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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * १५५ *
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को लेकर समझ सकते हैं। इस व्रत को स्वदार सन्तोष व्रत भी कहते हैं। यह व्रत भी तीन योगों व एक अथवा दो करणपूर्वक होता है। इस अणुव्रत का पालन धार्मिक, सामाजिक व नैतिक आदि दृष्टियों से श्रेयस्कर है। ब्रह्मचर्य से आत्म-विश्वास व आत्म-बल बढ़ता है। श्रावक न्यायमार्ग पर सदा आरूढ़ रहता है। अतः इस व्रत की गरिमा सर्वविदित है। इस अणुव्रत की सुदृढ़ता के लिए प्रत्येक श्रावक को निम्न पाँच बातों से सर्वथा बचना चाहिए। यथा
(१) किसी रखैल आदि के साथ कुसम्बन्ध स्थापित करना, (२) कुमारी या वेश्या आदि के साथ गमन करना, (३) अप्राकृतिक रूप से मैथुन सेवन करना, (४) अपना दूसरा विवाह करना तथा दूसरों के विवाह सम्बन्ध स्थापित
करते फिरना, (५) कामभोग की तीव्र अभिलाषा रखना। (५) अपरिग्रहाणुव्रत
पाँचवाँ अणुव्रत है अपरिग्रह अणुव्रत। इस व्रत को स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत तथा इच्छा परिमाण व्रत भी कहते हैं। यह भी तीन योग व दो करणपूर्वक होता है। परिग्रह पाप का मूल कहा गया है। क्योंकि इसके द्वारा ही अन्य पाप पनपते हैं। किन्तु श्रावक जीवन में सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग असम्भव है। अतः परिमाणानुसार परिग्रह रखते हुए मर्यादापूर्वक जीवन बिताना अपरिग्रह अणुव्रत कहलाता है। जैनागम में परिग्रह के नौ भेद किए गए हैं। यथा(१) क्षेत्र, (२) वास्तु, (३) हिरण्य, (४) सुवर्ण, (५) धन, (६) धान्य, (७) द्विपद, (८) चतुष्पद, (९) कुप्य या गोप्य। अपरिग्रह-अणुव्रती श्रावक इन नौ प्रकार के परिग्रहों में परिमाणपूर्वक एवं आवश्यकता के आधार पर मर्यादापूर्वक इनका ग्रहण व संग्रह करता है। क्योंकि उसे घर-संसार में रहकर जीवन व्यतीत करना होता है। अपरिग्रही अणुव्रती पदार्थों का आवश्यकता से अधिक कभी भी संचय नहीं करता है। इस अणुव्रत के पालने से श्रावक के जीवन में तृष्णा, लालसा कम होती है जिससे वह परम शक्ति व सन्तोष का अनुभव करता है। यह अणुव्रत सार्वजनिक हिताय के अनुकूल है। इस व्रत से समाज में समानता बढ़ती है। इस अणुव्रत की रक्षा के लिए प्रत्येक अणुव्रती श्रावक को निम्न बातों से दूर रहना चाहिए