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दसवाँ बोल : कर्म आठ (आत्म-शक्तियों के आवाक आठ प्रकार के कर्म और
उनके बंध हेतुओं का वर्णन)
(१) ज्ञानावरण कर्म, (२) दर्शनावरण कर्म, (३) वेदनीय कर्म, (४) मोहनीय कर्म, (५) आयुष्य कर्म, (६) नाम कर्म, (७) गोत्र कर्म, (८) अन्तराय कर्म।
जीवन में जितनी भी विविधताएँ और विषमताएँ हैं उनका मूल हेतु कर्म है। कर्म का सामान्य अर्थ है-कार्य, प्रवृत्ति अथवा क्रिया। हँसना, रोना, चलना, काम-धंधा या व्यवसाय आदि करना यह भी एक कर्म है। इस तरह कर्म के अनेक अर्थ हैं। दार्शनिक क्षेत्र में कर्म की अनेक व्याख्याएँ हुई हैं। उनके अनुसार कर्म कहीं कायिक क्रियाकाण्डों एवं अन्य प्रवृत्तियों के अर्थ में तो कहीं कर्तव्यों, संस्कारों एवं वासनाओं आदि के रूप में प्रयुक्त है। पर जैनदर्शन में कर्म का जो विवेचन हुआ है वह अत्यन्त वैज्ञानिक है। __जैनदर्शन के अनुसार लोक अनेक प्रकार के पुद्गल परमाणुओं या वर्गणाओं से परिव्याप्त है। इनमें से जो पुद्गल परमाणु कर्मरूप में परिणत हैं वे कार्मण पुद्गल कहलाते हैं और इन कार्मण पुद्गलों का आत्मा के साथ बँधना/जुड़ना/चिपकना कर्म है। ये कर्म-परमाणु राग-द्वेषरूपी कषायों की चिकनाहट और मन, वचन व काय की प्रवृत्ति अर्थात् योग की चंचलता के कारण आत्मा के साथ सम्बन्ध स्थापित करते हैं। आत्मा और कर्म का यह सम्बन्ध दूध और .पानी, अग्नि और लोहपिण्ड की तरह होता है। यह सम्बन्ध अनादिकाल से है जिसमें पुराने कर्म अलग भी होते हैं और नए कर्म चिपकते भी हैं। इस तरह पुराने कर्मों का आत्मा से अलग होना और नए कर्मों के