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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ७१ *
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spiritual development स्टेज्स ऑफ स्प्रिच्युअल डिवैलपमेण्ट) कहलाती हैं। जीवों में आत्मिक परिणाम सदा एक से नहीं रहते हैं। वे निरन्तर उत्कर्ष और अपकर्ष को प्राप्त होते रहते हैं। जीव में जितना मोह-मिथ्यात्व व कषाय-योग होगा उतना ही उसके परिणाम मलिन होंगे और जितने ये कम होंगे उतने ही उसके परिणाम निर्मल व विशुद्ध होंगे। इस प्रकार गुणस्थान/जीवस्थान प्रत्येक जीव को अशुद्ध से शुद्ध, मोह से निर्मोह, संसार से मोक्ष, बंध से निर्बन्ध की स्थिति या अवस्था में पहुँचाने का साधन हैं, सोपान हैं। ये गुणस्थान प्रत्येक जीव को उसकी आध्यात्मिक स्थिति या अवस्था का अवबोध कराते हैं। जीव ज्यों-ज्यों दर्शन, ज्ञान, चारित्र में उन्नति करता जाता है त्यों-त्यों वह एक के बाद दूसरा, तीसरा और इस तरह क्रमशः गुणस्थानों पर चढ़ता जाता है। इस प्रकार गुणस्थान आत्मा के विकास और मोह की तरतमता का दिग्दर्शक है।
इन गुणस्थानों का आधार क्या है ? इसके लिए कहा गया है कि आत्मा पाँच प्रकार के आवरणों-(१) मिथ्यात्व, (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय, (५) योग-से आच्छादित है, इनके हटते ही आत्मा की विशुद्धावस्था प्रकट हो जाती है। इसी विशुद्धि का नाम गुणस्थान है। पहला आवरण आत्मा के श्रद्धान गुण को आच्छादित कर बुद्धि को विपरीत बनाता है, दूसरा आवरण आत्मा को आसक्ति-तृष्णा के जाल में फाँसता है, तीसरा आवरण आत्मा को प्रमादी बनाता है, चौथा आवरण आत्मा में कषायों की अग्नि को प्रज्वलित करता है और पाँचवाँ आवरण आत्मा को चंचल बनाता है। इन पाँचों आवरणों का जो लेपन होता है वह है मोहनीय कर्म। इस प्रकार इन पाँचों आवरणों और मोहनीय कर्म की तीव्रता और मन्दता के आधार पर जीव की चौदह अवस्थाओं या चौदह गुणस्थानों का निर्माण होता है। __जैनदर्शन में मार्गणा स्थान और गुणस्थानों के बीच जो अन्तर है उसको भी स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि एक समय में एक जीव किसी एक ही गुणस्थान में रह सकता है जबकि एक समय में एक जीव कई मार्गणा स्थानों में रह सकता है क्योंकि मार्गणा स्थान जीव की केवल अवस्थिति को बताते हैं जबकि गुणस्थान जीव के आध्यात्मिक विकास की अवस्थाएँ हैं। ___ गुणस्थान चौदह प्रकार के कहे गए हैं। इनमें पहला है मिथ्यात्व गुणस्थान और अन्तिम है अयोगीकेवली गुणस्थान। पहले वाला जीव मोह-प्रधान होता