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सत्रहवाँ बोल : लेश्या छह
(शुभ-अशुभ लेश्याओं का स्वरूप) (१) कृष्ण लेश्या, (२) नील लेश्या, (३) कापोत लेश्या, (४) तेजोलेश्या, (५) पद्म लेश्या, (६) शुक्ल लेश्या।
जैनदर्शन में लेश्या एक पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ है जीव के मन, वचन व काय का परिणमन (Thought paints-थॉट पेण्ट्स)। जीव के ये परिणमन कषायों से अनुरजित रहते हैं जिसके कारण प्रत्येक संसारी जीव अष्टकर्मों से बँधता है। इस प्रकार योग और कषाय रजित परिणाम लेश्या है। अर्थात् योग + कषाय = लेश्या। चूँकि इसमें योग की प्रधानता रहती है अतः योग प्रवृत्ति को भी कहीं-कहीं पर लेश्या कहा गया है। यह कथन इस अपेक्षा से है कि तेरहवें गुणस्थानवी जीवों में कषायों का लोप हो जाता है किन्तु मन, वचन व काय की प्रवृत्ति वहाँ अभी भी बनी रहती है अतः तेरहवें गुणस्थान में जो लेश्या होती है वह योग प्रवृत्तिपरक होती है। जीवों के परिणाम शुभ भी हो सकते हैं और अशुभ भी हो सकते हैं अतः लेश्या के भी दो रूप हो जाते हैं-एक शुभ परिणाम वाली शुभ लेश्या और दूसरी अशुभ परिणाम वाली अशुभ लेश्या। शुभ लेश्या धर्म लेश्या और अशुभ लेश्या अधर्म लेश्या है। ___ जैनागम में लेश्या के दो भेद किए गए हैं-एक भाव लेश्या और दूसरी द्रव्य लेश्या। योग और कषाय के निमित्त से जीवों की जो भाव परिणति या विचार या तरंग या मनोवृत्ति बनती है, वह भाव लेश्या है। यानी संक्लेश और योग से अनुगत आत्मा के मनोभाव विशेष भाव लेश्या है और लेश्या का जो पौद्गलिक रूप है वह द्रव्य लेश्या है। इस प्रकार भाव लेश्या यदि आत्मीय विचार हैं तो द्रव्य लेश्या उनके सहायक पुद्गल रूप हैं। इस प्रकार जैनदर्शन में लेश्या परिणाम की जहाँ भी चर्चा हुई है वहाँ केवल जीव के मनोभावों का