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आगमज्ञान की आधारशिला : पचीस बोल *६१ *
चिपकने का यह सिलसिला अनादिकाल से निरन्तर प्रवहमान है। किन्तु जीवों में यह सिलसिला अनन्तकाल तक ऐसा ही बना रहेगा, ऐसी बात नहीं है। इसका अन्त भी हो सकता है। इसके लिए आचार्यों ने कहा है कि जिस प्रकार खान में से निकले हुए मिट्टी आदि से चिपके हुए स्वर्ण-पाषाण को विशेष शोध क्रिया द्वारा मिट्टी आदि को पृथक् कर शुद्ध-परिशुद्ध बनाया जाता है, उसी प्रकार कर्मों से चिपकी हुई आत्मा को तपादि द्वारा कर्मों से अलग अर्थात् शुद्ध किया जाता है। कर्मों से रहित आत्मा शुद्ध, मुक्त और बुद्ध होती है जबकि कर्मों से जकड़ी आत्मा विकारों से युक्त अर्थात् अशुद्ध होती है और संसार के परिभ्रमण का कारण बनती है। कर्म के दो भेद हैं-एक द्रव्यकर्म और दूसरा भावकर्म। राग, द्वेष और कषाय आदि भावकर्म हैं और भावकर्म के निमित्त से कर्म-पुद्गलों की एक विशेष परिणति द्रव्यकर्म है। द्रव्यकर्म से भावकर्म और भावकर्म से द्रव्यकर्म की उत्पत्ति का यह क्रम अनादि है।
इस प्रकार कर्म-पुद्गल शुभाशुभ प्रवृत्तियों द्वारा आकृष्ट होकर आत्मा के यथार्थ स्वरूप को विकृत या आवृत करते हैं, साथ ही अनुकूल-प्रतिकूल, यानी शुभाशुभ फल के कारण भी बनते हैं। यद्यपि ये कर्म-पुद्गल एकरूप हैं तो भी ये आत्मा के जिस गुण-स्वभाव को विकृत-आवृत या प्रभावित करते हैं, उसके अनुसार ही इन पुद्गलों का नाम होता है। जैसे आत्मा के ज्ञानगुण को प्रभावित करने वाला कर्म ज्ञानावरण कर्म कहलाता है।
कर्म के आठ भेद हैं(१) ज्ञानावरण कर्म, (२) दर्शनावरण कर्म, (३) वेदनीय कर्म, (४). मोहनीय कर्म, (५) आयुष्य कर्म, (६) नाम कर्म, (७) गोत्र कर्म, (८) अन्तराय कर्म।
इनमें पहले चार घाति कर्म और बाद के चार अघाति कर्म हैं। घाति कर्म आत्मा के मुख्य या स्वाभाविक गुणों का घात करते हैं जबकि अघाति कर्म का