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* १२ * दूसरा बोल : जाति पाँच
(३) अग्नि (Fire) काय जीव, (४) वायु (Air) काय जीव,
(५) वनस्पति (Vegetarian) काय जीव ।
स्थूल व सूक्ष्म शरीर के आधार पर एकन्द्रिय जाति के जीवों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-एक सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव तथा दूसरे बादर एकेन्द्रिय जीव । सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर चर्म चक्षुओं से नहीं दीखता है वे सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव तथा बादर नामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर चर्म चक्षु से देख सकते हैं वे बादर एकेन्द्रिय जीव कहलाते हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ ये सूक्ष्म जीव न हों जबकि बादर एकेन्द्रिय जीव लोक के नियत क्षेत्र में ही होते हैं । सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि पर्वत की कठोर चट्टानों को भी पार कर
हैं। इनका कोई भी घात-प्रतिघात नहीं कर सकता है । ये किसी के मारने से नहीं मरते हैं। साधारण वनस्पति के सूक्ष्म जीवों को सूक्ष्म निगोद भी कहते हैं । साधारण वनस्पतिकाय का शरीर निगोद कहलाता है, यानी एक शरीर का आश्रय करके अनन्त जीव जिसमें रहें अर्थात् एक ही शरीर को आश्रित कर जिन जीवों के आहार, आयु, श्वासोच्छ्वास आदि समान हों, उन्हें निगोद कहते हैं। जैसे - कन्द-मूल, आलू, गाजर, अदरक, रतालू, लहसुन व प्याज आदि । सम्पूर्ण जगत् में असंख्य गोलक हैं और एक-एक गोलक में असंख्यात निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं इसलिए इन्हें अनन्तकाय भी कहा जाता है । इनकी आयु अन्तर्मुहूर्त्त मानी गई है।
द्वीन्द्रिय जाति के जीवों में एकेन्द्रिय जाति के जीवों की अपेक्षा एक और अधिक इन्द्रिय का विकास हो जाता है अर्थात् इस जाति के जीवों में केवल दो ही इन्द्रियाँ होती हैं। एक स्पर्शनेन्द्रिय और दूसरी रसनेन्द्रिय । शेष सभी इन्द्रियों का अभाव होता है। इस प्रकार के जीव शरीर और जीभ के माध्यम से अपनी जैविक क्रियाएँ पूरी किया करते हैं । द्वीन्द्रिय जीव हैं-लट, सीप, शंख, कृमि, घुन आदि ।
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त्रीन्द्रिय जाति के जीवों में इन्द्रियों का विकास पहली दो जातियों के जीवों की अपेक्षा कुछ अधिक होता है । त्रीन्द्रिय जाति के जीवों में घ्राणेन्द्रिय और अधिक विकसित हो जाती है। इस प्रकार इन जीवों में तीन इन्द्रियाँ पायी जाती