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आगमज्ञान की आधारशिला :
पच्चीस बोल
पहला बोल : गतियाँ चार (जीव की उत्पत्ति के चार प्रमुख स्थान)
(१) नरक गति, (२) तिर्यंच गति, (३) मनुष्य गति, . (४) देव गति।
आत्मा की सत्ता शाश्वत है। आत्मा न तो कभी जन्मता है और न मरता है। वह तो अजर है, अमर है। जो जन्मता है, मरता है वह है शरीर या पर्याय।
आत्मा कर्मानुसार जिस पर्याय (अवस्था) या शरीर को धारण करती है वह पर्याय या शरीर समयानुसार एक न एक दिन समाप्त होता है। प्रकृति का यह एक नियम है कि जो समाप्त होता है वह पुनः उत्पन्न भी होता है, यानी जन्म-मरण की यह प्रक्रिया. निरन्तर चलती रहती है। जन्म-मरण का यह सिलसिला आज से नहीं, अनन्त काल से है और अनन्त काल तक यूँ ही चलता रहेगा। संसार का अस्तित्व भी इसी जन्म-मरण पर आधारित है।
जन्म-मरण का मूल कारण है कर्म। जो जैसा कर्म करता है तदनुरूप पर्याय धारण कर संसार में परिभ्रमण करता रहता है।
आत्मा का प्रमुख लक्षण है चेतना जिसे उपयोग कहते हैं। इस लक्षण के आधार पर समस्त आत्माएँ समान स्वरूप वाली हैं, किन्तु कर्म-पुद्गलों से आबद्ध होने के कारण सभी आत्माओं में आत्म-शुद्धि समान नहीं है। इस दृष्टि से जैनदर्शन में आत्मा के दो प्रकार बताये गये हैं-एक मुक्त आत्मा और दूसरी बद्ध आत्मा। मुक्त आत्माएँ सिद्ध तथा बद्ध आत्माएँ संसारी जीव कहलाती हैं। जो आत्माएँ समस्त कर्मों से मुक्त होकर पूर्णतः उज्ज्वल, निर्मल व विशुद्ध होती हैं वे संसार-चक्र से सदा-सदा के लिए छूट जाती हैं और लोक के अग्र भाग