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________________ * १६४ * तेईसवाँ बोल : साधु के पाँच महाव्रत (३) लोभ प्रत्याख्यान, (४) भय प्रत्याख्यान, (५) हास्य प्रत्याख्यान । (३) अस्तेय महाव्रत यह महाव्रत श्रमण साधु का तीसरा महाव्रत है। इसे अचौर्य महाव्रत भी कहते हैं। इसमें चोरी महापाप का सर्वथा परित्याग किया जाता है। मालिक की आज्ञा के बिना न तो छोटी से छोटी वस्तु, जैसे- जल, मिट्टी, तिनका आदि को ग्रहण करते हैं और न ही किसी मकान, भवन आदि में ठहरते हैं । वे किसी दीक्षार्थी को दीक्षा भी नहीं देते जब तक दीक्षार्थी के अभिभावकों व आश्रितों की अनुमति उन्हें न मिल जाए। वे न किसी का अर्थ हरण करते हैं और न अधिकार हरण करते हैं । स्वामी की आज्ञा के बिना न तो कोई चीज लेते हैं, न दूसरों को इस प्रकार अदत्त लेने की प्रेरणा देते हैं और न अदत्त ग्रहण का अनुमोदन ही करते हैं। यदि आज्ञा देने वाला न हो तो पृथ्वी के अधिपति शक्रेन्द्र की ही आज्ञा लेकर वस्तु को ग्रहण व उपयोग करते हैं। वास्तव में इस व्रत के पालने से साधु दिव्यता की ओर सदा अभिमुख रहता है। अस्तेय महाव्रत की भी पाँच भावनाएँ जैनागम में निरूपित हैं। इन भावनाओं के चिंतवन से साधु अस्तेय महाव्रत को पुष्टता के साथ पालन करता है। ये भावनाएँ इस प्रकार हैं (१) विविक्त वास समिति भावना (निर्दोष स्थान में रहने की भावना), (२) अनुज्ञात संस्तारक ग्रहण रूप अवग्रह समिति भावना, (३) शय्या संस्तारक परिकर्म वर्जना रूप शय्या समिति भावना, (४) अनुज्ञात भक्तादि भोजन लक्षणा साधारण पिण्डपात लाभ समिति भावना, (५) साधर्मिक विनयकरण समिति भावना । (४) ब्रह्मचर्य महाव्रत श्रमण साधु का यह चौथा महाव्रत है । साधु मैथुन - अब्रह्मचर्य का परित्याग कर ब्रह्मचर्य महाव्रत का सर्वथा पालन करते हैं । वे स्त्री जाति को मातृवत् समझते हैं। वे शील की नवबाड़ों का पूर्णता के साथ पालन करते हैं। साधु स्त्री जाति को स्पर्श नहीं करते हैं और न एकान्त में बात करते हैं। श्रमण साधु,
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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