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* १२४ * अठारहवाँ बोल : दृष्टि तीन
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(३) क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्व, (४) वेदक सम्यक्त्व, (५) सास्वादन सम्यक्त्व, (६) पौद्गलिक और अपौद्गलिक सम्यक्त्व, (७) द्रव्य और भाव सम्यक्त्व, (८) रुचि की अपेक्षा से निसर्गज आदि दस प्रकार का सम्यक्त्व, (९) कारक, रोचक और दीपक सम्यक्त्व।
सम्यक्त्व के चाहे कितने भी भेद हों पर इनकी उत्पत्ति के मूल में मिथ्यात्व की तीन प्रकृतियाँ-(१) मिथ्यात्व प्रकृति, (२) मिश्र प्रकृति, (३) सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृति तथा अनन्तानुबंधी की चार-(४) क्रोध, (५) मान, (६) माया, (७) लोभ-प्रकृतियों अर्थात् सात प्रकृतियाँ, जिन्हें दर्शन सप्तक कहां जाता है, का क्षय, उपशम या क्षयोपशम है। सम्यक्त्व के दूषण . सम्यक्त्व या सम्यक् दर्शन के पच्चीस दोष कहे गए हैं जिनके रहते सम्यक्त्व अप्रकट रहता है। ये दोष हैं
(१) तीन प्रकार की मूढ़ताएँ, (२) आठ प्रकार के मद, (३) छह अनायतन, (४) आठ शंकादि दोष। आठ अंग
आठ शंकादि दोषों के विपरीत सम्यक्त्व के आठ अंग भी माने गए हैं। इन दोषों के निकल जाने से सम्यक्त्व में जो विशुद्धि आती है वह आठ अंगों या आठ गुणों के रूप में प्रकट होती है। ये आठ अंग इस प्रकार हैं(१) निःशंकता, (२) निष्कांक्षता, (३) निर्विचिकित्सा, (४) अमूढ़ता,