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* ७४ * ग्यारहवाँ बोल : गुणस्थान चौदह
आठवें में कषाय की निवृत्ति थोड़ी मात्रा में रहती है जबकि नवें में कषाय थोड़ी मात्रा में शेष रहता है। इसलिए इसे अनिवृत्ति बादर कहा गया है। आठवें गुणस्थान का नाम कषाय निवृत्त होने के आधार पर रखा गया है जबकि नवें का नाम कषाय निवृत्त न होने के आधार पर रखा गया है। (१०) सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान ___ यह दसवाँ गुणस्थान है। इसमें संज्वलन प्रकृति का लोभ कषाय सूक्ष्म अंश में रहता है। इस अवस्था में क्रोध, मान, माया; ये तीन कषाय उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं। केवल लोभ कषाय अंश मात्रा में शेष रह जाता है। (११) उपशान्तमोह गुणस्थान
यह ग्यारहवाँ गुणस्थान है। इसमें कषाय पूर्ण रूप से उपशान्त हो जाते हैं। यद्यपि वे सत्ता में रहते हैं किन्तु उदय में नहीं आते हैं। इसमें मोह अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशान्त हो जाता है। पूर्ण रूप से क्षय नहीं होता है। गुणस्थान का समय पूरा होते ही उपशान्त मोहनीय कर्म उदय में आने से जीव पतित होकर नीचे के गुणस्थानों में पहुँच जाता है। यदि इस गुणस्थान में साधक का आयु क्षय होता है तो वह साधक सर्वार्थसिद्ध विमान में देव बनता है। (१२) क्षीणमोह गुणस्थान
यह बारहवाँ गुणस्थान है। इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म का सम्पूर्ण रूप से क्षय हो जाता है, यानी लोभकषाय का संज्वलन रूप भी मिट जाता है। इस अवस्था में आत्मा पूर्ण वीतरागी हो जाती है। (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान
यह तेरहवाँ गुणस्थान है। यहाँ तक आते-आते साधक के चारों घाति कर्मों का सम्पूर्ण क्षय हो जाता है। साधक के अनन्त चतुष्टय प्रकट हो जाते हैं जिससे साधक तीनों लोक और तीनों काल का हस्तामलकवत् दर्शी व ज्ञानी होता है। साधक योग केवली व सर्वज्ञ बन जाता है। (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान
यह चौदहवाँ गुणस्थान है। इस अवस्था में केवली भगवान योग का निरोध करके शैलेशी अवस्था प्राप्त कर अर्थात् मेरु पर्वत के समान निष्कम्प होकर अन्ततः मुक्त हो जाते हैं।