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*२* पहला बोल : गतियाँ चार
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पर स्थित हो जाती हैं। वे जन्म, जरा, शोक, भय और मरण से विमुक्त रहती हैं। ऐसी सभी आत्माएँ आत्म-विशुद्धि या आत्म-विकास की दृष्टि से समान हैं किन्तु अनन्त हैं। ये आत्माएँ सिद्ध कहलाती हैं। सिद्ध'आत्माएँ एक बार संसार से मुक्त होने के बाद पुनः संसार में नहीं आती हैं। __दूसरे प्रकार की आत्माएँ कर्म-पुद्गलों से जकड़ी हुई होती हैं, इन्हे संसारी जीव कहा जाता है। संसारी जीव भी अनन्त हैं, किन्तु वे परस्पर भिन्न-भिन्न
और स्वतंत्र अस्तित्व वाले हैं। उनकी स्थिति एक-सी नहीं होती है। किसी में एक इन्द्रिय होती है तो किसी में दो, तीन, चार, पाँच इन्द्रियों का विकास होता है। इसका मूल कारण है कि संसारी जीव अनेक प्रकार के कर्मों से बँधे होते हैं, जिनके कारण इनकी जन्म-मरण अर्थात् भवों की स्थितियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं। ये कर्म संसारी जीवों को एक भव से दूसरे भव, दूसरे से तीसरे और इस प्रकार अनन्त भवों में अनन्त काल से परिभ्रमण कराते आ रहे हैं।
जैनदर्शन में संसारी जीवों की भव-स्थितियों को चार भागों में बाँटा गया है जिन्हें चार गतियाँ कहा जाता है। ये चार गतियाँ हैं
(१) नरक गति, (२) तिर्यंच गति, (३) मनुष्य गति, (४) देव गति। .
संसार के समस्त जीव कर्म-बन्धनों से बद्ध होने के कारण इन्हीं गतियों में बार-बार जन्म लेते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। नरक गति का जीव नारक कहलाता है, तिर्यंच गति का जीव तिर्यंच, मनुष्य गति का जीव मनुष्य तथा देवगति का जीव देव कहलाता है। प्रस्तुत बोल में इन्हीं संसारी जीवों और उनकी गतियों का विवेचन है। - गति का सामान्य अर्थ है चलना, घूमना, भ्रमण करना, गमन करना आदि। अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। किन्तु जैनदर्शन में गति एक पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ है एक भव से दूसरे भव, यानी एक जन्म-स्थिति से दूसरी जन्म-स्थिति को प्राप्त होना। अर्थात् अपने कर्मों के द्वारा प्रेरित हो जीव जिसे पाते हैं, वह गति है। वास्तव में जीव की अवस्था-विशेष गति कहलाती है। कोई संसारी जीव मनुष्य-भव या मनुष्य-जन्म स्थिति से या मनुष्यावस्था या मनुष्य-पर्याय से अपनी आयु पूर्ण कर देव-भव में गमन