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* १०८ सोलहवाँ बोल : दण्डक चौबीस
शूल से युक्त कंकड़- प्रधान है, बालुकाप्रभा उष्ण बालूयुक्त है, पंकप्रभा दुर्गन्धित पदार्थों की कीचड़ -प्रधान भूमि है, धूमप्रभा तीक्ष्ण दुर्गन्ध से युक्त धूम-प्रधान है, तमःप्रभा अंधकारमय है और महातमः प्रभा सघन अंधकारमय है । सातों नरक भूमियों के लिए केवल एक दण्डक ही निर्धारित है।
नरक दण्डक में शीत और उष्णता का, भूख और प्यास का भयंकर दुःख है, वेदना है, पीड़ा है जिन्हें नारक हजारों वर्षों तक भोगता है। नारंकों का शरीर वैक्रिय होता है। ये लोग दुःखों से बचने के लिए अपने इस वैक्रिय शरीर को मूल शरीर से दुगुने आकार तक का बना लेते हैं फिर भी उनका कष्ट कम की अपेक्षा और अधिक बढ़ जाता है । नारक परस्पर एक-दूसरे को दुःख देते रहते हैं। वहाँ सुख लेशमात्र को भी नहीं है। प्रथम तीन नरक भूमियों में परम अधार्मिक देव रहते हैं। ये अत्यन्त क्रूर स्वभावी, निर्दयी और पापी हैं। ये एक प्रकार से असुरदेव हैं जो यहाँ के नारकों को कुत्तों, भैसों की तरह परस्पर मारपीट कराकर, लड़ाकर, उकसाकर स्वयं प्रसन्न होते हैं। इन्हें सताने में ही प्रसन्नता मिलती है। पहले से लेकर सातवें तक के नारकों में भाव या परिणाम क्रमशः उत्तरोत्तर अशुभ से अशुभ होते जाते हैं । इनका शरीर भी क्रमशः अधिक वीभत्स, घृणास्पद, दुर्गन्धयुक्त और डरावना होता चला जाता है। नारकों को अपनी आयु पूरी भोगनी पड़ती है। उनकी आयु बीच में टूटती नहीं है। यानी दुःखों से घबड़ाकर वे यदि मरना भी चाहें तो निश्चित समय की आयु भोगे बिना मर भी नहीं सकते हैं। यानी इनकी आयु अनपवर्त्य होती है।
पहली नरक भूमि को छोड़कर शेष छह भूमियों में द्वीपों, समुद्रों, पर्वत - सरोवरों, गाँव-शहर, वृक्ष, लता, बादर वनस्पतियाँ, द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त तिर्यंचों, मनुष्यों और देवों का अभाव रहता है।
तिर्यंच दण्डक
तिर्यंच गति के लिए नौ दण्डक निर्धारित किए गए हैं जिनमें पाँच स्थावरों के क्रमशः एक-एक दण्डक, यानी कुल पाँच दण्डक, विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के लिए क्रमशः एक-एक दण्डक, यानी कुल तीन दण्डक तथा एक दण्डक तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए निर्धारित है। ये नौ दण्डक इस प्रकार से हैं
(१) पृथ्वीकाय,
(२) अप्काय,