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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ७
नरक गति की तरह तिर्यंच गति भी पापमूलक मानी जाती है। इस गति के जीव अपने अशुभ कर्मों का फल भोगते हैं । यहाँ छेदन - भेदन, भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी आदि भयंकर दुःख हैं । इनकी उत्कृष्ट और जघन्य आयु भी अलग-अलग हैं। यहाँ से निकलकर जीव अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार चारों गतियों में जा सकते हैं । तिर्यंच गति के बन्ध का मूल कारण मायाचार है । (३) मनुष्य गति
मनुष्य जिस लोक में रहते हैं वह मध्य लोक है और वह गति मनुष्य गति है । जैनधर्म में मनुष्यों का निवास ढाई द्वीपों में माना गया है - एक जम्बू द्वीप, दूसरा धातकीखण्ड द्वीप और आधा पुष्करवर द्वीप ।
संज्ञी और असंज्ञी - मनुष्य के ये दो भेद हैं। मनधारी मनुष्य संज्ञी तथा जिनमें द्रव्य मन का अभाव हो, असंज्ञी कहलाते हैं। संज्ञी मनुष्य गर्भज होते हैं जबकि असंज्ञी मनुष्य सम्मूर्च्छिम कहलाते हैं जो मनुष्य जाति के मल-मूत्र, श्लेष्म आदि चौदह स्थानों से उत्पन्न होते हैं । ये अत्यन्त सूक्ष्म होते हैं इसलिए हम इनको देख नहीं सकते हैं। गुणों की दृष्टि से मनुष्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- एक आर्य और दूसरा म्लेच्छ । आर्य मनुष्य श्रेष्ठ गुण वाले, शील व सदाचार - सम्पन्न होते हैं तथा म्लेच्छ कोटि में वे मनुष्य परिगणित हैं जिनका आचरण निन्दित और गर्हित होता है ।
चारों गतियों में मनुष्य गति को श्रेष्ठ माना गया है। इसका कारण यह है कि केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो संयम और तपः साधना से अपनी - आत्मा का विकास करता हुआ मोक्ष पदवी प्राप्त कर सकता है। मनुष्यों की स्थिति चौदह गुणस्थानों तक हो सकती है जबकि नारक और देव चौथे गुणस्थान तक ही रह सकते हैं और तिर्यंच पाँचवें गुणस्थान तक ।
मनुष्य गति से निकला हुआ जीव चारों गतियों में जा सकता है। मनुष्य गति प्राप्त करने का मूल कारण है अल्पारम्भी, अल्पपरिग्रही, उत्तमभद्र, सरल स्वभावी, विनयी, दयालु स्वभावी होना तथा ईर्ष्यालु न होना ।
(४) देव गति
ऊर्ध्व लोक में देवगति के जीव रहते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं। यथा(१) भवनपति देव,
(२) व्यन्तर- वाणव्यन्तर देव,