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(३) तैजस्काय,
(४) वायुकाय,
(५) वनस्पतिकाय, (६) द्वीन्द्रिय.
(७) त्रीन्द्रिय.
(८) चतुरिन्द्रिय, (९) तिर्यंच पंचेन्द्रिय ।
आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : १०९
तिर्यंच के सन्दर्भ में कहा गया है कि पशु-पक्षी, कीट, पतंग, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, निगोद, यानी संसार के सभी जीव केवल नारक, देव और मनुष्य को छोड़कर तिर्यंच कहलाते हैं । इनमें से कुछ जीव जलचर, कुछ थलचर और कुछ नभचर होते हैं। इन सबकी उत्कृष्ट और जघन्य आयु भी अलग-अलग हैं। तिर्यंच मध्य लोक के सभी असंख्यात द्वीप, समुद्रों में होते हैं किन्तु अढाई द्वीप से आगे के सभी समुद्रों में जल तथा स्थावर के अतिरिक्त अन्य कोई द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव नहीं होते हैं । अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र में पाए जाते हैं । तिर्यंच गति के जीवों को छेदन - भेदन, भूख-प्यास, गर्मी - सर्दी आदि भयंकर दुःख हैं ।
मनुष्य दण्डक
मनुष्य पंचेन्द्रिय का केवल एक दण्डक माना गया है। मनुष्यों में भी आर्य और म्लेच्छ, संज्ञी और असंज्ञी आदि की अपेक्षा से अनेक भेद हैं। मनुष्य गति में इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग व गर्भादिक दुःख माने गए हैं किन्तु इस गति में मनुष्यों को संयम और चारित्र धारण कर संसार के बंधनों से मुक्त होने का अवसर भी मिलता है। इसलिए यह गति चारों गतियों में श्रेष्ठ मानी गई है। जैनदर्शन में ढाई द्वीपों में मनुष्य का निवास बताया गया है । ये अढाई द्वीप हैंएक जम्बू द्वीप, दूसरा धातकीखण्ड द्वीप और आधा पुष्करवर द्वीप ।
देव दण्डक
देवगति के लिए तेरह दण्डक निर्धारित हैं । देवगति में देवों का निवास है । देवों का निवास ऊर्ध्व लोक में माना गया है। इनका शरीर दिव्य होता है। रक्त, माँस, मज्जा आदि धातुओं से बना नहीं होता है । देव सामान्यतः चर्म चक्षुओं से