________________
आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १६५ +
श्रमणी या साध्वी के साथ एक आसन पर नहीं बैठ सकते। गृहस्थ जीवन के भोगों, विषय-वासनाओं का न वे स्मरण करते हैं और न चिन्तन ही। ब्रह्मचर्य की साधना सशक्त बनी रहे इसलिए वे कामोद्दीपक, गरिष्ठ भोजन न कर सात्विक व शुद्ध भोजन करते हैं। वे इस सन्दर्भ में सतत जागरूक रहते हैं। उनकी प्रवृत्ति स्वाध्याय, धर्मध्यान व शुक्लध्यान की ओर सदा बनी रहती है जिससे वे पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य व्रत पालन कर सकें।
ब्रह्मचर्य महाव्रत की सुरक्षा व सुदृढ़ता के लिए जैनागम में इसकी पाँच भावनाएँ बतायी गई हैं जिनका प्रतिदिन चिंतन-मनन करने से ब्रह्मचर्य महाव्रत से साधु कभी भी डिग नहीं सकता है। ये भावनाएँ इस प्रकार हैं
(१) स्त्री पशु-नपुंसक संसक्त शय्या और आसन का वर्जन, (२) स्त्री कथा विवर्जन, (३) स्त्रियों की इन्द्रियों का अवलोकन न करना, (४) पूर्व रत एवं पूर्व क्रीड़ित का स्मरण न करना,
(५) प्रणीत (स्निग्ध-सरस) आहार न करना। . (५) अपरिग्रह महाव्रत
श्रमण साधु का यह पाँचवाँ महाव्रत है। इसमें साधु परिग्रह का सर्वथा त्याग करते हैं। वे किसी भी पदार्थ का संचय या संग्रह नहीं करते हैं। उनके जो आवश्यक धर्मोपकरण हैं, जैसे-वस्त्र, पात्र, पुस्तकें आदि उनमें भी मोह-ममता या मूर्छा भाव नहीं रखते हैं। साधु संयम निर्वहन के लिए इनको ग्रहण करते हैं। ये धर्मोपकरण परिग्रह में नहीं आते हैं अपितु ये ज्ञान और संयम में सहायक होते हैं। अपरिग्रह का अर्थ है पदार्थों के प्रति अनासक्त भाव। पदार्थ हों और उनमें ममत्व न हो, राग न हो किन्तु जीवन के लिए वे आवश्यक हों तो वे पदार्थ परिग्रह नहीं हैं। वास्तव में जो मूर्छा है, ममत्व है, वही परिग्रह है।
श्रमण साधु न तो किसी लोभ से और न किसी रागादि से वस्त्र, पात्र ग्रहण करते हैं, न उन पर ममता रखते हैं और न उनका संचय ही करते हैं। अतः उनके ये धर्मोपकरण परिग्रह नहीं हैं। श्रमण साधु बुभुक्षु नहीं होते, प्रत्युत्तर वे मुमुक्षु होते हैं और जो मुमुक्षु होता है उसकी समस्त इच्छाएँ, लालसाएँ, वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं और वह पूर्ण रूप से अपरिग्रही बन जाता है। अपरिग्रह महाव्रत उसके जीवन में चरितार्थ होने लगता है। ऐसा साधक केवल श्रमण साधु ही होता है।