस्थापन चारित्र है। प्रथम ली हुई दीक्षा में किसी दोष सेवन के कारण महाव्रत दूषित हो जाएँ तब उसका छेदन कर नए सिरे से जो व्रत ग्रहण कराए जाते हैं अथवा नई दीक्षा भी दी जाती है, वह भी छेदोपस्थापन चारित्र है। इस दशा में पूर्व दीक्षा-पर्याय के वर्षों की गणना नहीं की जाती है और ज्येष्ठ साधु भी नवदीक्षित बम सकता है। छेदोपस्थापन चारित्र के दो भेद हैं-एक निरतिचार छेदोपस्थापन चारित्र और दूसरा सातिचार छेदोपस्थापन चारित्र। दोषरहित स्थिति में छेदोपस्थापन चारित्र का ग्रहण निरतिचार छेदोपस्थापन चारित्र है। यह चारित्र एक प्रकार से संघ में सम्मिलित करने की एक प्रक्रिया है। दोष विशेष के कारण पूर्व दीक्षा-पर्याय का छेदन कर प्रायश्चित्त रूप में आत्म-विशुद्धि के लिए पुनः महाव्रतों को ग्रहण करना, यानी पुनः दीक्षा लेना सातिचार छेदोपस्थापन चारित्र है। पहले दो चारित्र-सामायिक और छेदोपस्थापन चारित्र-छठे से नवें गुणस्थानों तक होते हैं। (३) परिहार विशुद्धि चारित्र परिहार विशुद्धि का अर्थ है संघ से पृथक् होकर विशिष्ट तपःसाधना से आत्मा को परिशुद्ध करना। यह विशिष्ट प्रकार का तप-प्रधान आचार है। इसमें परिहार नामक विशेष तप किया जाता है जिससे आत्मा की विशेष शुद्धि हो सके। जैनागम में परिहार नामक तप की विधि का सविस्तार वर्णन हुआ है। संक्षेप में इसकी विधि इस प्रकार है-नौ साधु मिलकर परिहार तप प्रारम्भ करते हैं। इनमें से चार साधु अठारह महीने तक कठोर तपःसाधना करते हैं और चार उनकी वैयावृत्य, यानी सेवा करते हैं तथा एक उनके गुरु या आचार्य Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १७५ * के रूप में रहता है जो निर्देश करता है। पहले चार साधु छह महीने तक उपवास; बेला, यानी दो दिन तक लगातार उपवास; तेला, यानी तीन दिन तक लगातार उपवास; चौला, यानी चार दिन तक लगातार उपवास; पचोला, यानी पाँच दिन तक लगातार उपवास तथा आयंबिल आदि तप करते हैं फिर सेवा करने वाले छह माह तक यह तप करते हैं और तप करने वाले साधु सेवा करते हैं। फिर गुरु पद या आचार्य पद पर रहा हुआ साधु भी छह माह तक तप करता है। इस प्रकार अठारह माह में इस परिहार का कल्प पूरा होता है। परिहार विशुद्धि चारित्र छठे और सातवें गुणस्थानों में होता है। (४) सूक्ष्म संपराय चारित्र यह चारित्र का चौथा भेद है। इस चारित्र में सूक्ष्म संपराय शब्द जुड़ा हुआ है। सूक्ष्म का अर्थ है अल्प और संपराय का अर्थ है कषाय। कषाय चार प्रकार के होते हैं-एक क्रोध कषाय, दूसरा मान कषाय, तीसरा माया कषाय और चौथा लोभ कषाय। कषायों की सूक्ष्मतम, यानी अल्पतम स्थिति सूक्ष्म संपराय कहलाती है। कषायों में लोभ कषाय सबसे बाद में नष्ट होता है, शेष तीनों पहले नष्ट हो जाते हैं। यानी क्रोध, मान व माया का नौवें गुणस्थान में उपशम या क्षय हो जाने पर केवल सूक्ष्म संज्वलन रूप लोभ कषाय ही शेष रह जाता है। ऐसी समुज्ज्वल अवस्था सूक्ष्म संपराय चारित्र कहलाती है। यह चारित्र दसवें गुणस्थान में होता है। इससे नीचे के गुणस्थानों में नहीं होता है। (५) यथाख्यात चारित्र ___ यह चारित्र का पाँचवाँ भेद है। इस चारित्र का अर्थ है सर्वथा विशुद्ध चारित्र अर्थात् अतिचार से रहित चारित्र। इसमें कषायों का अंश बिलकुल भी नहीं होता है। इसमें आत्मा के शुद्ध-निर्मल परिणाम होते हैं। चूँकि यह विशुद्ध चारित्र है। अतः इसे वीतराग चारित्र या क्षायिक चारित्र भी कहते हैं। यथाख्यात चारित्र में पापकर्मों का आस्रव सर्वथा रुक जाता है। यह चारित्र दो प्रकार का