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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ११
परिलक्षित हैं। चैतन्यादि गुणों को प्रकाशित करने का, उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम है इन्द्रियाँ | समस्त जीवों में इन्द्रियों का विकास एक-सा नहीं है। किसी में कम है और किसी में अधिक है। जैनदर्शन के अनुसार जीवों में इन्द्रियों के विकास का यह क्रम नामकर्म के एक भेद 'जाति' नामकर्म के उदय के कारण है। एकेन्द्रिय जाति नामकर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय कहलाता है । द्वीन्द्रिय जाति नामकर्म के उदय से जीव द्वीन्द्रिय कहलाता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीव, चतुरिन्द्रिय जीव और पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। इस प्रकार समस्त जीव पाँच जातियों में रखे जा सकते हैं। यथा
(१) एकेन्द्रिय जाति (One-sensed Soul - वन सेन्स्ड सोल),
(२) द्वीन्द्रिय जाति (Two-sensed class of Jivas - टू सेन्स्ड क्लास ऑफ जीव),
(३) त्रीन्द्रिय जाति ( Three-sensed class of Jivas – थ्री सेन्स्ड क्लास ऑफ जीव),
(४) चतुरिन्द्रिय जाति (Four-sensed class of Jivas - फोर सेन्स्ड क्लास ऑफ जीव),
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(५) पंचेन्द्रिय जाति (Five-sensed class of Jivas - फाइव सेन्स्ड क्लास ऑफ जीव) ।
संसार के ऐसे जीवों का समूह जिनमें केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय पाई जाती है या जिनमें केवल एक ही इन्द्रिय का विकास हो पाया हो, एकेन्द्रिय जाति कहलाती है । इसी प्रकार ऐसे जीवों का समूह जिनमें केवल दो इन्द्रियाँ हों, तीन इन्द्रियाँ हों, चार इन्द्रियाँ हों, पाँच इन्द्रियाँ हों या इन इन्द्रियों का विकास हो वे क्रमशः द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति व पंचेन्द्रिय जाति कहलाती हैं। संसार के सारे जीव इन्हीं पाँच जातियों में समाविष्ट हैं ।
एकेन्द्रिय जाति के जीवों में केवल स्पर्शनेन्द्रिय का ही विकास होता है, शेष इन्द्रियों का अभाव रहता है । इस प्रकार के जीव केवल स्पर्शनेन्द्रिय के माध्यम से ही अपने जीवन की समस्त क्रियाएँ संचालित करते हैं।
जैनदर्शन में एकेन्द्रिय जीव के पाँच भेद निरूपित हैं । यथा
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(१) पृथ्वी (Earth) काय जीव,
(२) जल ( Water ) काय जीव,