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* ६ : पहला बोल: गतियाँ चार
जैनागम में यह स्पष्ट उल्लेख है कि देवगति से आयु पूर्ण कर कोई भी जीव नरक गति में या देव गति उत्पन्न नहीं हो सकता तथा नारकी जीव भी नरक आयु पूर्ण कर देवगति में अथवा नरक गति में उत्पन्न नहीं होता। इससे यह स्पष्ट होता है कि नरक में जीव मनुष्य और तिर्यंच गति से ही आते हैं और अपनी नरकायु भोगकर तिर्यंच अथवा मनुष्य गति में ही उत्पन्न होते हैं।
इसके साथ यह भी नियम है कि पहली से चौथी नरक तक के जीव मनुष्य गति में उत्पन्न होकर निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार पाँचवीं नरक के जीव मनुष्य गति पाकर संयम धारण कर सकते हैं। छठी नरक से निकले नारक देशविरति और सातवीं नरक से निकले नारक सम्यक्त्वी बन सकते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रियों तक के सभी असंज्ञी जीव और मनरहित पंचेन्द्रिय जीव भी आयु पूर्ण कर पहली नरक भूमि तक में जन्म ले सकते हैं । भुजपरिसर्प, जैसे- नेवला, चूहा आदि दूसरी नरक भूमि तक; खेचर, जैसे- पक्षी आदि तीसरी नरक भूमि तक; थलचर, जैसे- सिंह, अश्व आदि चौथे नरक भूमि तक; उस्परिसर्प, जैसे-सर्प आदि पाँचवें नरक भूमि तक; स्त्री छठे नरक भूमि तक और मनुष्य सातवें नरक भूमि तक जा सकते हैं।
जैनदर्शन में नरक गति के बंध का प्रमुख कारण महारम्भ और महापरिग्रह माना गया है तथापि देव, शास्त्र, गुरु की निन्दा करने से, आगम के विपरीत बोलने से क्रोध, लोभ व पर- स्त्री सेवन, पंचेन्द्रिय जीवों का वध करने से तथा माँस, मदिरा आदि दुर्व्यसनों के सेवन से संसारी जीव नरक गति में जा सकता है। वास्तव में नरक एक ऐसा स्थान है जहाँ जीव अपने अति अशुभ कर्मों का फल भोगता है।
(२) तिर्यंच गति
मध्य या तिर्यक् लोक में तिर्यंच गति और मनुष्य गति के जीव रहते हैं । इस लोक में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के मनुष्य को छोड़कर समस्त जीव, जो भूमि पर चलते हैं, आकाश में उड़ते हैं तथा पानी में रहते हैं साथ ही विकलेन्द्रिय जीव भी तिर्यंच कहलाते हैं । तिर्यंच जिस गति में रहते हैं वह गति तिर्यंच गति कहलाती है अर्थात् तिर्यंच गति नामकर्म के उदय से पशु, पक्षी, कीट, पतंगे, वृक्षादि की पर्याय में जन्म लेने को तिर्यंच गति कहते हैं। तिर्यंच गति के जीवों में अनेक भेद-प्रभेद हैं, जैसे- स्थावरकाय, त्रसकाय, सूक्ष्म - बादर, एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय । पंचेन्द्रियों में भी जलचर, थलचर, खेचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प आदि ।