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________________ * १३२ उन्नीसवाँ बोल : ध्यान चार (३) निसर्ग रुचि, (४) उपदेश (अवगाढ़) रुचि । धर्मध्यान के लिए चार आलम्बन हैं जिसके आधार पर धर्मध्यान स्थिर रह सकता है ---------➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖ (१) वाचना - गुरु मुख से शास्त्र का पाठ लेना, (२) पृच्छना - सीखे हुए तत्त्व ज्ञान के विषय में प्रश्न करना, (३) परिवर्तना - पुनः - पुनः स्मरण करना, (४) धर्मकथा - धर्मचर्चा या धर्मोपदेश करना । धर्मध्यान की दृढ़ता के लिए चार प्रकार की अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का भी उल्लेख हुआ है ( १ ) एकत्वानुप्रेक्षा - जीव के एकाकीपन के विषय में चिन्तन, (२) अनित्यानुप्रेक्षा - शरीर पुद्गल आदि की अनित्यता के सम्बन्ध में चिन्तन, (३) अशरणानुप्रेक्षा - संसार धर्म के सिवाय कोई शरणभूत नहीं है, इस विषय की विचारणा, (४) संसारानुप्रेक्षा - संसार स्वरूप की विचारणा । धर्मध्यानी अपनी समस्त चित्तवृत्तियों को मोड़कर इन भावनाओं, आलम्बनों व लक्षणों के स्वरूप पर एकाग्र कर लेता है। वह निरन्तर इन्हीं विषयों का ही ध्यान करता हुआ अपने आत्म-परिणामों को विशुद्ध करने का प्रयत्न करता है। (४) शुक्लध्यान जो ध्यान आत्मा में लगे कर्मफल को तीव्रता के साथ दूर करता है वह शुक्लध्यान है । इसके द्वारा निर्मल आत्म-स्वरूप की प्रतीति होने लगती है । इसके चार भेद हैं (१) पृथक्त्व वितर्क सविचार, (२) एकत्व वितर्क सविचार, (३) सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति, (४) व्युपरतक्रियाऽनिवृत्ति ।
SR No.002470
Book TitleAgam Gyan Ki Adharshila Pacchis Bol
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVarunmuni
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2011
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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