________________
* ९६ * चौदहवाँ बोल : नव तत्त्व के एक सौ पन्द्रह भेद
संवर तत्त्व
व्रत
इन्द्रिय
संवर
योग
यतना
१. प्राणातिपात विरमण १. श्रोत्रेन्द्रिय निग्रह २. मृषावाद विरमण २. चक्षुरिन्द्रिय निग्रह ३. अदत्तादान विरमण ३. घ्राणेन्द्रिय निग्रह ४. अब्रह्मचर्य विरमण ४. रसनेन्द्रिय निग्रह ५. परिग्रह विरमण ५. स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह
१. सम्यक्त्व संवर २. विरति संवर ३. अप्रमाद संवर ४. अकषाय संवर ५. शुभ योग संवर
१. मनोनिग्रह २. वचन निग्रह ३. काय निग्रह
१. भाण्डोपकरणादि यतना
से लेना-रखना आदि २. सूचि, कुशाग्र मात्र,
यतना से लेना-रखना
(७) निर्जरा तत्त्व (Annihilation of Karmas Elementएनीहिलेशन ऑफ कर्माज एलीमेण्ट) .
ज्ञान और तपादि के माध्यम से आत्मा पर लगे कर्मों का झड़ना या दूर हो जाना निर्जरा कहलाती है। निर्जरा से आत्मा को कर्ममल से परिशुद्ध किया जाता है। यह दो प्रकार से होती है-एक सकाम निर्जरा और दूसरी अकाम निर्जरा। पहली प्रकार की निर्जरा में विवेक और ज्ञान के साथ संवरपूर्वक कर्मों का क्षय किया जाता है और दूसरी प्रकार की निर्जरा में बिना विवेक-ज्ञान और बिना संयम के उदय में आये कर्मों को भोगते अकाम निर्जरा हैं। इन दोनों प्रकार की निर्जरा में पहली प्रकार की निर्जरा आत्म-शुद्धि का हेतु है। यानी पहली प्रकार की निर्जरा में आत्म-विशुद्धि का लक्ष्य सामने रहता है और दूसरे प्रकार की निर्जरा में इसका अभाव रहता है।
निर्जरा में कर्मक्षय के लिए तप किया जाता है। यह तप निर्जरा का हेतु है, निर्जरा नहीं है किन्तु कारण में कार्य का उपचार करने से तप को निर्जरा कहा गया है। तप के दो भेद किये गये हैं-एक बाह्य तप जिसके पूर्वार्द्ध छह भेद हैं और दूसरा आभ्यन्तर तप इसके बाद के छह भेद हैं। बिना आभ्यन्तर तप के