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* ५२ * आठवाँ बोल : योग पन्द्रह
औदारिक काययोग में औदारिक शरीर की प्रवृत्ति होती है। ऐसा शरीर मनुष्य और तिर्यंचों का होता है।
औदारिक मिश्र काययोग में जैसा कि नाम से ही विदित है कि औदारिक शरीर के साथ अन्य किसी शरीर की सन्धि के समय होने वाली कायिक प्रवृत्ति होती है। औदारिक शरीर के साथ चार प्रकार के शरीर की संधि होने से यह काययोग चार प्रकार का होता है। यथा
(१) कार्मण काययोग के साथ औदारिक मिश्र, (२) आहारक काययोग के साथ औदारिक मिश्र, (३) वैक्रिय काययोग के साथ औदारिक मिश्र, (४) केवली समुद्घात के समय दूसरे, छठे व सातवें समय में कार्मण के
साथ औदारिक मिश्र काययोग। तीसरे प्रकार का काययोग है वैक्रिय काययोग। यह शरीर देवों और नारक जीवों के होता है। इसमें देवता और नारक में शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद वैक्रिय शरीर की तथा मनुष्य और तिर्यंच में लब्धि जन्य वैक्रिय शरीर की क्रिया या प्रवृत्ति होती है। ___ चौथे प्रकार के काययोग में वैक्रिय शरीर से मिश्रित अन्य किसी शरीर की संधि के समय की कायिक प्रवृत्ति होती है। यह दो प्रकार का होता है-एक कार्मणयोग के साथ वैक्रियक मिश्र काययोग, दूसरा औदारिक काययोग के साथ वैक्रियक मिश्र काययोग। __पाँचवें प्रकार के काययोग में आहारक शरीर की प्रवृत्ति होती है। यह शरीर चौदह पूर्वधर संयमी मुनि ही अपने तपस्या जन्य लब्धि-बल से निर्मित करते हैं। __छठे प्रकार के काययोग में आहारक शरीर के साथ अन्य शरीर की सन्धि के समय होने वाली कायिक प्रवृत्ति होती है।
सातवें प्रकार के काययोग में कार्मण शरीर की प्रवृत्ति होती है। जब जीव एक गति से दूसरी गति में या एक भव से दूसरे भव में जन्म लेने के लिए गमन करता है तब कार्मण काययोग साथ होता है।
मन में यह प्रश्न उद्भूत हो सकता है कि कार्मण योग की तरह तैजस् योग को क्यों नहीं माना गया? यानी औदारिक, वैक्रिय, आहारक और कार्मण