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आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल * १३१ *
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को यदि रौद्रध्यान होता भी है तो अधिक तीव्र नहीं होता और न ही अधिक समय तक ठहरता है। ऐसे जीव अपने परिणामों को शीघ्र ही स्थिर कर लेते हैं। पहले से तीसरे गुणस्थान तक के जीवों को तो रौद्रध्यान होता ही है। (३) धर्मध्यान
जिस ध्यान में श्रुत व चारित्ररूप धर्म का चिन्तन होता हो, वह ध्यान धर्मध्यान कहलाता है। इसमें संसार की असारता का चिन्तम किया जाता है। यह धर्मध्यान चार प्रकार का होता है
(१) आज्ञाविचय धर्मध्यान, (२) अपायविचय धर्मध्यान, (३) विपाकविचय धर्मध्यान, (४) संस्थानविचय धर्मध्यान।
आज्ञाविचय धर्मध्यान में वीतराग या सर्वज्ञ के उपदेशों का चिन्तवन चलता है। साधक अपनी समस्त चित्तवृत्तियों को सब ओर से हटाकर निरन्तर इस विषय पर ही चिन्तन-अनुचिन्तन करता रहता है। अपायविचय धर्मध्यान में दोषों के स्वरूप और उससे मुक्ति कैसे सम्भव है आदि विषयों पर चिन्तन चलता रहता है। विपाकविचय धर्मध्यान में कर्मों की अनुभाव शक्ति का विचार, किस कर्म का कैसा शुभ या अशुभ विपाक होता है, उन कर्मों की फलदायिनी शक्ति क्या है आदि ऐसे ही विषयों में मन को एकाग्र किया जाता है। संस्थानविचय धर्मध्यान में साधक लोकस्वरूप का विचार करने में अपने मन को एकाग्र करता है, यानी उसका चिन्तन लोक के आकार, उसकी रचना आदि विषय से सम्बन्धित होता है।
धर्मध्यान, अप्रमत्त संयत सातवें गुणस्थान वाले साधुओं तक होता है किन्तु ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान अर्थात् उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय वालों के भी यह सम्भव हो सकता है। पहले मिथ्या दृष्टि जीवों से लेकर तीसरे मिश्र दृष्टि गुणस्थान वाले जीवों में धर्मध्यान का सर्वथा अभाव रहता है। धर्मध्यान का अधिकारी तो केवल सम्यक्त्वी ही है। धर्मध्यान के चार लक्षण हैं। यथा(१) आज्ञा रुचि, (२) सूत्र रुचि,