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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १६३ *
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सदा समभावी और समदृष्टि रहते हैं। क्योंकि साधु की दृष्टि में यह सूक्ष्म हिंसा है। जीव का घात हो अथवा न हो, शारीरिक कष्ट हो अथवा न हो यदि उन्हें कोई मानसिक पीड़ा या कष्ट होता है तो वे इसे भी हिंसा ही मानते हैं। ___ जैनागम में अहिंसा महाव्रत की परिपालना के लिए पाँच भावनाओं का उल्लेख हुआ है। इन भावनाओं के चिंतन-अनुचिंतन से श्रमण साधु में अहिंसा के संस्कार सुदृढ़ बनते हैं। ये भावनाएँ प्राणातिपात विरमण रूप में हैं। ये पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं
(१) ईर्या समिति भावना, (२) मनः समिति भावना, (३) वचन समिति भावना, (४) ऐषणा समिति भावना, (५) आदान निक्षेपण समिति भावना।
इस प्रकार साधु इस महाव्रत का जीवन पर्यन्त विवेकपूर्वक पालन करते हैं। (२) सत्य महाव्रत
श्रमण साधु का यह दूसरा महाव्रत है। साधु कभी भी असत्य वचन नहीं बोलते हैं। वे झूठ महापाप का सर्वत्र परित्याग किए होते हैं। धर्म-रक्षा व प्राण-रक्षा के लिए भी वे असत्य नहीं बोल सकते। यानी साधु किसी भी स्थिति या परिस्थिति में सत्य महाव्रत का त्याग नहीं कर सकते। उनका सत्य वचन भी किसी के लिए कष्टकारी नहीं होता क्योंकि उनके वचनों में हित व मित समाया रहता है। साधु कभी भी अपशब्द, कठोर व कर्कश वचनों का प्रयोग नहीं करते हैं। वे विचार व विवेकपूर्ण संयमित, निर्दोष, सत्य भाषा का ही प्रयोग करते हैं। साधु किसी की गवाही या साक्ष्य भी नहीं देते हैं। क्योंकि इससे किसी एक को कष्ट हो सकता है। वे इस महाव्रत की रक्षा के लिए क्रोध, लोभ, भय व वाग्जाल आदि से सदा दूर रहते हैं। उनका अधिकांश समय आत्म-ध्यान में लीन रहता है।
सत्य महाव्रत की सुदृढ़ता के लिए जैनागम में पाँच भावनाएँ बतायी गई हैं। जो श्रमण साधु इन भावनाओं का मनोयोगपूर्वक चिन्तन करता है, वह भव. सिन्धु से अवश्य पार हो सकता है। ये भावनाएँ इस प्रकार हैं
(१) अनुवीचि भाषण (विचारपूर्वक बोलना), (२) क्रोध प्रत्याख्यान,