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(१) चक्षुः दर्शनावरण,
(२) अचक्षुः दर्शनावरण,
(३) अवधिदर्शनावरण, (४) केवलदर्शनावरण,
(५) सामान्य निद्रा,
(६) गहरी निद्रा,
(७) प्रचला,
(८) प्रचलाप्रचला,
(९) स्त्यानगृद्धि ।
आगमज्ञान की आधारशिला : पच्चीस बोल : ६३
जिन कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है, दर्शनावरण कर्म भी उन्हीं साधनों से बँधता है। इन दोनों में अन्तर केवल इतना ही है कि दर्शनावरण कर्म में ज्ञान और ज्ञान के साधन न होकर दर्शन और दर्शन के साधनों के प्रति वैसा व्यवहार होता है। ये कारण इस प्रकार हैं
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(१) दर्शन - दर्शनी से प्रतिकूलता और द्वेष रखना,
(२) दर्शन तथा दर्शनदाता का नाम छिपाना अथवा दर्शनी को कहना कि यह दर्शनी नहीं है,
(३) दर्शन को प्राप्त करने में विघ्न-बाधा डालना अथवा अन्तराय उपस्थित करना,
(४) दर्शन या दर्शनी की अवहेलना करना,
(५) दर्शन या दर्शनी के वचनों में विसंवाद अथवा विरोध दिखाना । (३) वेदनीय कर्म
यह कर्म जीव को सांसारिक सुख - दुःखों की अनुभूति कराता है । इस कर्म के क्षीण होने पर आत्मा का अनन्त सुख गुण प्रकट हो जाता है। इसका स्वभाव शहद से लिप्त तलवार या छुरी - जैसा है। इसके दो भेद हैं - एक सातावेदनीय कर्म और दूसरा असातावेदनीय कर्म । पहले प्रकार के कर्म से जीवों को अनुकूल . संयोगों की प्राप्ति होती है जिससे उसे शारीरिक-मानसिक सुख की अनुभूति होती है जबकि दूसरे प्रकार के कर्म से प्रतिकूल संयोगों की प्राप्ति होती है जिससे जीव को मानसिक-शारीरिक दुःख - संक्लेश का अनुभव होता है। इस कर्मबंध