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* ४० छटा बोल : प्राण दस
है । चार प्राण एकेन्द्रिय जीव में तथा दस प्राण संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव में होते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में पाए जाने वाले चार प्राण इस प्रकार हैं- स्पर्शनेन्द्रिय बल प्राण, काय बल प्राण, श्वासोच्छ्वास बल प्राण और आयुष्य बल प्राण । द्वीन्द्रिय जीवों में छह प्राणों का उल्लेख है - चार उपर्युक्त प्राण और एक रसनेन्द्रिय बल प्राण तथा एक वचन बल प्राण । त्रीन्द्रिय जीवों में सात प्राण- छह पूर्वोक्त और एक घ्राणेन्द्रिय बल प्राण होते हैं । चतुरिन्द्रिय जीवों में आठ प्राण-सात पूर्वोक्त और एक चक्षुरिन्द्रिय बल प्राण होते हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में नौ प्राण-आठ पूर्वोक्त और एक श्रोत्रेन्द्रिय बल प्राण हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में दस प्राण- नौ पूर्वोक्त और एक मन बल प्राण हैं । इस प्रकार जीवों में ज्यों-ज्यों इन्द्रियों का विकास होता जाता है त्यों-त्यों उनमें क्रमशः प्राणों का भी विकास होता जाता है। प्रत्येक संसारी जीव में स्पर्शन, काय, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य बल प्राण - चार प्रकार के प्राण तो अवश्य ही होते हैं। मृत्यु कब होती है ?
प्राण या जीवन शक्ति को और अधिक स्पष्ट रूप से समझने के लिए. हमें मृत्यु के विषय में भी मनन करना होगा । शरीर विज्ञान मानव शरीर में तीन अंगों को ही प्रमुख मानता है - हृदय (Heart), मस्तिष्क (Brain), फेफड़े (Lungs)। जब ये तीनों अपना कार्य करना बन्द कर देते हैं तो जीव की मृत्यु हो जाती है। पर कभी-कभी ऐसा होता है कि इन तीनों अंगों के कार्य करने की शक्ति समाप्त हो जाने पर भी मनुष्य जिन्दा रहता है। ऐसा क्यों ? इस सन्दर्भ में जैनदर्शन की मान्यता है कि जीवन-शक्ति के स्रोत ये तीन अंग ही नहीं हैं अपितु दस प्राण हैं। इन दस प्राणों में से किसी एक प्राण की शक्ति का काम बन्द हो जाने पर भी मृत्यु नहीं होती। जब तक आयुष्य बल प्राण क्रियाशील है तब तक किसी भी प्राण की शक्ति कम या बन्द हो जाये तो भी जीव जीवित रह सकता है। जीवन की समस्त क्रियाएँ, समस्त अंगों का संचालन तभी तक सम्भव है जब तक आयुष्य बल प्राण क्रियाशील है। इसके समाप्त होते ही जीवन की समस्त क्रियाएँ समाप्त हो जाती हैं और जीव मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस बात की और अधिक गहराई में जायें तो हम यह अनुभव करेंगे कि जो स्वस्थ प्राणी है जिसके सारे अंग क्रियाशील हैं वह अचानक मर जाता है और जो अस्वस्थ है, लम्बे समय से रुग्नादि है या दुर्घटनाग्रस्त हो गया है फिर भी वह जीवित है, ऐसा क्यों ? इसका क्या रहस्य है ? जैन दृष्टि से इसका समाधान यह