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* ११६ * सत्रहवाँ बोल : लेश्या छह
काटकर नीचे गिरा दें जिससे नीचे बैठे-बैठे ही अच्छे फल खा सकें।” दूसरा कहता है- "पूरे वृक्ष को काटने से क्या लाभ है ? इसकी मोटी-मोटी शाखाएँ ही काट लें।" तीसरा कहता है- “ शाखाओं को काटने की भी कोई आवश्यकता नहीं है, टहनियों से ही काम चल जायेगा ।" चौथा कहता है- "नहीं भाई ! फलों
गुच्छे ही तोड़ लो। वे ही काफी हैं।" पाँचवाँ कहता है- “गुच्छे को क्यों तोड़ते हो ? पके हुए फल ही तोड़ लें, यही ठीक रहेगा।” अन्त में छठा बोलता है - "सब व्यर्थ की बातें हैं जब हमें पके हुए फल ही खाने हैं तो नीचे गिरे हुए फलों को बीन - बीनकर क्यों नहीं खा लेते। वृक्ष, शाखाएँ, टहनियाँ, गुच्छे, फलों को काटने - तोड़ने की क्या आवश्यकता है ? हमें जितने फलों की आवश्यकता है, उतने तो नीचे ही गिरे हुए हैं। फिर व्यर्थ में इतने फल तोड़ने से क्या लाभ ?”
अब आप देखिए । छह मित्रों का एक ही प्रयोजन है - जामुन फल खाना । किन्तु छहों के भावों- परिणामों में कितनी भिन्नता है ? पहले वाले के परिणाम कृष्ण लेश्या के हैं और क्रमशः छठे मित्र के परिणाम शुक्ल लेश्या के हैं। यानी पहले मित्र के भाव या परिणाम निकृष्टतम हैं फिर दूसरे, तीसरे इस तरहक्रमशः मित्रों के भाव - परिणाम उत्कृष्ट होते गए हैं । षड्लेश्याओं के वर्ण, स्वभाव आदि के बारे में क्रमशः विवेचन इस प्रकार से है -:
(१) कृष्ण लेश्या
इस लेश्या का वर्ण जलयुक्त मेघ, महिष-शृंग, द्रोण - काक, खंजन, अंजन और नेत्र तारा के समान कृष्ण होता है। ऐसे जीव का स्वभाव कडुवी तुम्बी - जैसा होता है। गंध दुर्गन्ध होती है और स्पर्श कर्कश होता है। ऐसे जीवों की मनोवृत्ति निकृष्टतम होती है। विचारों से वह अत्यन्त क्षुद्र, क्रूर, कठोर व नृशंस होता है। अहिंसादि व्रतों के पालने में उसे कोई रुचि नहीं होती है। वह इन व्रतों से घृणा करता है और पापपूर्ण प्रवृत्तियों में निमग्न रहता है। वह अतीव स्वार्थी, भोग-विलासी, अविवेकी, बदला लेने में विश्वास रखने वाला अधार्मिक होता है।
(२) नील लेश्या
इस लेश्या का वर्ण नील, अशोक वृक्ष, चास पक्षी की पंख और स्निग्ध वैडूर्यमणि के समान नील होता है। ऐसे जीव का स्वभाव मिर्च की तरह होता है। गंध दुर्गन्ध होती है और स्पर्श कर्कश होता है। पहले वाले लेश्या की तुलना