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आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल * ४१ *
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है कि आयु के पुद्गल जिस क्षण समाप्त हो जाते हैं, उस क्षण जीव स्वस्थ रहता हुआ भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। ठीक इसके विपरीत आयु के पुद्गल यदि अधिक हैं तो वह जीव रुग्ण और दुर्घटना के शिकार होते हुए भी जीवित बना रहता है। आयु के दो प्रकार । प्रायः यह कहा जाता है कि मनुष्य की जितनी आयु होती है उतना ही वह जीता है। आयुष्य को कोई भी घटा-बढ़ा नहीं सकता। फिर भी हम देखते हैं कि अग्नि या जल या ऊँचाई से छलाँग लगाने पर या जहर खाने पर मृत्यु अवश्यम्भावी है। ऐसा क्यों? इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आयु के दो प्रकार हैं-एक अपवर्तनीय आयु और दूसरी अनपवर्तनीय आयु। अपवर्तन का अर्थ है कम। जो आयु किसी निमित्त को पाकर कम हो सके वह अपवर्तनीय आयु और जो आयु किसी भी कारण से कम न हो सके वह अनपवर्तनीय आयु कहलाती है अर्थात् पहली प्रकार की आयु बंधकालीन स्थिति के पूरा होने से पूर्व भी भोगी जा सकती है और दूसरे प्रकार की आयु बंधकालीन स्थिति के पूरा होने से पूर्व नहीं भोगी जा सकती है। सामान्यतः पहली प्रकार की आयु, यानी अपवर्तनीय आयु को अकाल मृत्यु और दूसरे प्रकार की आयु, यानी अनपवर्तनीय आयु को काल मृत्यु या स्वाभाविक मृत्यु कहते हैं। अनपवर्तनीय आयु वाले जीवों की आयु स्थिति सदा नियत रहती है। उसमें कोई किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है अर्थात् इसके पहले वे किसी भी हालत में मर नहीं सकते। इन जीवों का आयु बन्धन इतना सुदृढ़ और सघन होता है कि बीच में वह टूट ही नहीं सकता। ऐसे जीव हैं-नारक, देव, असंख्यात वर्ष जीवी मनुष्य और तिर्यंच, चरमशरीरी और त्रिषष्टिशलाका पुरुष, जैसे-तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव। सामान्य पुरुष और तिर्यंच अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय दोनों प्रकार की आयु वाले होते हैं। निमित्त मिलने पर इनकी अकाल मृत्यु हो सकती है और निमित्त न मिलने पर अकाल मृत्यु नहीं भी हो सकती है। ___ अकाल मृत्य के अनेक निमित्त-कारण होते हैं। इन निमित्तों को उपक्रम भी कह सकते हैं। जैनागम में आयुभंग के सात कारण बताये गये हैं। यथा
(१) अध्यवसाय, यानी तीव्र राग-द्वेष अथवा भय से, (२) निमित्त, यानी दण्ड, शस्त्र आदि द्वारा,