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* १३४ उन्नीसवाँ बोल : ध्यान चार
शुक्लध्यानी जीव के चार लक्षण होते हैं
(१) अव्यय, यानी उपसर्गों में आत्म-स्वभाव से विचलित न होना,
(२) असम्मोह, यानी सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों में भी भ्रांत चित्त न होना तथा देवादिकृत माया- इन्द्रजाल आदि से भी सम्मोहित न होना,
(३) विवेक, आत्मा और शरीर आदि का दृढ़ भेदविज्ञान, हेय, ज्ञेय, उपादेय का वास्तविक और विवेकपूर्ण निश्चय ज्ञान का होना, (४) व्युत्सर्ग, यानी निःसंग या असंग होना ।
शुक्लध्यान के लिए चार आलम्बन हैं - (१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) मुक्ति ।
शुक्लध्यान की स्थिरता के लिए चार प्रकार की अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का उल्लेख है- (9) अनन्तवर्तित अनुप्रेक्षा, (२) विपरिणामानुप्रेक्षा, (३) अशुभानुप्रेक्षा, (४) अपायानुप्रेक्षा ।
( आधार : स्थानांग, स्थान ४, समवायांग ४)
प्रश्नावली
१. ध्यान के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए ध्यान के लिए कौन-सी बातें प्रमुख हैं? बताइए |
२. शुभ और अशुभ ध्यान से क्या तात्पर्य है? ये कितने प्रकार के कहे गए हैं?
३. किस कारण से वर्तमान युग में धर्मध्यान तो व्यक्ति कर सकता है किन्तु शुक्लध्यान नहीं ?
४. ध्यान और ध्यान - प्रवाह में क्या अन्तर है ? स्पष्ट कीजिए ।
५. ध्यान का उत्कृष्ट काल क्या है?
६. गुणस्थानों की दृष्टि से चारों प्रकार के ध्यान की स्थितियों का वर्णन कीजिए।
७. धर्मध्यान और शुक्लध्यान के भेदों का नामोल्लेख कीजिए ।
८. विपाकविचय और पृथक्त्व वितर्क सविचार किस ध्यान के भेद हैं?