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* ३४ : पाँचवाँ बोल : पर्याप्ति छह
(५) भाषा पर्याप्ति, (६) मनः पर्याप्ति ।
जिस शक्ति से जीव आहार के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उनको खल और रस रूप में परिणत करता है और असार रूप में छोड़ देता है वह शक्ति आहार पर्याप्ति कहलाती है । इसी प्रकार जिस शक्ति से जीव रस रूप में परिणत आहार को रक्त, माँस, मज्जा और वीर्य आदि सात धातुओं में बदलता है वह शरीर पर्याप्ति; जिस शक्ति से जीव सप्त धातुओं को स्पर्शन, रसन आदि इन्द्रियों में बदलता है वह इन्द्रिय पर्याप्ति; जिस शक्ति से जीव श्वास और उच्छ्वास योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता और छोड़ता है वह श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति; जिस शक्ति से जीव भाषा योग्य भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा रूप में परिणत करके छोड़ता है वह भाषा पर्याप्ति तथा जिस शक्ति के द्वारा जीव मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर मन रूप में बदलता और छोड़ता है वह मनः पर्याप्ति कहलाती है।
पर्याप्तियों का प्रारम्भ एक साथ होता है किन्तु इसकी पूर्णता क्रमरूप से होती है। पहले आहार पर्याप्ति पूर्ण होती है फिर शरीर पर्याप्ति, इसी तरह क्रमबद्धता के साथ अन्त में मनः पर्याप्ति की पूर्णता का विधान जैनागम में दृष्टव्य है। इस बात को मकान निर्माण के दृष्टान्त से समझा जा सकता है कि जिस प्रकार मकान बनवाने वाला पहले ईंट, पत्थर, चूना, गारा, सीमेण्ट, लकड़ी आदि सामग्रियों को एकत्रित करता है तब वह यह तय करता है कि कौन-सा पदार्थ किस योग्य है, अमुक लकड़ी स्तम्भ बनाने के योग्य है, अमुक लकड़ी दरवाजा बनाने के योग्य है, अमुक पत्थर इस दीवार के योग्य है आदि-आदि। फिर वह मकान के प्रवेश और निकास पर ध्यान रखता है। मकान और उसके कमरों के प्रवेश के लिए कौन-से और कहाँ दरवाजे उपयुक्त रहेंगे। फिर जब मकान तैयार हो जाता है तब अमुक कमरा शयन कक्ष है, अमुक रसोईघर है, अमुक स्नानगृह है, अमुक स्टोर है आदि-आदि तय किए जाते हैं और अन्त में यह विचारणा होती है कि अमुक कमरा शीतकाल में गरम रहता है, ग्रीष्म में ठण्डा रहता है, वर्षा में हवायुक्त है आदि-आदि। उसी तरह इस मकान के निर्माण की भाँति पर्याप्ति के सन्दर्भ में हम सोच सकते हैं। जीव अपने आहार - शरीरादि का क्रमशः निर्माण किस प्रकार की शक्ति के द्वारा सम्पन्न करता है ।