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* ६२ : दसवाँ बोल : उपयोग बारह
प्रभाव शरीर आदि पर ही प्रमुख रूप से पड़ता है। ये जीव को उसी जन्म में टिकाए रखते हैं।
(१) ज्ञानावरण कर्म
यह कर्म आत्मा के ज्ञानगुण को आवृत / आच्छादित / विकृत करता है । इस कर्म के क्षय होने पर केवलज्ञान की प्राप्ति होती है । इस कर्म का स्वभाव आँख पर बँधी पट्टी के समान होता है । जिस प्रकार पट्टी बँधने से देखने में बाधा पहुँचती है उसी प्रकार इस कर्म के प्रभाव से जानने में अवरोध उत्पन्न होता है । इस कर्म के पाँच भेद हैं। यथा
(१) मतिज्ञानावरण,
(२) श्रुतज्ञानावरण,
(३) अवधिज्ञानावरण,
(४) मनः पर्यवज्ञानावरण,
(५) केवलज्ञानावरण।
यद्यपि कर्मबन्ध के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पाँच हेतु हैं तथापि जिन कारणों से ज्ञानावरण कर्म का विशेष बन्ध होता है वे इस प्रकार से हैं
(१) ज्ञान - ज्ञानी से प्रतिकूलता और द्वेष रखना,
(२) ज्ञान तथा ज्ञानदाता गुरुओं का नाम छिपाना अथवा ज्ञानी को ज्ञानी नहीं कहना,
(३) ज्ञान को प्राप्त करने में विघ्न या बाधा डालना अर्थात् अन्तराय उपस्थित करना,
(४) ज्ञान या ज्ञानी की अवहेलना करना,
(५) ज्ञान या ज्ञानी के वचनों में विसंवाद अर्थात् विरोध दिखाना । (२) दर्शनावरण कर्म
यह आत्मा के दर्शन गुण को आच्छादित करता है । इस कर्म के क्षीण होने से ही केवलदर्शन की प्राप्ति सम्भव है। इस कर्म की तुलना राजा के द्वारपाल से की जा सकती है। इस कर्म का स्वभाव परदे - जैसा है। इसके नौ भेद हैं। यथा