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आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल * ३ *
करता है तब उस क्षण से लेकर जब तक वह देव-भव या देव-स्थिति या देव-अवस्था या देव-पर्याय में रहता है तब तक उस संसारी जीव की वह अवस्था देवगति कहलाती है और देवगति का वह जीव देव कहलाता है। इसी प्रकार हम मनुष्य, तिर्यंच और नरक के संदर्भ में समझ सकते हैं। लेकिन एक बात ध्यान देने की है। समस्त संसारी जीव अपने गति-नामकर्म के उदय के कारण कभी नरक गति में, कभी तिर्यंच गति में, कभी मनुष्य गति में तो कभी देवगति में जन्म धारण करते हुए नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव कहलाते हैं। किन्तु ये सभी जीव आत्मस्वरूप की दृष्टि से 'जीव' पहले हैं; नारक, तिर्यंच, मनुष्य या देव बाद में। जैसे भारत में रहने वाले लोग भारतीय पहले हैं; हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध व जैन आदि बाद में। . जैनदर्शन के अनुसार जीव जब अपनी आयु पूर्ण कर शरीर या पर्याय को छोड़ता हुआ दूसरी आयु तथा शरीर या पर्याय को ग्रहण करने के लिए जिस स्थान या गति के लिए गमन करता है वह विग्रह गति या अन्तराल गति (Mobility to take new birth-मोबिलिटी टु टेक न्यू बर्थ) कहलाती है। यह दो प्रकार की होती है। यथा
(१) ऋजु (सरल) विग्रह गति,
(२) वक्र (घुमावदार) विग्रह गति। .. ऋजु गति से स्थानान्तर को जाते हुए जीव को नया प्रयत्न नहीं करना पड़ता क्योंकि जब वह पूर्व शरीर को छोड़ता है तब उसे पूर्व शरीर जन्य वेग मिलता है जिससे वह दूसरे प्रयत्न के बिना ही धनुष से छूटे हुए बाण की तरह सीधे ही नए स्थान को पहुँचाता है। वक्र गति से जाने वाले जीव को नया प्रयत्न करना पड़ता है। अन्तराल गति के समय जीव के स्थूल शरीर की अपेक्षा दो सूक्ष्म शरीर अर्थात् (१) कार्मण, तथा (२) तैजस् शरीर साथ रहते हैं क्योंकि स्थूल शरीर तो आयु पूर्ण होने पर ही छूट जाता है। इस प्रकार अन्तराल गति में जीव के 'कार्मण काययोग' रहता है। यह कार्मण काययोग केवल संसारी जीव के होते हैं मुक्त या सिद्ध जीवों के नहीं। क्योंकि मुक्त जीवों में सम्पूर्ण कर्म पहले ही नष्ट हो चुके हैं। फिर कार्मण शरीर और कार्मण योग का प्रश्न ही नहीं पैदा होता। अन्तराल गति के समय वह स्थूल व सूक्ष्म-दोनों ही शरीरों से मुक्त होता है। मुक्त जीव सदा ऋजु (सरल) गति से ही ऊर्ध्व दिशा की ओर गमन करते हुए एक समय मात्र में लोक के अग्र भाग पर जा विराजते हैं जबकि संसारी जीव की ऋजु और वक्र दोनों ही गतियाँ होती हैं। इन दोनों गतियों का