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* ९८ : चौदहवाँ बोल : नव तत्त्व के एक सौ पन्द्रह भेद
तेल लगाकर धूल में लेटता है तो धूल उसके शरीर से चिपक जाती है । इसी प्रकार कर्म- पुद्गल आत्मा से कषाय और योग के द्वारा पूर्ण रूप से चिपक
जाते हैं।
बन्ध के दो रूप हैं- एक शुभ बन्ध और दूसरा अशुभ बन्ध । बन्ध पुण्य-पाप की बध्यमान अवस्था है और पुण्य-पाप शुभ - अशुभ कर्म की उदीयमान अवस्था है। इसे इस प्रकार से समझ सकते हैं कि जब तक कर्म के पुद्गल आत्मा के साथ बँधे हुए हैं, सत्तारूप में विद्यमान हैं तब तक आत्मा को कोई सुख-दुःख नहीं होता किन्तु जब शुभ कर्म या अशुभ कर्म उदय में आते हैं तब आत्मा को सुख या दुःख मिलता है । कर्मों की यही उदयावस्था क्रमशः पुण्य और पाप है । इसलिए जब तक बन्ध है और जब इन बँधे हुए कर्मों का शुभाशुभ उदय होता है तब शुभ उदय को पुण्य और अशुभ उदय को पाप कहते हैं। प्रत्येक कर्म जब बँधता है तो उसकी चार अवस्थाएँ होती हैं। ये ही चार अवस्थाएँ बंध के चार भेद हैं। यथा
(१) प्रकृति बन्ध,
(२) स्थितिबन्ध,
(३) अनुभाव बन्ध,
(४) प्रदेश बन्ध ।
सराग दशा में जीवों को चारों प्रकार का बन्ध होता है किन्तु वीतराग दशा में जब तक देह रहती है तब तक प्रकृति और प्रदेश का भी बन्ध होता है और जब आत्मा मुक्त हो जाती है या चौदहवें गुणस्थान में पहुँच जाती है तो वह निर्बन्ध हो जाती है ।
(९) मोक्ष तत्त्व (Salvation Element - साल्वेशन एलीमेण्ट )
नव तत्त्वों में मोक्ष तत्त्व अन्तिम तत्त्व है । संवर और निर्जरा के द्वारा जब सम्पूर्ण कर्मों का पूर्णरूपेण क्षय हो जाता है और आत्मा अपने विशुद्धतम रूप में प्रकट हो जाती है। यानी आत्म - गुणों का पूर्ण विकास हो जाता है वह मोक्ष है । कहीं-कहीं मोक्ष के लिए मुक्ति और निर्वाण शब्द का भी प्रयोग होता है । मोक्ष आत्मा की पूर्ण और अखण्ड अवस्था है । अतः मोक्ष के भेद-प्रभेद नहीं हो सकते किन्तु मोक्ष-प्राप्ति के साधन अवश्य विविध हो सकते हैं । प्रस्तुत बोल में मोक्ष तत्त्व के जो चार भेद बताये गये हैं, वे भेद नहीं, मोक्ष - प्राप्ति के साधन हैं।