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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ११५ *
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ही चित्रांकन नहीं किया गया है अपितु मनोभावों से उत्पन्न कर्म-व्यवहार की भी चर्चा हुई है क्योंकि जैसे विचार या भाव मन में उठते हैं वैसे ही वर्ण आदि पुद्गल जीवों में आकर्षित होते हैं और तदनुरूप जीव कर्मबंधन में बंधता है।
कषायों की तीव्रता और मन्दता के आधार पर जीवों में जो परिणमन होता है, वह असंख्य है अतः लेश्याएँ भी असंख्य हो सकती हैं किन्तु ये असंख्य परिणमन छह में अन्तर्मुक्त हो जाने से लेश्याएँ भी छह प्रकार की कही गई हैं। यथा
(१) कृष्ण लेश्या, (२) नील लेश्या, (३) कापोत लेश्या, (४) तेजोलेश्या, (५) पद्म लेश्या, (६) शुक्ल लेश्या।
इन छह लेश्याओं में कृष्ण लेश्या में कषाय सबसे तीव्रतम और शुक्ल लेश्या में कषाय सबसे मन्दतम स्थिति में होती है। पहली तीन लेश्याओं में कषायों की स्थिति क्रमशः तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र तथा बाद की तीन लेश्याओं में कषायों की स्थिति क्रमशः मन्द, मन्दतर और मन्दतम होती है। इन षड्लेश्याओं में जीव के मन और विचार क्रमशः निर्मल होते जाते हैं, यानी सबसे निकृष्ट विचार या मनोभाव कृष्ण लेश्या में और सबसे उत्कृष्ट व उत्तम विचार शुक्ल लेश्या में होते हैं। इसी आधार पर पहली तीन लेश्याएँ अधर्म तथा बाद की तीन लेश्याएँ धर्म लेश्याएँ कही गई हैं। अधर्म लेश्याओं वाला जीव दुर्गति में तथा धर्म लेश्याओं वाला जीव सद्गति में उत्पन्न होता है। इन षड्लेश्याओं का नामकरण भी द्रव्य लेश्याओं के आधार पर हुआ है, जैसेकृष्ण वर्ण की लेश्या कृष्ण लेश्या। इसी प्रकार अन्य-अन्य वर्ण की लेश्याएँ। __ जैनागम में इन लेश्याओं के शुभाशुभ परिणामों की तरतमता को समझाने के लिए एक बहुचर्चित दृष्टान्त का उल्लेख हुआ है जिसमें छह मित्रों की मनोदशा का वर्णन हुआ है। छह मित्र जामुन फल खाने के लिए निकल पड़ते हैं। मार्ग में उन्हें एक जामुन का वृक्ष दिखाई देता है। फलों से लदे जामुन वृक्ष को देखकर उनमें से एक मित्र कहता है कि “लो भई ! यह रहा जामुन का वृक्ष। इसे