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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ७३
त्यागरूप नहीं होता। व्रत, त्यागरहित सम्यक्त्व बोध की यह अवस्था है। अन्य दर्शनों में इस अवस्था को आत्म-दर्शन या आत्म-साक्षात्कार कहते हैं ।
(५) देशविरत गुणस्थान
यह पाँचवाँ गुणस्थान है । इस स्थिति में जीव श्रावक व्रतों का पालन तो करता है किन्तु उसकी विरति आंशिक होती है अर्थात् उसका त्याग पूर्ण नहीं होता है अपितु देशरूप में या अंशरूप में होता है। इसे देशव्रती, संयतासंयती, व्रताव्रती और धर्माधर्मी भी कहते हैं। इस स्थान में ६७ प्रकार की कर्म - प्रकृतियाँ बँधती हैं जबकि चतुर्थ गुणस्थान में ७७ कर्म - प्रकृतियाँ बँधती हैं।
(६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान
यह छठा गुणस्थान है। यहाँ से साधु जीवन की अवस्थाएँ प्रारम्भ होती हैं। यहाँ से आगे के सभी गुणस्थान मनुष्यों को ही होते हैं । यद्यपि इस अवस्था के साधक का चारित्र पूर्ण विशुद्ध होता है फिर भी प्रमाद की सत्ता यहाँ बनी रहती है। इसमें तिरेसठ कर्म - प्रकृतियों का बंध होता है । '
(७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान
यह सातवाँ गुणस्थान है । इसमें प्रमाद का भी अभाव हो जाता है। यह अवस्था छंठी अवस्था से भी अधिक विशुद्ध है । साधुजन इस अवस्था में आकर ज्ञान, ध्यान, तप में लीन रहते हैं ।
(८) निवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थान
यह आठवाँ गुणस्थान है। इसमें स्थूलकषाय की निवृत्ति होती है अर्थात् कषाय थोड़े रूप में उपशान्त या क्षीण होता है । इसमें कषाय का संज्वलन रूप बना रहता है । यहीं से श्रेणी - आरोहण होता है। श्रेणी दो प्रकार की हैं - एक क्षपक श्रेणी और दूसरी उपशम श्रेणी ।
( ९ ) अनिवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थान
यह नवाँ गुणस्थान है। इसमें स्थूलकषायों की निवृत्ति की मात्रा बहुत बढ़ 'जाती है अर्थात् इसमें कषाय थोड़ी मात्रा में रहता है। आठवें और नवें गुणस्थान में अन्तर यह है कि इस अवस्था में आत्मा कषाय से प्रायः निवृत्त हो जाता है।
१. कर्म प्रकृतियों के लिए देखिए दूसरा कर्म ग्रंथ सुखलाल संघवी ।