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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ५ *
कहलाती हैं। इन नरक भूमियों के नाम भी गुणात्मक हैं। पहली भूमि की आभामण्डल रत्न-प्रधान होने से रत्नप्रभा कहलाती है। दूसरी शर्करा (शक्कर) के सदृश होने से शर्कराप्रभा, तीसरी बालुका-रेती की मुख्यता से बालुकाप्रभा, चौथी पङ्क-कीचड़ की अधिकता से पंकप्रभा, पाँचवीं धूम-धुएँ की अधिकता से धूमप्रभा, छठी तम-अँधेरे की विशेषता से तमःप्रभा और सातवीं घने अंधकार की प्रचुरता से महातमःप्रभा कहलाती है।
पहली भूमि से दूसरी और दूसरी से तीसरी इस प्रकार सातवीं भूमि तक के नरक अशुभ, अशुभतर और अशुभतम रचना वाले होते हैं। इनमें रहने वाले नारकी जीवों की लेश्याएँ, परिणाम, वेदना और विक्रिया भी उत्तरोत्तर अधिक से अधिक अशुभ होती जाती हैं। नारकी जीवों में मुख्यतः तीन लेश्याएँ होती हैं-कृष्ण लेश्या, नील लेश्या व कापोत लेश्या। इनमें पहली व दूसरी भूमि के नारकी जीवों की लेश्याएँ कापोत, तीसरी की कापोत और नील (कापोत लेश्या वाले अधिक व नील लेश्या वाले कम), चौथी की नील, पाँचवीं की नील-कृष्ण (नील लेश्या वाले अधिक व कृष्ण लेश्या वाले कम), छठी और सातवीं की कृष्ण लेश्या होती है अर्थात् पहली से सातवीं तक के नारकों में लेश्याएँ अशुभ से अशुभतर होती जाती हैं। नारक जीवों में सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, भय, जो भी अनुभव होता है, वह अत्यन्त होता है। नारकी जीव सदा दुःखी रहते हैं। वहाँ अनन्त दुःख, असाता और अविश्राम निरन्तर रहता है। उन्हें तीन प्रकार के कष्ट व पीड़ा या वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं
(१) क्षेत्र जन्य वेदना. (२) परस्पर जन्य वेदना, (३) परमाधामी देवों द्वारा दी जाने वाली वेदना।
नारकों के शरीर भी क्रमशः अधिक वीभत्स, घृणास्पद और भयावने होते हैं। पहले नारक के जीवों की अपेक्षा दूसरे, तीसरे और इस प्रकार सातवें नरक के जीवों का शरीर अत्यन्त घृणास्पद, वीभत्स और दुर्गन्धयुक्त होता है। ___ नारक जीवों की जघन्य और उत्कृष्ट आयु भी प्रथम नरक से लेकर सातवें नरक तक के जीवों में उत्तरोत्तर लम्बी होती जाती है। जैसे प्रथम नरक की जघन्य आयु दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट आयु एक सागर है तो सातवें नरक की जघन्य आयु बाईस सागर और उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागर है। इन जीवों की आयु बीच में कहीं नहीं छूटती, इन्हें यह आयु पूरी ही भोगनी पड़ती है अर्थात् दीर्घ समयावधि तक इन नारकी जीवों को दुःख व कष्ट भोगने ही पड़ते हैं।