होता है-एक उपशान्त मोह यथाख्यात चारित्र और दूसरा क्षीण मोह यथाख्यात चारित्र। दूसरे प्रकार के चारित्र वाले साधु उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। यह चारित्र ग्यारहवें से लेकर चौदहवें गुणस्थानों तक अर्थात् चार गुणस्थानों में ही होता है। यद्यपि ग्यारहवें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभकषाय की सत्ता रहती तो है पर वहाँ वह उदय में नहीं आती है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * १७६ * पच्चीसवाँ बोल : चारित्र पाँच इन पाँचों चारित्रों में कौन-सा और कितने प्रकार का चारित्र वहाँ पर पाया जाता है। इसका भी उल्लेख जैनागम में हुआ है । यथाख्यात चारित्र ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान में होता है। सामायिक और छेदोपस्थापन चारित्र शुक्लध्यान में, पंचम काल में तथा छठे से चौदहवें गुणस्थानों में होता है। सामायिक, छेदोपस्थापन तथा परिहार विशुद्धि चारित्र छठे व सातवें गुणस्थानों में तथा दूसरे तीर्थंकर भगवान अजितनाथ से लेकर तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के शासन में पाए जाते हैं । सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहार विशुद्धि व सूक्ष्म संपराय-ये चार चारित्र कषाय कुशील निर्ग्रन्थों में पाए जाते हैं और पाँचों चारित्र के लिए कहा गया है कि ये महाविदेह क्षेत्र में, संयती में, सम्यक् · दृष्टि में, चतुर्थ काल में, ढाई द्वीप में तथा तीन प्रशस्त - तेजो, पद्म व शुक्ल लेश्याओं में पाए जाते हैं । ( आधार : स्थानांग, स्थान ५ ) प्रश्नावली १. चारित्र से क्या तात्पर्य है? इसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए । २. चारित्र के भेदों का नामोल्लेख कीजिए। ये भेद किस अपेक्षा से हैं? ३. सामायिक चारित्र से आप क्या समझते हैं? ये शेष चारों चारित्रों से किस प्रकार से भिन्न हैं? ४. 'बड़ी दीक्षा' जिस चारित्र के अन्तर्गत आती है उसके स्वरूप पर संक्षेप में प्रकाश डालिए तथा सामायिक चारित्र से इसकी तुलना कीजिए । ५. परिहार विशुद्धि चारित्र को समझाते हुए उसकी साधना विधि बताइए । ६. दसवें गुणस्थान वाले चारित्र के बारे में बताइए । ७. केवली भगवान में कौन - सा चारित्र होता है? उस चारित्र की विशेषताएँ बताइए | ८. कौन - सा चारित्र कहाँ पाया जाता है? इसका उल्लेख कीजिए । Page #191 --------------------------------------------------------------------------  Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वरुण मुनि जी म. 'अमर शिष्य डबल एम.ए. प्रस्तुत पुस्तक के लेखक हैं - सुललित लेखक श्री वरुण मुनि जी महाराज। 'अमर शिष्य' उपनाम से संघ में विश्रुत श्री वरुण मुनि जी एक युवामनीषी संत हैं। ये न केवल युवा हैं बल्कि यौवनीय उत्साह और उमंग से भी इनका समग्र व्यक्तित्व ओत-प्रोत है। अपने आराध्य गुरुदेव की एकलव्ययी निष्ठा के साथ नंदीषणयी सेवा आराधना के साथ-साथ ये उनकी श्रुत-साधना में भी पूरे मनोयोग से अपनी ऊर्जाओं का संयोजन कर रहे हैं। सेवा, सर्जना और साधना की सौरभ से सुरभित मुनिवर का व्यक्तित्व युवापीढ़ी के मुनियों के लिए एक आदर्श है। श्रमण संघ आशान्वित है, अपने इसी उत्साह, उमंग और उद्यम के साथ मुनिवर साधना और सर्जना के पथ पर बढ़ते हुए स्वर्णिम इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय सिद्ध होंगे। 3000NTuta -yed TIME Kingston vielandola Caftepucio HOTOPHAGUA ORUEManagu HASNA siniose d onatiny