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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १३३ *
पहले प्रकार के ध्यान में तीन शब्द हैं-एक पृथक्त्व, दूसरा वितर्क और तीसरा विचार। पृथक्त्व का अर्थ है-भिन्नता, वितर्क का अर्थ है-श्रुत ज्ञान और विचार का अर्थ है-एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर, अर्थ से शब्द पर, शब्द से अर्थ पर तथा एक योग से दूसरे योग पर चिन्तन करना। इस प्रकार इसमें पूर्वानुसारी श्रुत का अवलम्बन लेकर तथा किसी एक द्रव्य को ध्यान का विषय बनाकर, यानी चेतन या अचेतन पदार्थ में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप भंगों को तथा मूर्त्तत्व अमूर्त्तत्व पर्यायों पर अनेक नयों की अपेक्षा से भेद-प्रधान चिन्तन भिन्न-भिन्न रूप से किया जाता है। इसमें चिंतन का परिवर्तन होता रहता है। इसमें वितर्क और विचार दोनों ही रहते हैं। दूसरे प्रकार के शुक्लध्यान में वितर्क, यानी श्रुत का आलम्बन तो होता है किन्तु विचार, यानी चित्तवृत्ति में परिवर्तन नहीं होता। किसी भी एक पर्याय पर चित्तवृत्ति निष्कम्प दीपशिखा के समान स्थिर हो जाती है। एक ही ध्येय पर चित्तवृत्ति के स्थिर रहने के कारण इसे एकत्व वितर्क शुक्लध्यान कहा जाता है। इसमें चित्त की वृत्ति अभेद-प्रधान होती है। मन के निश्चल एवं पूर्ण शान्त हो जाने के कारण अरिहन्त दशा प्रकट होने लगती है। तीसरे प्रकार में जब केवली भगवान सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन लेकर शेष योगों का निरोध कर देते हैं तब केवल श्वासोच्छ्वास की क्रिया ही शेष रहती है। उस समय जो आत्म-परिणति होती है उसे सूक्ष्म क्रियाऽप्रतिपाति के नाम से जाना जाता है। अप्रतिपाति इसलिए कि वहाँ से पुनः पतन नहीं होता है। यह ध्यान अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर ही होता है। चौथे प्रकार में सर्वज्ञ केवली श्वासोच्छ्वास का भी निरोध कर अयोगी बन जाते हैं। तब उनके आत्म-परिणाम निष्कम्प हो जाते हैं। शैलेशी दशा में वे आ जाते हैं। इस अवस्था में समस्त कर्म क्षय हो जाते हैं और आत्मा परमात्मा बन सिद्धत्व को प्राप्त होता है।
शुक्लध्यान के तीसरे व चौथे पाए (भेद) में वितर्क या श्रुत के आलम्बन की कोई आवश्यकता नहीं रहती, केवल पहले और दूसरे में श्रुत का आलम्बन आवश्यक रहता है। गुणस्थानों की दृष्टि से पहले दो बादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय गुणस्थान वालों के होते हैं। बाद के दो शुक्लध्यान केवली भगवान के होते हैं। योगों की दृष्टि से पहले में मन, वचन व काय तीनों योगों का अवलम्बन होता है, दूसरे में तीनों योगों में से किसी एक योग का, तीसरे में काययोग का अवलम्बन होता है किन्तु चौथे में किसी भी योग का अवलम्बन नहीं होता है क्योंकि यह अयोगीकेवली को होता है।