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बीसवाँ बोल : षड्द्रव्य और उनके भेद ( विश्व के घटक रूप छह द्रव्यों का विवेचन )
(१) धर्मास्तिकाय,
(२) अधर्मास्तिकाय,
(३) आकाशास्तिकाय,
(४) काल द्रव्य,
(५) जीवास्तिकाय, (६) पुद्गलास्तिकाय ।
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जैनदर्शन में 'द्रव्य' एक पारिभाषिक शब्द है । द्रव्य की अनेक परिभाषाएँ जैनशास्त्रों में व्यवहृत हैं। इन समस्त परिभाषाओं का जो सार है, वह यह है कि गुणों का आश्रय या गुणों का पुञ्ज द्रव्य कहलाता है। गुण क्या है ? शक्ति - विशेष को गुण कहते हैं। गुण शाश्वत होते हैं। इनका अस्तित्व सदा बना रहता है किन्तु इनमें परिणमन अवश्य होता है। गुणों के परिणमन को पर्याय कहा जाता है जैसे आत्मा की ज्ञान - शक्ति विशेष ज्ञानगुण है और इस ज्ञानगुण के परिणमन से मतिज्ञान आदि रूप पर्यायें बनती हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में गुण और पर्याय होते हैं। बिना इन दोनों के द्रव्य का कोई अस्तित्व नहीं है अर्थात् द्रव्य गुण - पर्यायवत् होता है। द्रव्य में गुण सदैव व सहभावी रूप में रहते हैं जैसे आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुण और पर्याय क्रमभावी रूप में।
कोई भी एक पर्याय द्रव्य में सदा एक-सी नहीं रहती है। उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य होता रहता है, जैसे- आत्मा की क्रोधादि कषाय रूप परिणति या पर्याय चिरस्थायी नहीं है। पुद्गल के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श; ये पुद्गल के गुण हैं जो पुद्गलों में सदा सहभावी रूप में बने रहते हैं किन्तु घट, पट आदि पर्यायें बदलती रहती हैं, ये क्रमभावी हैं। इसी प्रकार हम मनुष्य पर्याय को समझ सकते हैं। मनुष्य-पर्याय में जो मनुष्य है, यानी मनुष्य की जो आत्मा है और उसमें जो गुण हैं वे तो सदा बने ही रहते हैं । वे कभी नष्ट नहीं होते हैं किन्तु इसमें शिशु अवस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि अनेक पर्याय बदलती रहती हैं। ये पर्याय अवान्तर पर्याय
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