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ग्यारहवाँ बोल :गुणस्थान चौदह (आत्म-विकास की चौदह भूमिकाओं का विवरण)
(१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, (२) सास्वादन सम्यक् दृष्टि गुणस्थान, (३) सम्यक् मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान, (४) अविरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थान, (५) देशविरत गुणस्थान, (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान, (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, (८) निवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थान, (९) अनिवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थान, (१०) सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान, (११) उपशान्तमोह गुणस्थान, (१२) क्षीणमोह गुणस्थान, (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान, (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान।
विकासशील होना प्रत्येक जीव का लक्षण है। जब तक जीवन है तब तक प्रत्येक जीव अपना विकास करता है। उसके विकास के मुख्यतः तीन रूप हैंएक शारीरिक विकास, जिसमें शरीर सम्बन्धी विकास होता है; दूसरा मानसिक विकास, जिसमें मन का विकास होता है और तीसरा आध्यात्मिक विकास, जिसमें आत्मा का विकास होता है।
आध्यात्मिक विकास का एक क्रम है। इस क्रम को गुणस्थान या जीवस्थान कहते हैं। यहाँ स्थान का तात्पर्य विकास से है। यानी आत्मिक गुणों का विकास या आत्मिक गुणों के विकास की क्रमिक अवस्थाएँ गुणस्थान (Stages of